भक्तिकालीन काव्य
लेक्चर -1
इस लेक्चर में हम भक्तिकालीन परिस्थितियों का संक्षेप में वर्णन
करेंगे और यह जानने की कोशिश करेंगे की किन स्थितियों के बीच
भक्तिकाव्य लिखा जाता है और यह समझाने की कोशिश करंगे कि कैसे
परिस्थितियों के द्वंद्व से भक्तिकाव्य का विविधतापूर्ण स्वरूप निखर
कर सामने आता है |
भक्तिकाल की परिस्थितियां
धार्मिक साहित्य में भक्तिकाल अपना एक अहम और महत्वपूर्ण
स्थान रखता है। आदिकाल के बाद आये इस युग को पूर्व मध्यकाल भी कहा
जाता है। जिसकी समयावधि आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी के अनुसार १३१८ई से
१६४३ई तक की मानी जाती है। यह हिंदी साहित्य(साहित्यिक दो प्रकार के
हैं- धार्मिक साहित्य और लौकिक साहित्य) का श्रेष्ठ युग है। जिसको
जॉर्ज ग्रियर्सन ने स्वर्णकाल, श्यामसुन्दर दास ने स्वर्णयुग, आचार्य
राम चंद्र शुक्ल ने भक्ति काल एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लोक जागरण
कहा। सम्पूर्ण साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इसी युग में
प्राप्त होती हैं।
आज हम इस लेख में जानेंगे भक्ति काल के परिस्थितियों के बारे
में........
भक्तिकाल की परिस्थितियां.............
१. राजनीतिक परिस्थिति२. सामाजिक परिस्थिति और३. धार्मिक
परिस्थिति
राजनीतिक परिस्थितियां:-
चौदहवीं शताब्दी हिंदी साहित्य के इतिहास में सबसे दुर्भाग्य
जनक समय रहा है।इसके दौरान विदेशियों के आक्रमण से देश की स्थिति
तहस-नहस हो गई थी। विशेषतः मुसलमानों के आक्रमण से बहुत से प्राचीन
मंदिर लूट लिये गये,मूर्तियां तोड़ दी गई। मुसलमानों के आतंक से
राजनीतिक सरगर्मी ठण्डी पड़ गई थी। देश के विभिन्न क्षेत्रों
में इनका जमावड़ा होने लगा था। इनके द्वारा शहर या नगर बसने लगे थे।
हिंदूओं के धर्म ग्रंथ जला दिए जाने लगे। बड़े-बड़े साधु-सन्यासी के
सिर कलम कर दिए जाने लगे। राजपूतों की आपसी मतभेद तथा हिंदुओं में
एकता की कमी के कारण स्थिति बद से बदतर होने लगी थी।बड़े-बड़े भाट और
चारण के ओज समाप्त हो गए थे।अंततः मुसलमान शासकों की अधीनता स्वीकार
करना ही एकमात्र सहारा था,जिससे जीवन की रक्षा हो सकी थी। संक्षेप में
कहा जा सकता है -
सामाजिक परिस्थितियां:-
राजनीतिक परिस्थितियां जब देश में पैर पसारने लगी तब
मुसलमानों का ही बोलबाला था। समाज में इन्हीं की चलती थी। मजहबी
जेहाद की जोश में मुसलमान हिंदुओं पर हर तरह से हावी थे।इनका अत्याचार
असहनीय हो गया था। हिंदुओं पर धर्म के नाम पर 'जजिया' नाम का अतिरिक्त
कर जबरन लगाया गया था।परिस्थितिवश हिंदू मजबूर थे।ये निष्फल
क्रोध से घृणा से अभिभूत होकर मुसलमानों को म्लेच्छ कहते थे। हिंदुओं
में पारस्परिक मतभेद एवं एकबद्धता की कमी होने के कारण इन्हें
मुसलमानों के अत्याचार का शिकार होना पड़ा था।कोई मुसलमान शासकों ने
सैद्धन्तिक तौर या पारस्परिक राजनीतिक षड्यंत्र के माध्यम से हिंदू
राजाओं के साथ रोजी-रोटी का संबंध स्थापित कर लिया था। समाज के कुछ
वर्गों की स्त्रियां अपना मान-सम्मान बचाने के उद्देश्य से
आत्महत्या करने लगी थीं।आततायियों से सुरक्षित रहने के लिए सती
प्रथा, पर्दा प्रथा एवं जौहर व्रत का प्रचलन जोर पकड़ने लगा था। हिंदू
धर्म के आडंबरपूर्ण काण्ड का बोलबाला था। वंश की पवित्रता को ध्यान
में रखते हुए हिंदू समाज के ठेकेदारों ने अपने रहन-सहन, खान-पान, तथा
विभिन्न प्रकार की पारंपरिक प्रथाओं को अत्यंत जटिल एवं कठोर बना दिया
था। नारी को उपभोग का माध्यम माना जाता था। बहुत से लोग स्त्री को
मायावती का रूप मानते थे तथा उसे नरक का द्वार कहने में नहीं
हिचकिचाते थे। निम्न वर्ग के लोगों का जीवन स्तर बिल्कुल निम्न स्तर
का था।वे किसी भी प्रकार से जीवन जीने के लिए विवश थे। इस प्रकार
