Top Banner
सससस ससससस ममममममम ममममम
12

Sona hirni

Apr 13, 2017

Download

Social Media

Arti Maggo
Welcome message from author
This document is posted to help you gain knowledge. Please leave a comment to let me know what you think about it! Share it to your friends and learn new things together.
Transcript
Page 1: Sona hirni

सोना हि�रनी महादेवी वमा

Page 2: Sona hirni

सोना की आज अचानक स्मृति� हो आने का कारण है। मेरे परिरचिच� स्वर्गी य डाक्टर धीरेन्द्र नाथ वसु की पौत्री सस्मिस्म�ा ने चि-खा है :'र्गी� वर्ष अपने पड़ोसी से मुझे एक तिहरन मिम-ा था। बी�े कुछ महीनों में हम उससे बहु� स्नेह करने -रे्गी हैं। परन्�ु अब मैं अनुभव कर�ी हँू तिक सघन जंर्गी- से सम्बद्ध रहने के कारण �था अब बडे़ हो जाने के कारण उसे घूमने के चि-ए अमिधक तिवस्�ृ� स्थान चातिहए।'क्या कृपा करके उसे स्वीकार करेंर्गीी? सचमुच मैं आपकी बहु� आभारी हँूर्गीी, क्योंतिक आप जान�ी हैं, मैं उसे ऐसे व्यचिF को नहीं देना चाह�ी, जो उससे बुरा व्यवहार करे। मेरा तिवश्वास है, आपके यहाँ उसकी भ-ी भाँति� देखभा- हो सकेर्गीी।'कई वर्ष पूव मैंने तिनश्चय तिकया तिक अब तिहरन नहीं पा-ँूर्गीी, परन्�ु आज उस तिनयम को भंर्गी तिकए तिबना इस कोम--प्राण जीव की रक्षा सम्भव नहीं है।सोना भी इसी प्रकार अचानक आई थी, परन्�ु वह �ब �क अपनी शैशवावस्था भी पार नहीं कर सकी थी। सुनहरे रंर्गी के रेशमी -च्छों की र्गीाँठ के समान उसका कोम- -घु शरीर था। छोटा-सा मँुह और बड़ी-बड़ी पानीदार आँखें। देख�ी थी �ो -र्गी�ा था तिक अभी छ-क पड़ेंर्गीी। उनमें प्रसुप्� र्गीति� की तिबज-ी की -हर आँखों में कौंध जा�ी थी।.

Page 3: Sona hirni

सब उसके सर- चिशशु रूप से इ�ने प्रभातिव� हुए तिक तिकसी चम्पकवणा रूपसी के उपयुF सोना, सुवणा, स्वण-ेखा आदिद नाम उसका परिरचय बन र्गीए।परन्�ु उस बेचारे हरिरण-शावक की कथा �ो मिमट्टी की ऐसी व्यथा कथा है, जिजसे मनुष्य तिनषु्ठर�ा र्गीढ़�ी है। वह न तिकसी दु-भ खान के अमूल्य हीरे की कथा है और न अथाह समुद्र के महाघ मो�ी की।तिनज व वस्�ुओं से मनुष्य अपने शरीर का प्रसाधन मात्र कर�ा है, अ�: उनकी स्थिस्थति� में परिरव�न के अति�रिरF कुछ कथनीय नहीं रह�ा। परन्�ु सजीव से उसे शरीर या अहंकार का जैसा पोर्षण अभीष्ट है, उसमें जीवन-मृत्यु का संघर्ष ह,ै जो सारी जीवनकथा का �त्व है।जिजन्होंने हरीति�मा में -हरा�े हुए मैदान पर छ-ाँर्गीें भर�े हुए तिहरनों के झंुड को देखा होर्गीा, वही उस अद्भ�ु, र्गीति�शी- सौन्दय की कल्पना कर सक�ा है। मानो �र- मरक� के समुद्र में सुनह-े फेनवा-ी -हरों का उदे्व-न हो। परन्�ु जीवन के इस च- सौन्दय के प्रति� चिशकारी का आकर्षण नहीं रह�ा।मैं प्राय: सोच�ी हँू तिक मनुष्य जीवन की ऐसी सुन्दर ऊजा को तिनष्क्रिष्jय और जड़ बनाने के काय को मनोरंजन कैसे कह�ा है।मनुष्य मृत्यु को असुन्दर ही नहीं, अपतिवत्र भी मान�ा है। उसके तिप्रय�म आत्मीय जन का शव भी उसके तिनकट अपतिवत्र, अस्पृश्य �था भयजनक हो उठ�ा है। जब मृत्यु इ�नी अपतिवत्र और असुन्दर है, �ब उसे बाँट�े घूमना क्यों अपतिवत्र और असुन्दर काय नहीं है, यह मैं समझ नहीं पा�ी।आकाश में रंर्गीतिबरंर्गीे फू-ों की घटाओं के समान उड़�े हुए और वीणा, वंशी, मुरज, ज-�रंर्गी आदिद का वृन्दवादन (आकm स्ट्रा) बजा�े हुए पक्षी तिक�ने सुन्दर जान पड़�े हैं। मनुष्य ने बन्दूक उठाई, तिनशाना साधा और कई र्गीा�े-उड़�े पक्षी धर�ी पर ढे-े के समान आ तिर्गीरे। तिकसी की -ा--पी-ी चोंचवा-ी र्गीदन टूट र्गीई है, तिकसी के पी-े सुन्दर पंजे टेढे़ हो र्गीए हैं और तिकसी के इन्द्रधनुर्षी पंख तिबखर र्गीए हैं। क्ष�तिवक्ष� रFस्ना� उन मृ�-अधमृ� -घु र्गीा�ों में न अब संर्गीी� है; न सौन्दय, परन्�ु �ब भी मारनेवा-ा अपनी सफ-�ा पर नाच उठ�ा है।