आदिकाल के भक्ति काल का साहित्य जगत सामाजिक कुरीतियों एवं उथल-पुथल
भरी परिस्थितियों के कारण अव्याहत दुआ है।
संक्षेप में कहा जा सकता है -
धार्मिक परिस्थितियां:-
धार्मिक दृष्टि से भी हिंदी साहित्य जगत किसी निश्चित सिद्धांत पर
अडिग नहीं था। एक तरफ प्राचीन सिद्धों और नाथों के खण्डनात्मक तथा
सांप्रदायिक योगी मार्ग प्रबल थी तो दूसरी तरफ धर्म के नाम पर आडम्बर,
रूढ़िवाद तथा जटिल से जटिल कर्मोंकाण्डों की प्रधानता थी।वेद
ब्राह्मण, कर्म-काण्ड तथा पूजा-पाठ के विरोधी थे। वे वास्तविक ज्ञान-
चर्चा साधना को ही मुक्ति मार्ग का लक्ष्य मानते थे| संक्षेप
में कहा जा सकता है -
सांस्कृतिक परिस्थिति
सांस्कृतिक दृष्टि से भक्तिकाल संक्रमण और सामंजस्य का काल है |
सनातन बहुभाषिक और बहु धार्मिक भारतीय संस्कृति का एकेश्वरवादी
इस्लामिक संस्कृति से मुठभेर होता है | चूँकि इस्लामिक संस्कृति
राजनीतिक सत्ता से जुडी थी इसलिए सनातन भारतीय संस्कृति उससे संक्रमित
हुए बिना नहीं रह सकती थी | आरंभ में सनातन भारतीय संस्कृति और
इस्लामिक संस्कृति के बीच टकराहट का समबन्ध रहा , लेकिन भरत में
जैसे-जैसे मुग़ल-तुर्क सत्ता स्थापित और विस्तारित होती गयी भारतीय
समाज और संस्कृति के साथ उसका सम्मिलन और सामंजस्य का सम्बन्ध बनता
चला गया | यह सम्मिलन और सामंजस्य सामाजिक,राजनीतिक, धार्मिक,
साहित्यिक, भाषाई सभी स्तरों पर बढ़ता चला गया | इस सन्दर्भ में नकार
और स्वीकार दोनों स्थितयां दिखाई देती हैं | संक्षेप में कहा जा सकता
है -
लेक्चर-2
भक्ति-आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर पुनः एक नज़र
भारतीय साहित्य में भक्ति आन्दोलन का अतिमहत्वपूर्ण स्थान है. इसकी
महत्वपूर्णता इसी बात से साबित होती है कि इसी आन्दोलन के पादुर्भाव
के समय, भारतीय समाज में एक ऐसे संघर्ष ने जन्म लिया, जिसके गर्भ से,
भक्ति साहित्य की दो धाराएं उत्पन्न हुई : निर्गुण और सगुण भक्ति. ऐसा
नहीं था की किसी समय-विशेष में एकाएक ही यह घटना एक महाआन्दोलन के रूप
में घटित हो गयी, बल्कि इसके घटित होने के पीछे तो इतिहास के कई
कालखंड थे, जिनकी अपनी विशेषताओं के कारण यह भक्ति आन्दोलन खड़ा
हुआ.
अपनी पुस्तक, ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ में हजारीप्रसाद द्विवेदी,
डॉ ग्रियर्सन के मत के माध्यम से अपनी इसी बात को स्थापित करते हैं,
वे लिखते हैं, “पूर्व के सहजयानी और नाथपंथियों की साधनामूलक रचनाएँ
तथा पश्चिम की अपभ्रंश-धारा की वीरत्व, नीति और श्रृंगारविषयक कविताएँ
उस भावी जन साहित्य के सृष्टि कर रहीं थीं, जिसके जोड़ का साहित्य
संपूर्ण भारतीय इतिहास में दुर्लभ है. यह एक नयी दुनिया है, और जैसा
की डॉ ग्रियर्सन ने कहा है, ‘कोई भी मनुष्य जिसे पन्द्रहवी तथा बाद की
शताब्दियों का साहित्य पढ़ने का मौका मिला है उस भारी व्यवधान (Gap) की
लक्ष्य किये बिना नहीं रह सकता जो (पुरानी और नयी) धार्मिक भावनाओं
में विद्यमान है. हम अपने को ऐसे धार्मिक आन्दोलन के सामने पाते है,
जो उन सब आंदोलनों से कहीं अधिक विशाल है, जिन्हें भारतवर्ष ने कभी
देखा है, यहाँ तक कि वह बौद्ध धर्म के आन्दोलन से भी अधिक विशाल है,
क्योंकि उसका प्रभाव आज भी वर्तमान है. इस युग में धर्म ज्ञान का
नहीं, भावावेश का विषय हो गया था. यहाँ से हम साधना और प्रेमोल्लास
(Mysticism and rapture) के देश में आते है और ऐसी आत्माओं का
साक्षात्कार करते हैं जो काशी के दिग्गज पंडितों की जाति के नहीं,
बल्कि जिनकी समता मध्ययुग के यूरोपियन भक्त बर्नर्ड ऑफ़ क्लेयरबॉक्स,
थॉमस ए. केंपिन और सेंट थेरीसासे है.’ जो लोग इस युग के वास्तविक
विकास को नहीं सोचते, उन्हें आश्चर्य होता है कि अचानक कैसे हो गया.”
( हिंदी साहित्य के भूमिका, भक्तों की परम्परा, पृष्ठ संख्या 52) यहाँ
यह बात रेखांकित करने का मेरा अर्थ केवल यह है की यह समझ में आ सके की
भक्ति आन्दोलन कोई आकस्मिक ही घटित हुई घटना नहीं, बल्कि इसके पीछे तो
इतिहास के कईं काल-खंड मौजूद थे, जो इसके होने की अनिवार्यता को
निर्धारित कर रहे थे. अपनी पुस्तक में द्विवेदीजी इस बात को पूरी तरह
तथ्यात्मक रूप में सिद्ध भी करते हैं, उनके अनुसार निर्गुण भक्तों के
सभी उग्र विचार, रीती-निति, साधना, वक्तव्य वस्तु के उपस्थापन की
प्रणाली, छंद और भाषा पुराने भारतीय आचार्यों की दें है, यह किसी भी
रूप में विदेशी या विदेशी विचारों से प्रभावित नहीं.हिंदी साहित्य की
रचना या निर्माण की बात करते हुए वो अपभ्रंश के योग को रेखांकित करते
हुए लिखते हैं, “अब ध्यान से देखिये तो हिंदी में दो प्रकार की
भिन्न-भिन्न जातियों की दो चीजें अपभ्रंश से विकसित हुई: 1. पश्चिमी
अपभ्रंश से राजस्तुति, ऐहितामूलक, श्रृंगारी काव्य, नितिविषयक फुटकल
रचनाएँ और लोकप्रचलित कथानक. और 2. पूर्वी अपभ्रंश में निर्गुणिया
संतों की शास्त्रनिरपेक्ष विचारधारा, झाड़-फटकार, अक्खड़पना, सहजशून्य
की साधना, योग पद्धति और और भक्तिमूलक रचनाएँ. यह और भी लक्ष्य करने
की बात है कि यद्यपि वैष्णव मतवाद उत्तर भारत में दक्षिण की ओर से
आया, पर उसमे भावावेशमूलक साधना पूर्वी प्रदेशों से आई.” ( वही, पृष्ठ
39). यह तथ्य इस बात का साक्ष्य हैं की किस प्रकार भक्ति साहित्य का
निर्माण, इतिहास के गर्भ की विभिन्न गतिविधियों के कारण संभव हो सका,
साथ ही यह भी की निर्गुण काव्य धारा के कवि किसी विदेशी प्रभाव के
कारण विद्रोही स्वभाव के नही, बल्कि अपनी ऐतिहासिक परम्परा और
सामाजिक-यथार्थ के फलस्वरूप विरोधी थे.
यहाँ से हम भक्ति आन्दोलन की उन बिन्दुओं को समझने की कोशिश करेंगे
की जिस कारण यह इस आन्दोलन को इसकी तत्कालीन परिस्थतियाँ उपलब्ध हुई.
हालाँकि ऐतिहासिक दृष्टि से तो उस समय का कोई ग्रन्थ हमे इन बातों से
अवगत नहीं कराता, किन्तु शान्ति निकेतन और अन्य पंडितों ने भारत के
इतिहास के क्षेत्र में बहुत अन्वेषण किये हैं, जो यहाँ उपयोगी सिद्ध
हो सकते हैं, किन्तु सामजिक-आर्थिक विकास के इतिहास के क्षेत्र में
अधिक महत्वपूर्ण कार्य नहीं हुआ. तो यहाँ कुछ सर्वमम्त तथ्यों को हम
देख सकते हैं. वर्गों में विभाजित समाज में संघर्ष का रहना स्वाभाविक
बात है , भारतीय समाज में जहाँ जाति की एक अन्य भूमिका है, वहां ऐसे
संघर्ष हमेशा चलते रहे हैं, इसी संघर्ष की रुपरेखा को समझते हुए,
मुक्तिबोध भक्ति आन्दोलन के कारकों पर अपनी मार्क्सवादी दृष्टि डालते
हुए लिखते हैं, “उच्चवर्गियों और निम्नवर्गियों का संघर्ष बहुत पुराना
है. यह संघर्ष निसंदेह धार्मिक, सांस्कृतिक, सामजिक क्षेत्र में
अनेकों रूपों में प्रकट हुआ. सिद्धों और नाथ-सम्प्रदाय के लोगों ने
जनसाधारण में अपना पर्याप्त प्रभाव रखा, किन्तु भक्ति आन्दोलन का
जनसाधारण पर जितना व्यापक प्रभाव हुआ उतना किसी अन्य आन्दोलन का नहीं.
पहली बार शूद्रों ने अपने संत पैदा किये, अपना साहित्य और अपने गीत
सृजित किये. कबीर, रैदास, नाभा, सिंपी, सेना नाई, आदि-आदि महापुरुषों
ने ईश्वर के नाम पर जातिवाद के विरुद्ध आवाज़ बुलंद की. समाज के
न्यस्त-स्वार्थवादी वर्ग के विरुद्ध नया विचारवाद अवश्यम्भावी था. वह
हुआ, तकलीफें हुई. लेकिन एक बात हो गयी.” (नयी कविता का आत्मसंघर्ष,
मध्ययुगीन भक्ति-आन्दोलन का एक पहलू, पृष्ठ 99) यह बात इस ओर इशारा
करती है, कि किस तरह इतिहास के लम्बे कालखंड में दबी हुई यह जातियां
एकाएक ही एक ऐसे आदोलन का निर्माण करती हैं की जिस द्वारा उनका रोष एक
साहित्यिक धारा में परिवर्तित होता है. यह एक ऐसे आन्दोलन के रूप में
प्रतिष्ठित होता है, जो किसी भी स्तर पर धर्मशास्त्र्वादियों,
वेद-उपनिषदवादियों से मुक्त जनसाधारण द्वारा प्रसारित हो रहा था. इस
विद्रोही धारा में प्रवाहित होती कईं काव्य-रचनाओं में से निर्गुण
धारा का निर्माण हुआ, जिसने तत्कालीन उच्च-वर्गीय धार्मिक आडम्बरों
तथा पुराणवाद इत्यादि की आलोचना की. परन्तु सवाल यह उठता है, आखिर वह
कौन से कारक थे की जिस कारण विद्रोह की यह आवाज़ पुरे भारतवर्ष में
तेज़ी से फ़ैल गयी, आखिर इससे पहले भी तो जाति-व्यवस्था के विरुद्ध लोग
बात करते ही आये थे, द्विवेदीजी इस ओर इशारा करते हुए लिखते हैं,
“केवल एक सवाल और रह जाता है कि कबीर के पहले भी तो ये बातें वर्तमान
थी, फिर वे उतनी प्रभावशाली क्यों न हो सकी जितनी कबीर आदि की बातें
हो सकीं? इस बात के कई तरह के जवाब दिए गए हैं. परन्तु इसका कारण
निसंदेह राजनितिक-सत्ता थी.