Page 4: Sona hirni

• पक्षिक्षजर्गी� में ही नही, पशुजर्गी� में भी मनुष्य की ध्वंस-ी-ा ऐसी ही तिनषु्ठर है। पशुजर्गी� में तिहरन जैसा तिनरीह और सुन्दर पशु नहीं है - उसकी आँखें �ो मानो करुणा की चिचत्रचि-तिप हैं। परन्�ु इसका भी र्गीति�मय, सजीव सौन्दय मनुष्य का मनोरंजन करने में असमथ है। मानव को, जो जीवन का शे्रष्ठ�म रूप है, जीवन के अन्य रूपों के प्रति� इ�नी तिव�ृष्णा और तिवरचिF और मृत्यु के प्रति� इ�ना मोह और इ�ना आकर्षण क्यों?

• बेचारी सोना भी मनुष्य की इसी तिनषु्ठर मनोरंजनतिप्रय�ा के कारण अपने अरण्य-परिरवेश और स्वजाति� से दूर मानव समाज में आ पड़ी थी।

• प्रशान्� वनस्थ-ी में जब अ-स भाव से रोमन्थन कर�ा हुआ मृर्गी समूह चिशकारिरयों की आहट से चौंककर भार्गीा, �ब सोना की माँ सद्य:प्रसू�ा होने के कारण भार्गीने में असमथ रही। सद्य:जा� मृर्गीचिशशु �ो भार्गी नहीं सक�ा था, अ�: मृर्गीी माँ ने अपनी सन्�ान को अपने शरीर की ओट में सुरक्षिक्ष� रखने के प्रयास में प्राण दिदए।

• प�ा नहीं, दया के कारण या कौ�ुकतिप्रय�ा के कारण चिशकारी मृ� तिहरनी के साथ उसके रF से सने और ठंडे स्�नों से चिचपटे हुए शावक को जीतिव� उठा -ाए। उनमें से तिकसी के परिरवार की सदय र्गीृतिहणी और बच्चों ने उसे पानी मिम-ा दूध तिप-ा-तिप-ाकर दो-चार दिदन जीतिव� रखा।

Page 5: Sona hirni

• सुस्मिस्म�ा वसु के समान ही तिकसी बाचि-का को मेरा स्मरण हो आया और वह उस अनाथ शावक को मुमूर्ष अवस्था में मेरे पास -े आई। शावक अवांचिछ� �ो था ही, उसके बचने की आशा भी धूमिम- थी, परन्�ु मैंने उसे स्वीकार कर चि-या। ष्क्रिस्नग्ध सुनह-े रंर्गी के कारण सब उसे सोना कहने -रे्गी। दूध तिप-ाने की शीशी, ग्-ूकोज, बकरी का दूध आदिद सब कुछ एकत्र करके, उसे पा-ने का कदिठन अनुष्ठान आरम्भ हुआ।