किसी-किसी ने कहा है कि मुसलामानों के आगमन के पूर्व हिन्दू राजा
इन तथाकथित नीच जातियों की आशा-आकांक्षा को पनपने नहीं देना चाहते थे
और किसी दूसरे ने कहा है कि पहले तो ये छोटी समझी जानेवाली जातियां
अकेले हिन्दुओं से सताई जा रही थी, अब मुसलामानों से सताई जाने लगी;
इस प्रकार उन्हें अपनी स्तिथि सुधारकर अधिकार प्राप्त करने के लिए
संघर्ष करने पड़े, ये दोनों ही बातें युक्तियुक्त नहीं जंचती. मेरा
विचार यह है कि ऐसी बातें समाज के किसी न किसी स्तर में वर्तमान तो
जरुर थी, पर अधिकांश में उन लोगों द्वारा प्रचारित होती थीं, जो
शास्त्र और वेद को नहीं मानते थे. फिर जन-साधारण में प्रचलित पौराणिक
ठोस रूपों से उनका कोई सबंध नहीं था. कबीरदास के गुरु रामानंद से
शिष्यत्व ग्रहण करके जन-साधारण में उनकी शास्त्र-सिद्धता का विश्वास
पैदा किया और राम-नाम को अपनाकर जन-साधारण के परिचित भगवान से अपने
भगवान की एकात्मकता साबित की. उन्होंने रूपकों द्वारा योगमार्ग,
वैष्णवमत आदि अत्यधिक प्रचलित जनमत की अपने ढंग पर व्याख्या करके
जन-साधारण का विश्वास अर्जन किया. इस प्रकार एक बार शास्त्र और
लोक-विश्वास का जरा सा नाम-मात्र का सहारा पाते ही यह मत देश के इस
सिरे से उस सिरे तक फ़ैल गया.” ऐतिहासिक दृष्टि से यदि हम इस पुरे विषय
की विवेचना करें तो यही पाएंगे की इतिहास के किसी भी मोड़ पर, इतनी
उग्रता के साथ जातिवाद और ब्राह्मणवाद इत्यादि को चुनौती नहीं मिली
थी, एक तो इसका कारण यह था की उन कालखंडों में धर्म की निति-निर्देशन
ऊंची जातियों से होते थे जो संस्कृत आदि में अपनी पुस्तकें लिखते थे
जिस कारण निम्नजातियों के साथ न ही उनका संवाद संभव था और न ही उनमे
भुक्तभोगी सी तीव्रता ही थी. निर्गुण धारा के कवियों के साथ अच्छी बात
यह थी की वह आत्मबोध और अनुभव के माध्यम से, समाज के भीतर रहते हुए,
अत्याचारों, कष्टों को झेलते हुए, ईश्वर की तलाश में सलंग्न थे.
इसीलिए इन्होने ज्ञान(वेद-पुराण) से अधिक प्रेम पर जोर दिया, ज्ञान की
आलोचना इनके अक्खड़ होने का साक्ष्य थी. इनकी इसी प्रवृत्ति को
द्विवेदीजी कुछ यों प्रस्तुत करते हैं, “इस विषय में तो कोई संदेह ही
नहीं कि शास्त्रज्ञान से वंचित होने पर भी इस श्रेणी के साधक बहुश्रुत
थे. इस बहुश्रुतता के कारण वे अनायास ही अनुभव-सम्मत सत्य को संग्रह
कर सकते थे. इसीलिए उनका मत न तो किसी आचार्य-विशेष के मत का हू-ब-हू
उल्था था और न बे सर-पैर की बातों की बेमेल खिचड़ी. सभी विषयों में
उनका आत्मबोध मत है. वेदान्तियों के निर्गुण ब्रह्म उनके उपास्य नहीं
हैं, क्योंकि उन्होंने एकाधिक बार उनमे गुण का आरोप किया है. प्रेम पर
इन संतों ने इतना अधिक जोर दिया है कि भक्त के बिना भगवान को भी
अपूर्ण बताया है. यह भावना केवल ज्ञानगम्य ब्रह्म को आश्रय करके नहीं
चल सकती. भक्तरूपी प्रिय के लिए भगवानरूपी प्रिय के सदा व्याकुल रहने
की कल्पना निर्गुण और निरासक्त ब्रह्म को आश्रय करके नहीं चल सकती,
प्रेम के इस रूप के लिए एक संसक्त और व्यक्तिगत भगवान की पूर्वकल्पना
नितांत आवश्यक है. यदि उन्हें विशुद्ध ज्ञानमार्गी मान लिया जाएगा तो
उक्त बात अबोध्य हो जाएगी. जिन पंडितों ने इन संतों को ज्ञानाश्रयी
कहा है, वे सचमुच इस चक्कर में पड़ गए हैं और तात्विक दृष्टि से विचार
करने जाकर यह कहने को बाध्य हुए हैं कि “न तो हम इन्हें पुरे
अदैत्व्वादी कह सकते हैं और न एकेश्वरवादी.” (पं. रामचन्द्र शुक्ल).
परन्तु इसका अर्थ नहीं कि ये साधक अपने विचारों में स्पष्ट नहीं थे.”
तो इस प्रकार जो बात निकल कर सामने आती है वह यही है की इस आन्दोलन और
इस धारा के भक्त प्रेम के ऐसे स्वरूप को प्रस्तुत कर रहे थे जिसका
सबंध किसी भी तरह से वेद-पुरानों या भागवत साहित्य से नहीं था और जो
व्यक्तिगत आनंद की अनुभूति पर आधारित था, जिसमे सामाजिक चेतना की
महत्वपूर्ण भूमिका थी जिस कारण ही यह भक्त बड़े स्तर पर ब्राह्मणवाद,
जातिवाद का विरोध कर रहे थे. यही से हम उस द्वंद्व में भी दृष्टि
डालेंगे की जिसके उत्पन्न होते ही भक्ति आन्दोलन दो धाराओं में बंट
गया. और आखिर कैसे और क्यों ब्राह्मणवाद, जातिवाद के विरोध में शुरू
हुआ आन्दोलन अंत में उसी धारा में मग्न भी हो गया? मुक्तिबोध अपने
निबंध में बड़े ही आलोचनात्मक ढंग से इस समस्या की विवेचना करते
हैं.
मुक्तिबोध अपने निबंध में शुरू से ही इस बात पर जोर देते हैं कि
किसी भी साहित्य के ठीक-ठीक विश्लेषण के लिए उस युग की मूल गतिमान
सामाजिक शक्तियों से बनने वाले सांस्कृतिक इतिहास को जानना जरूरी होता
है. कबीर की आधुनिकता और उनके आज भी प्रासंगिक होने का करण भी उनके
अनुसार उस युग के सांस्कृतिक इतिहास में छुपा हुआ है. सांस्कृतिक
इतिहास की पड़ताल करते हुए वे वही बात स्थापित करते हैं की किस प्रकार,
भक्ति आन्दोलन की आत्मा का स्रोत भी, वर्ग संघर्ष पर ही आधारित था की
जहाँ उच्च-वर्ग और निम्न वर्ग के मध्य प्राचीन समय से संघर्ष चल रहा
था, और भक्ति की इस चिंगारी ने एकाएक ही एक बड़े आन्दोलन कि स्थापना
की. महराष्ट्र की संत परम्परा के संदर्भ में वे लिखते हैं, “जहाँ तक
महाराष्ट्र की संत परम्परा का प्रश्न है, यह निर्विवाद है कि मराठी
संत-कवि, प्रमुखत:, दो वर्गों से आये थे. एक ब्राह्मण और दूसरे
ब्राह्मणेतर. इन दो प्रकार के संत-कवियों के मानव-धर्म में बहुत कुछ
समानता होते हुए भी, दृष्टि और रुझान का भेद भी था. ब्राह्मणेतर
संत-कवि की काव्य-भावना अधिक जनतंत्रातमक, सर्वांगीण और मानवीय थी.
निचली जातियों की आत्म-प्रस्थापना के उस युग में, कट्टर पुराणपंथियों
ने जो-जो तकलीफें इन संतों को दी हैं, उनसे ज्ञानेश्वर जैसे प्रचंड
प्रतिभावान संत का जीवन अत्यंत करुण, कष्टमय और भयंकर दृढ हो गया.”
आगे वह महराष्ट्र के भक्ति आन्दोलन में जनता की भागीधारी के बारे में
लिखते हैं, “ग्यारहवीं सदी से महाराष्ट्र की गरीब जनता में
भक्ति-आन्दोलन का प्रभाव अत्यधिक हुआ. राजनैतिक दृष्टि से, यह जनता
हिन्दू-मुस्लिम दोनों प्रकार के सामन्ती उच्चवर्गियों से पीड़ित रही.
संतों की व्यापक मानवतावादी वाणी ने उन्हें बल दिया. कीर्तन-गायन ने
उनके जीवन में रस-संचार किया. ज्ञानेश्वर, तुकाराम आदि संतों ने गरीब
किसान और अन्य जनता का मार्ग प्रशस्त किया. इस सांस्कृतिक
आत्म-प्रस्थापना के उपरांत सिर्फ एक और कदम की आवश्यकता थी.” और आगे
वह इस कदम को संत रामदास और शिवाजी जैसे नेता की प्राप्ति के रूप में
रेखांकित करते हैं. लेकिन मूल बात जो इस पूरी चर्चा से निकल कर आती है
वो यही है की इस आन्दोलन की असली आत्मा या असली स्रोत जनता या निचली
जातियों का वो भयंकर शोषण था, जिसकी तस्वीर भक्ति-साहित्य के माध्यम
से यह संत-कवि एवं निर्गुण धारा के कवि प्रस्तुत कर रहे थे. निसंदेह
यह कवि समुदाय समाज के शोषक तबकों के विरुद्ध खुल कर बोल और लिख रहे
थे, जिसका माध्यम आध्यात्म और भक्ति था. इस पूरी परिस्थति में की जब
इन कट्टरपंथी शोषक तत्वों के खिलाफ जनसमुदाय एकत्रित हो रहे थे, उस
समय शोषक तत्वों में यह भावना पैदा हो गयी थी की निम्नजातीय संतों से
भेदभाव अच्छा नहीं. मुक्तिबोध लिखते हैं, “अब ब्राह्मण शक्तियाँ स्वयं
इन संतों का कीर्तन-गायन करने लगी. किन्तु इस कीर्तन-गायन के द्वारा
वे उस समाज की रचना को, जो जातिवाद पर आधारित थी, मजबूत करती जा रही
थी. एक प्रकार से उन्होंने अपनी परिस्तिथि से समझौता कर लिया था.