• उसका मुख इ�ना छोटा-सा था तिक उसमें शीशी का तिनप- समा�ा ही नहीं था - उस पर उसे पीना भी नहीं आ�ा था। तिफर धीरे-धीरे उसे पीना ही नहीं, दूध की बो�- पहचानना भी आ र्गीया। आँर्गीन में कूद�े-फाँद�े हुए भी भचिFन को बो�- साफ कर�े देखकर वह दौड़ आ�ी और अपनी �र- चतिक� आँखों से उसे ऐसे देखने -र्गी�ी, मानो वह कोई सजीव मिमत्र हो।

• उसने रा� में मेरे प-ंर्गी के पाये से सटकर बैठना सीख चि-या था, पर वहाँ रं्गीदा न करने की आद� कुछ दिदनों के अभ्यास से पड़ सकी। अँधेरा हो�े ही वह मेरे कमरे में प-ंर्गी के पास आ बैठ�ी और तिफर सवेरा होने पर ही बाहर तिनक-�ी।

• उसका दिदन भर का कायक-ाप भी एक प्रकार से तिनक्षिश्च� था। तिवद्या-य और छात्रावास की तिवद्यार्थिथ}तिनयों के तिनकट पह-े वह कौ�ुक का कारण रही, परन्�ु कुछ दिदन बी� जाने पर वह उनकी ऐसी तिप्रय साचिथन बन र्गीई, जिजसके तिबना उनका तिकसी काम में मन नहीं -र्गी�ा था।

Page 6: Sona hirni

दूध पीकर और भीर्गीे चने खाकर सोना कुछ देर कम्पाउण्ड में चारों पैरों को सन्�ुचि-� कर चौकड़ी भर�ी। तिफर वह छात्रावास पहुँच�ी और प्रत्येक कमरे का भी�र, बाहर तिनरीक्षण कर�ी। सवेरे छात्रावास में तिवचिचत्र-सी तिjयाशी-�ा रह�ी है - कोई छात्रा हाथ-मुँह धो�ी है, कोई बा-ों में कंघी कर�ी है, कोई साड़ी बद-�ी है, कोई अपनी मेज की सफाई कर�ी है, कोई स्नान करके भीरे्गी कपडे़ सूखने के चि-ए फै-ा�ी है और कोई पूजा कर�ी है। सोना के पहुँच जाने पर इस तिवतिवध कम-संकु-�ा में एक नया काम और जुड़ जा�ा था। कोई छात्रा उसके माथे पर कुमकुम का बड़ा-सा टीका -र्गीा दे�ी, कोई र्गी-े में रिरबन बाँध दे�ी और कोई पूजा के ब�ाशे खिख-ा दे�ी।मेस में उसके पहुँच�े ही छात्राए ँही नहीं, नौकर-चाकर �क दौड़ आ�े और सभी उसे कुछ-न-कुछ खिख-ाने को उ�ाव-े रह�े, परन्�ु उसे तिबस्कुट को छोड़कर कम खाद्य पदाथ पसन्द थे।छात्रावास का जार्गीरण और ज-पान अध्याय समाप्� होने पर वह घास के मैदान में कभी दूब चर�ी और कभी उस पर -ोट�ी रह�ी। मेरे भोजन का समय वह तिकस प्रकार जान -े�ी थी, यह समझने का उपाय नहीं है, परन्�ु वह ठीक उसी समय भी�र आ जा�ी और �ब �क मुझसे सटी खड़ी रह�ी जब �क मेरा खाना समाप्� न हो जा�ा। कुछ चाव-, रोटी आदिद उसका भी प्राप्य रह�ा था, परन्�ु उसे कच्ची सब्जी ही अमिधक भा�ी थी।घंटी बज�े ही वह तिफर प्राथना के मैदान में पहुँच जा�ी और उसके समाप्� होने पर छात्रावास के समान ही कक्षाओं के भी�र-बाहर चक्कर -र्गीाना आरम्भ कर�ी।उसे छोटे बचे्च अमिधक तिप्रय थे, क्योंतिक उनके साथ खे-ने का अमिधक अवकाश रह�ा था। वे पंचिFबद्ध खडे़ होकर सोना-सोना पुकार�े और वह उनके ऊपर से छ्-ाँर्गी -र्गीाकर एक ओर से दूसरी ओर कूद�ी रह�ी। सरकस जैसा खे- कभी घंटों च-�ा, क्योंतिक खे- के घंटों में बच्चों की कक्षा के उपरान्� दूसरी आ�ी रह�ी।