दूसरे, भक्ति आन्दोलन के प्रधान सन्देश से प्रेरणा प्राप्त करने वाले
लोग ब्राह्मणों में भी होने लगे थे. रामदास, एक प्रकार से, ब्राह्मणों
में से आये हुए अंतिम संत हैं, इससे पहले एकनाथ हो चुके थे. कहने का
सारांश यह है कि नवीन परिस्तिथि में यद्यपि युद्ध-सत्ता (राज-सत्ता)
शोषित और गरीब तबकों आये हुए सेनाध्यक्षों के पास थी, किन्तु सामाजिक
क्षेत्र में पुराने सामन्तवादियों और नए सामंतवादियों में समझौता हो
गया था. नए सामन्तवादी कुनबियों, धनघरों, मराठों और अन्य गरीब जातियों
से आये हुए सेनाध्यक्ष थे. इस समझौते का फल यह हुआ कि पेशवा ब्राह्मण
हुए, किन्तु युद्ध सत्ता नवीन सामंतवादियों के हाथ में रही.” इस तरह
मुक्तिबोध इस बात को रेखांकित करते हैं की कैसे जो आन्दोलन जातिवाद,
ब्राहमणवाद के विरुद्ध शुरु हुआ अंतत: उसी में विलीन हो गया. दूसरी
तरफ उत्तर भारत में भी इन निर्गुण कवियों के में से ही एक और धारा
उत्पन्न हुई जिसने निर्गुण के विरुद्ध अपनी आवाज़ स्थापित की. बड़े स्तर
पर निचली जातियों में आत्म-विश्वास पैदा हो रहा था था, उनमे आत्म-गौरव
का जो भाव हुआ. समाज की शासक सत्ता को यह कब अच्छा लगता. मुक्तिबोध
लिखते हैं, “निर्गुण मत के विरुद्ध सगुण मत का प्रारंभिक प्रसार और
विकास उच्च वंशियों में हुआ. निर्गुण मत के विरुद्ध सगुण का संघर्ष
निम्न वर्गों के विरुद्ध उच्चवंशीय संस्कारशील अभिरुचि वालों का
संघर्ष था. सगुण मत विजयी हुआ. उसका प्रारंभिक विकास कृष्णभक्ति के
रूप में हुआ. यह कृष्णभक्ति कई अर्थों में निम्नवर्गीय भक्ति-आन्दोलन
से प्रभावित थी. उच्च-वर्गियों का एक भावुक तबका भक्ति आन्दोलन से
हमेशा प्रभावित होता रहा, चाहे वह दक्षिण भारत में हो या उत्तर भारत
में. इस कृष्णभक्ति में जातिवाद के विरुद्ध कई बाते थी. वह एक प्रकार
से भावावेशी व्यक्तिवाद था…..यद्यपि उत्तर-भारतीय कृष्णभक्ति वाले कवि
उच्चवंशीय थे, औत निर्गुण मत से उनका सीधा संघर्ष भी था, किन्तु
हिन्दू समाज के मूलाधार यानि वर्णाश्रम-धर्म के विरोधियों के
जातिवाद-विरोधी विचारों पर सीधी चोट नहीं की थी. किन्तु उत्तर भारतीय
भक्ति आन्दोलन पर उसका प्रभाव निर्णायक रहा.”इस तरह कृष्णभक्ति की
धारा के माध्यम से एक स्तर पर निर्गुण संतों के जातिविरोधी विचारों को
कुंद किया गया, निर्गुण मत में निम्नजातीय धार्मिक जनवाद का पूरा जोर
था, उसका क्रांतिकारी सन्देश था. कृष्णभक्ति में वह बिलकुल कम हो गया,
किन्तु फिर भी निम्नजातीय प्रभाव अब भी पर्याप्त था. तुलसीदास के
आविर्भाव से सगुण ने निर्गुण धारा को पूरी तरह अपने कबज़े में लेकर
पुन: उसमे पुराणवाद को स्थापित किया, मुक्तिबोध इस बारे में लिखते
हैं, “तुलसीदास ने भी निम्नजातीय भक्ति स्वीकार की, किन्तु उसको अपना
सामाजिक दायरा बतला दिया. निर्गुण मतवाद जो जनोन्मुखरूप और उसकी
क्रांतिकारी जातिवाद-विरोधी भूमिका के विरुद्ध तुलसीदास ने
पुराण-मतवादी स्वरूप प्रस्तुत किया……राम निषाद और गुह का आलिंगन कर
सकते थे, कंतु निषाद और गुह ब्राह्मण का अपमान कैसे कर सकते थे.
दार्शनिक क्षेत्र का निर्गुण मत जब व्यावहारिक रूप से ज्ञानमार्गी
भक्तिमार्ग बना, तो उसमे पुराण-मतवाद को स्थान नहीं था. कृष्णभक्ति के
द्वारा पौराणिक कथाएँ घुसी, पुराणों ने रामभक्ति के रूप में आगे चलकर
वर्णाश्रम धर्म की पुनर्विजय की घोषणा की.” इस तरह तुलसीदास के समय तक
कृष्णभक्ति के माध्यम से उच्चवर्ग का जो हस्तक्षेप भक्ति आन्दोलन में
हुआ था, उसने उसमे भावावेशी व्यक्तिवाद से जातिवाद की आलोचना तो जारी
रखी, लेकिन साथ ही साथ पुराणों और वेदों को फिर प्रतिस्थापित करने की
कोशिशें भी होती रही, जिसे तुलसीदास ने सम्पूर्ण किया. और इस तरह जो
आन्दोलन जातिवाद-ब्राह्मणवाद के विरोध से शुरू हुआ, वो अंतत: उसी में
तिरोहित हो गया. मुक्तिबोध लिखते हैं, “यदि हम धर्मों के इतिहास को
देखें, तो यह ज़रूर पायेंगें कि तत्कालीन जनता की दुरवस्था के विरुद्ध
उसने घोषणा की, जनता को एकता और समानता के सूत्र में बांधने की कोशिश
की. किन्तु ज्यों-ज्यों उस धर्म में पुराने शासकों की प्रवृति वाले
लोग घुसते गये और उनका प्रभाव जमता गया, उतना-उतना गरीब जनता का पक्ष
न केवल कमज़ोर होता गया वरन उसको अंत में उच्चवर्गों की दासता-धार्मिक
दासता भी फिर से ग्रहण करनी पड़ी.” इस तरह यह निष्कर्ष निकलता है कि जो
भक्ति आन्दोलन जनसाधारण से शुरू हुआ और जिसमे सामाजिक कट्टरपन के
विरुद्ध जनसाधारण की सांस्कृतिक आशा-आकांक्षाएं बोलती थी, उसका
मनुष्य-सत्य बोलता था, उसी भक्ति आन्दोलन को उच्च-वर्गियों ने आगे
चलकर अपनी तरह बना लिया, और उससे समझौता करके, और फिर उस पर अपना
प्रभाव कायम करके, और अनन्तर जनता के अपने तत्वों को उनमे से निकालकर,
उन्होंने उस पर अपना पूरा प्रभुत्व स्थापित कर लिया.
लेक्चर-3
भक्तिकाल की विशेषताएं
भक्तिकाल
विशेषता:-
भक्तिकाल की विशेषताओं को जानने से पहले हमें यह जानना आवश्यक
है......
भक्ति काल को दो भागों में विभाजित किया जाता
है----१)निर्गुण भक्ति काव्य२)सगुण भक्ति काव्य
१. निर्गुण भक्ति काव्य:-आधुनिक काल के अंतर्गत निर्गुण धारा
के अनुसार परम ब्रह्म को निर्गुण एवं निराकार बताया गया है।दूसरे
शब्दों में वैष्णव मतानुसार इसे गोलोक धाम कहा गया है।
निर्गुण भक्ति काव्य की दो शाखाएं हैं---
* संत काव्य धारा (ज्ञानाश्रयी शाखा) *
सूफी काव्य धारा(प्रेमाश्रयी शाखा
ज्ञान को महत्व देने वाले शाखा को ज्ञानाश्रयी शाखा कहा जाने लगा
तथा जो व्यक्ति ईश्वर प्राप्ति की प्रक्रिया में प्रेम मार्ग को
अपनाया,उसे प्रेमाश्रयी शाखा के नाम से जानते हैं।
संत यानिकि ज्ञानाश्रयी काव्य धारा के प्रमुख कवि हैं----रामानंद,
नानकदेव,महात्मा कबीर दास (बीजक),बाबालाल,रैदास, जंमनाथ, हरिदास
निरंजनी,संतसींगा, लाल दास, दादू दयाल, मलूकदास,सुंदर दास, धर्मदास,
बावरी साहिबा, संत रज्जब इत्यादि।
सूफी यानिकी प्रेमाश्रयी काव्य धारा के प्रमुख कवि
हैं------जायसी (पद्मावत), असाइट(हंसावली), मुल्ला दाऊद(चांदायन), कवि
दामोदर(लखमसेन पद्मावती कथा), ईश्वरदास(सत्यवती कथा),
कुतुबन(मृगावती), गणपति(माधवाल काम कंदला), मंझन(मधुमालती),
उस्मान(चित्रावली), नंददास(रूपमंझरी), नारायण दास(छिताई वार्ता),
पुहकर(रसरत्न), शेख नहीं(ज्ञानद्वीप)
२.सगुण भक्ति काव्य:-सगुण धारा के अंतर्गत हमारे कवियों ने ईश्वर
के काल्पनिक स्वरूप की व्याख्या की है तथा उसे अपने साहित्यों में
चित्रित किया है।
सगुण भक्ति काव्य धारा की भी दो शाखाएं हैं-----
*कृष्ण भक्ति शाखा और * राम भक्ति
शाखा।
राम भक्ति शाखा में राम को आराध्य मानकर रचनाएं लिखी गई थी और
कृष्ण भक्ति शाखा में कृष्ण जी को आराध्य मानकर रचनाएं लिखी गई
थी।
राम भक्ति शाखा के प्रमुख कवि हैं-------- गोस्वामी
तुलसीदास(रामचरितमानस), नाभादास, प्राणा चंद्र चौहान(रामायण महा
नाटक), ईश्वर दास, केशवदास,अग्रदास, सेनापति, रामानंद आदि।
कृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि हैं-------सूरदास, कुंभन दास,
परमानंद दास, कृष्णा दास, गोविंद स्वामी, चतुर्भुजदास,
छीतस्वामी, स्वामी हरिदास, वल्लभाचार्य, विट्ठलनाथ, हरिव्यासदेव,
हितहरिवंश ध्रुवदास, मीराबाई, रसखान, गदाधर भट्ट आदि
इस
भक्तिकाल की प्रमुख विशेषताएं:-
भक्ति काल की प्रमुख विशेषताओं की रूपरेखा इस प्रकार है