Page 7: Sona hirni

मेरे प्रति� स्नेह-प्रदशन के उसके कई प्रकार थे। बाहर खड़े होने पर वह सामने या पीछे से छ्-ारँ्गी -र्गीा�ी और मेरे चिसर के ऊपर से दूसरी ओर तिनक- जा�ी। प्राय: देखनेवा-ों को भय हो�ा था तिक उसके पैरों से मेरे चिसर पर चोट न -र्गी जावे, परन्�ु वह पैरों को इस प्रकार चिसकोडे़ रह�ी थी और मेरे चिसर को इ�नी ऊँचाई से -ाँघ�ी थी तिक चोट -र्गीने की कोई सम्भावना ही नहीं रह�ी थी।भी�र आने पर वह मेरे पैरों से अपना शरीर रर्गीड़ने -र्गी�ी। मेरे बैठे रहने पर वह साड़ी का छोर मुँह में भर -े�ी और कभी पीछे चुपचाप खडे़ होकर चोटी ही चबा डा-�ी। डाँटने पर वह अपनी बड़ी र्गीो- और चतिक� आँखों में ऐसी अतिनवचनीय जिजज्ञासा भरकर एकटक देखने -र्गी�ी तिक हँसी आ जा�ी।कतिवरु्गीरु काचि-दास ने अपने नाटक में मृर्गीी-मृर्गी-शावक आदिद को इ�ना महत्व क्यों दिदया है, यह तिहरन पा-ने के उपरान्� ही ज्ञा� हो�ा है।पा-ने पर वह पशु न रहकर ऐसा स्नेही संर्गीी बन जा�ा है, जो मनुष्य के एकान्� शून्य को भर दे�ा है, परन्�ु खीझ उत्पन्न करने वा-ी जिजज्ञासा से उसे बेजिझ- नहीं बना�ा। यदिद मनुष्य दूसरे मनुष्य से केव- नेत्रों से बा� कर सक�ा, �ो बहु�-से तिववाद समाप्� हो जा�े, परन्�ु प्रकृति� को यह अभीष्ट नहीं रहा होर्गीा।सम्भव�: इसी से मनुष्य वाणी द्वारा परस्पर तिकए र्गीए आघा�ों और साथक शब्दभार से अपने प्राणों पर इन भार्षाहीन जीवों की स्नेह �र- दृमिष्ट का चन्दन -ेप -र्गीाकर स्वस्थ और आश्वस्� होना चाह�ा है।सरस्व�ी वाणी से ध्वतिन�-प्रति�ध्वतिन� कण्व के आश्रम में ऋतिर्षयों, ऋतिर्ष-पष्क्रित्नयों, ऋतिर्ष-कुमार-कुमारिरकाओं के साथ मूक अज्ञान मृर्गीों की स्थिस्थति� भी अतिनवाय है। मन्त्रपू� कुदिटयों के द्वार को नीहारकण चाहने वा-े मृर्गी रँुध -े�े हैं। तिवदा -े�ी हुई शकुन्�-ा का रु्गीरुजनों के उपदेश-आशीवाद से बेजिझ- अंच-, उसका अपत्यव� पाचि-� मृर्गीछौना थाम -े�ा है।

Page 8: Sona hirni

यस्य त्वया व्रणतिवरोपणमिम}डरु्गीदीनां�ै-ं न्यतिर्षच्य� मुखे कुशसूचिचतिवदे्ध।श्यामाकमुमिष्ट परिरवर्धिंध}�को जहाति�सो यं न पुत्रकृ�क: पदवीं मृर्गीस्�े॥

- अक्षिभज्ञानशाकुन्�-म्शकुन्�-ा के प्रश्न करने पर तिक कौन मेरा अंच- खींच रहा है, कण्व कह�े है :कुश के काँटे से जिजसका मुख चिछद जाने पर �ू उसे अच्छा करने के चि-ए हिह}र्गीोट का �े- -र्गीा�ी थी, जिजसे �ूने मुट्ठी भर-भर सावाँ के दानों से पा-ा है, जो �ेरे तिनकट पुत्रव�् है, वही �ेरा मृर्गी �ुझे रोक रहा है।सातिहत्य ही नहीं, -ोकर्गीी�ों की ममस्पर्थिश}�ा में भी मृर्गीों का तिवशेर्ष योर्गीदान रह�ा है।पशु मनुष्य के तिनश्छ- स्नेह से परिरचिच� रह�े हैं, उनकी ऊँची-नीची सामाजिजक स्थिस्थति�यों से नहीं, यह सत्य मुझे सोना से अनायास प्राप्� हो र्गीया।अनेक तिवद्यार्थिथ}तिनयों की भारी-भरकम रु्गीरूजी से सोना को क्या -ेना-देना था। वह �ो उस दृमिष्ट को पहचान�ी थी, जिजसमें उसके चि-ए स्नेह छ-क�ा था और उन हाथों को जान�ी थी, जिजन्होंने यत्नपूवक दूध की बो�- उसके मुख से -र्गीाई थी।यदिद सोना को अपने स्नेह की अक्षिभव्यचिF के चि-ए मेरे चिसर के ऊपर से कूदना आवश्यक -रे्गीर्गीा �ो वह कूदेर्गीी ही। मेरी तिकसी अन्य परिरस्थिस्थति� से प्रभातिव� होना, उसके चि-ए सम्भव ही नहीं था।कुत्ता स्वामी और सेवक का अन्�र जान�ा है और स्वामी की स्नेह या jोध की प्रत्येक मुद्रा से परिरचिच� रह�ा है। स्नेह से बु-ाने पर वह र्गीदर्गीद होकर तिनकट आ जा�ा है और jोध कर�े ही सभी� और दयनीय बनकर दुबक जा�ा है।

Page 9: Sona hirni

• पर तिहरन यह अन्�र नहीं जान�ा, अ�: उसका अपने पा-नेवा-े से डरना कदिठन है। यदिद उस पर jोध तिकया जावे �ो वह अपनी चतिक� आँखों में और अमिधक तिवस्मय भरकर पा-नेवा-े की दृमिष्ट से दृमिष्ट मिम-ाकर खड़ा रहेर्गीा - मानो पूछ�ा हो, क्या यह उचिच� है? वह केव- स्नेह पहचान�ा है, जिजसकी स्वीकृति� ज�ाने के चि-ए उसकी तिवशेर्ष चेष्टाए ँहैं।

• मेरी तिबल्-ी र्गीोधू-ी, कुत्ते हेमन्�-वसन्�, कुत्ती फ्-ोरा सब पह-े इस नए अति�चिथ को देखकर रुष्ट हुए, परन्�ु सोना ने थोडे़ ही दिदनों में सबसे सख्य स्थातिप� कर चि-या। तिफर �ो वह घास पर -ेट जा�ी और कुत्ते-तिबल्-ी उस पर उछ-�े-कूद�े रह�े। कोई उसके कान खींच�ा, कोई पैर और जब वे इस खे- में �न्मय हो जा�े, �ब वह अचानक चौकड़ी भरकर भार्गी�ी और वे तिर्गीर�े-पड़�े उसके पीछे दौड़ -र्गीा�े।

• वर्ष भर का समय बी� जाने पर सोना हरिरण शावक से हरिरणी में परिरवर्ति�}� होने -र्गीी। उसके शरीर के पी�ाभ रोयें �ाम्रवण झ-क देने -र्गीे। टाँर्गीें अमिधक सुडौ- और खुरों के का-ेपन में चमक आ र्गीई। ग्रीवा अमिधक बंतिकम और -ची-ी हो र्गीई। पीठ में भराव वा-ा उ�ार-चढ़ाव और ष्क्रिस्नग्ध�ा दिदखाई देने -र्गीी। परन्�ु सबसे अमिधक तिवशेर्ष�ा �ो उसकी आँखों और दृमिष्ट में मिम-�ी थी। आँखों के चारों ओर खिख}ची कज्ज- कोर में नी-े र्गीो-क और दृमिष्ट ऐसी -र्गी�ी थी, मानो नी-म के बल्बों में उज-ी तिवदु्य� का सु्फरण हो।

• सम्भव�: अब उसमें वन �था स्वजाति� का स्मृति�-संस्कार जार्गीने -र्गीा था। प्राय: सूने मैदान में वह र्गीदन ऊँची करके तिकसी की आहट की प्र�ीक्षा में खड़ी रह�ी। वासन्�ी हवा बहने पर यह मूक प्र�ीक्षा और अमिधक मार्मिम}क हो उठ�ी। शैशव के साचिथयों और उनकी उछ्--कूद से अब उसका पह-े जैसा मनोरंजन नहीं हो�ा था, अ�: उसकी प्र�ीक्षा के क्षण अमिधक हो�े जा�े थे।

• इसी बीच फ्-ोरा ने भचिFन की कुछ अँधेरी कोठरी के एकान्� कोने में चार बच्चों को जन्म दिदया और वह खे- के संतिर्गीयों को भू- कर अपनी नवीन सृमिष्ट के संरक्षण में व्यस्� हो र्गीई। एक-दो दिदन सोना अपनी सखी को खोज�ी रही, तिफर उसे इ�ने -घु जीवों से मिघरा देख कर उसकी स्वाभातिवक चतिक� दृमिष्ट र्गीम्भीर तिवस्मय से भर र्गीई।

Page 10: Sona hirni

• एक दिदन देखा, फ्-ोरा कहीं बाहर घूमने र्गीई है और सोना भचिFन की कोठरी में तिनक्षिश्चन्� -ेटी है। तिपल्-े आँखें बन्द करने के कारण चीं-चीं कर�े हुए सोना के उदर में दूध खोज रहे थे। �ब से सोना के तिनत्य के कायjम में तिपल्-ों के बीच -ेट जाना भी सष्क्रिम्मचि-� हो र्गीया। आश्चय की बा� यह थी तिक फ्-ोरा, हेमन्�, वसन्� या र्गीोधू-ी को �ो अपने बच्चों के पास फटकने भी नहीं दे�ी थी, परन्�ु सोना के संरक्षण में उन्हें छोड़कर आश्वस्� भाव से इधर-उधर घूमने च-ी जा�ी थी।

• सम्भव�: वह सोना की स्नेही और अहिह}सक प्रकृति� से परिरचिच� हो र्गीई थी। तिपल्-ों के बडे़ होने पर और उनकी आँखें खु- जाने पर सोना ने उन्हें भी अपने पीछे घूमनेवा-ी सेना में सष्क्रिम्मचि-� कर चि-या और मानो इस वृजिद्ध के उप-क्ष में आनन्दोत्सव मनाने के चि-ए अमिधक देर �क मेरे चिसर के आरपार चौकड़ी भर�ी रही। पर कुछ दिदनों के उपरान्� जब यह आनन्दोत्सव पुराना पड़ र्गीया, �ब उसकी शब्दहीन, संज्ञाहीन प्र�ीक्षा की स्�ब्ध घतिड़याँ तिफर -ौट आईं।

• उसी वर्ष र्गीर्मिम}यों में मेरा बद्रीनाथ-यात्रा का कायjम बना। प्राय: मैं अपने पा-�ू जीवों के कारण प्रवास कम कर�ी हूँ। उनकी देखरेख के चि-ए सेवक रहने पर भी मैं उन्हें छोड़कर आश्वस्� नहीं हो पा�ी। भचिFन, अनुरूप (नौकर) आदिद �ो साथ जाने वा-े थे ही, पा-�ू जीवों में से मैंने फ्-ोरा को साथ -े जाने का तिनक्षिश्चय तिकया, क्योंतिक वह मेरे तिबना रह नहीं सक�ी थी।

• छात्रावास बन्द था, अ�: सोना के तिनत्य नैमिमक्षित्तक काय-क-ाप भी बन्द हो र्गीए थे। मेरी उपस्थिस्थति� का भी अभाव था, अ�: उसके आनन्दोल्-ास के चि-ए भी अवकाश कम था।

• हेमन्�-वसन्� मेरी यात्रा और �ज्जतिन� अनुपस्थिस्थति� से परिरचिच� हो चुके थे। होल्डा- तिबछाकर उसमें तिबस्�र रख�े ही वे दौड़कर उस पर -ेट जा�े और भौंकने �था jन्दन की ध्वतिनयों के सष्क्रिम्मचि-� स्वर में मुझे मानो उपा-म्भ देने -र्गी�े। यदिद उन्हें बाँध न रखा जा�ा �ो वे कार में घुसकर बैठ जा�े या उसके पीछे-पीछे दौड़कर स्टेशन �क जा पहुँच�े। परन्�ु जब मैं च-ी जा�ी, �ब वे उदास भाव से मेरे -ौटने की प्र�ीक्षा करने -र्गी�े।

Page 11: Sona hirni

• सोना की सहज चे�ना में मेरी यात्रा जैसी स्थिस्थति� का बोध था, नप्रत्याव�न का; इसी से उसकी तिनराश जिजज्ञासा और तिवस्मय का अनुमान मेरे चि-ए सहज था।

• पैद- जाने-आने के तिनश्चय के कारण बद्रीनाथ की यात्रा में ग्रीष्मावकाश समाप्� हो र्गीया। 2 जु-ाई को -ौटकर जब मैं बँर्गी-े के द्वार पर आ खड़ी हुई, �ब तिबछुडे़ हुए पा-�ू जीवों में को-ाह- होने -र्गीा।

• र्गीोधू-ी कूदकर कन्धे पर आ बैठी। हेमन्�-वसन्� मेरे चारों ओर परिरjमा करके हर्ष की ध्वतिनयों में मेरा स्वार्गी� करने -रे्गी। पर मेरी दृमिष्ट सोना को खोजने -र्गीी। क्यों वह अपना उल्-ास व्यF करने के चि-ए मेरे चिसर के ऊपर से छ्-ाँर्गी नहीं -र्गीा�ी? सोना कहाँ है, पूछने पर मा-ी आँखें पोंछने -र्गीा और चपरासी, चौकीदार एक-दूसरे का मुख देखने -रे्गी। वे -ोर्गी, आने के साथ ही मुझे कोई दु:खद समाचार नहीं देना चाह�े थे, परन्�ु मा-ी की भावुक�ा ने तिबना बो-े ही उसे दे डा-ा।

• ज्ञा� हुआ तिक छात्रावास के सन्नाटे और फ्-ोरा के �था मेरे अभाव के कारण सोना इ�नी अस्थिस्थर हो र्गीई थी तिक इधर-उधर कुछ खोज�ी-सी वह प्राय: कम्पाउण्ड से बाहर तिनक- जा�ी थी। इ�नी बड़ी तिहरनी को पा-नेवा-े �ो कम थे, परन्�ु उससे खाद्य और स्वाद प्राप्� करने के इचु्छक व्यचिFयों का बाहुल्य था। इसी आशंका से मा-ी ने उसे मैदान में एक -म्बी रस्सी से बाँधना आरम्भ कर दिदया था।

• एक दिदन न जाने तिकस स्�ब्ध�ा की स्थिस्थति� में बन्धन की सीमा भू-कर बहु� ऊचाँई �क उछ-ी और रस्सी के कारण मुख के ब- धर�ी पर आ तिर्गीरी। वही उसकी अन्तिन्�म साँस और अन्तिन्�म उछा- थी।

• सब उस सुनह-े रेशम की र्गीठरी के शरीर को र्गींर्गीा में प्रवातिह� कर आए और इस प्रकार तिकसी तिनजन वन में जन्मी और जन-संकु-�ा में प-ी सोना की करुण कथा का अन्� हुआ।

• सब सुनकर मैंने तिनश्चय तिकया था तिक तिहरन नहीं पा-ूँर्गीी, पर संयोर्गी से तिफर तिहरन ही पा-ना पड़ रहा है।

Page 12: Sona hirni

MADE BY:

NAME : BHAWANA GOSWAMICLASS: IX AROLL NO: 8