१.भक्ति नाम, कीर्तन का महत्व:-भक्ति काल की यह विशेषता रही है कि
सभी कवियों ने अपने अपने आराध्य देव का स्मरण किया है। इस काल में भजन
कीर्तन का महत्व सबसे ज्यादा रहा है ।
जायसी जी का मानना है कि---- "सुमिरौ आदि नाम करतारू
"गोस्वामी तुलसीदास का कहना है---- "मोरे मत बढ़ नाम दुहू
ते। जेही किए जग निज बल बूते।।"
२. गुरु की महत्ता:- भक्तिकाल में गुरु की महिमा अपरंपार रही
है। गुरु ही हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला व्यक्ति होता
है।
जायसी का मानना है---- "बिन गुरु जगत को निर्गुण
पावा" गोस्वामी तुलसीदास जी का मंतव्य है----" वंदहुंँ गुरु
पद कंज, कृपा सिंधु नर रूप हरि।"
३.आंतरिक भक्ति भाव की प्रधानता:- भक्तिकाल के अंतर्गत
यही विशेषता रही है कि भगवद भक्ति के प्रति सबकी निष्ठा एवं आस्था
बरकरार रही है। भक्ति रस की प्राथमिकता से ही साहित्य जगत को ऊर्जा
प्राप्त हुई है। इस मार्ग के कवियों जैसे संत कबीर, जायसी एवं
गोस्वामी तुलसीदास ने पुरजोर शब्दों में हरिभक्ति की गुहार लगाई
है।
४.आडंबर या बाहरी दिखावा का विरोध:- इस काल में आंतरिक भक्ति
को ही बल मिला है ।आडम्बर से दूर हटकर नैसर्गीक भाव से तथा बनावती रंग
या ढंग दिखाकर भक्ति मार्ग को प्रशस्त नहीं किया जा सकता।
आदम्बरार्थ गेरुआ वस्त्र पहनना, चंदन तिलक लगाकर अपनी मिथ्या
प्रशंसा या संभाषण से अपनी एडी उंँची कर धार्मिकता प्रदर्शित करना
आपत्तिजनक माना गया है।
५ .आपसी ताल मेल या परस्पर समन्वय की भावना:- इस
भक्तिकाल में हमारे साहित्य में दार्शनिकता एवं अध्यात्म की छाप देखने
को मिलते हैं। गोस्वामी तुलसीदास एवं संत कबीर दास समन्वयकारी रचनाकर
थे, जिन्होंने अपनी वास्तविक प्रवृत्ति के बल पर साहित्य जगत को
परिमार्जित किया है। पारस्परिक समन्वय से ही भक्ति ज्ञान दर्शन का
सर्वांगीण विकास होना संभव है।
६. व्यक्ति विशेष काव्य का अभाव:- इस काल के दौरान जितने भी
काव्य लिखे गए हैं वह सभी के सभी नैसर्गिक अर्थात प्रभु सत्ता के नाम
हैं। मानव कल्याणार्थ किसी व्यक्ति विशेष के निमित्त कोई काव्य
नहीं लिखा गया है ।आवश्यकता इस बात की है कि इस क्रम में किसी प्रकार
का चिंतन भी नहीं किया गया। यदि ऐसा होता तो मानवीय विकास की कड़ी में
साहित्य को और ज्यादा पल्लवीत एवं पुष्पित किया जा सकता था ।
७.विनम्र भाव की प्रासंगिकता:-भक्तिकाल की यह विशिष्ट विशेषता रही
है कि साहित्यिक क्रिया की गतिविधियों में भगवद भक्ति को विनम्रता का
मूलाधार माना गया है। विनम्रता से ही विवेक एवं ज्ञान का प्रदर्शन
होता है और हम थोड़े ही शब्दों में बहुत कुछ कह सकते हैं।
८. विलासिता का त्याग:- विलासिता का त्याग करके ही भक्ति
मार्ग को अपने जीवन में अपनाया जा सकता है।भक्तिकाल की रचनाओं के
माध्यम से कवियों ने इस रहस्य का पर्दाफाश किया है।संयमित एवं
तपा- तपाया जीवन ही भक्ति का सूत्रपात कर सकता है।
९. दरबारी प्रवृत्ति का ह्रास:- भक्ति कालीन रचनाओं में जितने
भी कवि हुए हैं, वह स्वयं सामर्थ्यवान एवं निष्पक्ष रहे हैं। उन्हें
किसी के ऊपर आश्रित कभी भी नहीं होना पड़ा है।
१०. काव्य का स्वरूप:- भक्तिकाल के अंतर्गत कृष्ण मार्गी
कवियों एवं रचनाकारों ने मुक्तक काव्य की रचना की थी। काव्य रचना सबसे
बड़ा संसाधन के रूप में समाज के समक्ष उभर कर आया। मुक्तक एवं प्रबंध
काव्य ये दोनों ही प्रगति के पथ पर रही हैं। इस काल के
दौरान भाषा शैली अति प्रभावपूर्ण आ रही हैं। इनमें पूर्णत:
विविधता थी। रस, अलंकार आदि की प्रधानता थीं। इस काल के दौरान समस्त
कवियों ने मुक्तक, गेय,पद,दोहा,छंद, चौपाई,सोरठा आदि का खुलकर प्रयोग
किया|
लेक्चर -4
आज की क्लास में हमलोग निर्गुण काव्यधारा के प्रमुख कवि उनकी
रचनाएँ तथा निर्गुण काव्यधारा की प्रवृत्तियों पर विचार करेंगे और यह
समझने की कोशिश करेंगे कि भक्तिकालीन निर्गुण काव्य की मुख्य प्रवृति
क्या है और वह निर्गुण कवियों की कविता में कैसे उभर कर सामने आई
है।
ज्ञानमार्गी शाखा के कवि और उनकी रचनाएँ
इस शाखा के प्रवर्तक कवि कबीरदास हैं । इस धारा के प्रमुख कवि और
उनकी रचनाओं की संक्षिप्त जानकारी नीचे प्रस्तुत है :-
कबीर दास : इनका मूल ग्रंथ बीजक है । इसके तीन भाग
हैं : पहला भाग साखी है, जिसमें दोहे हैं । दूसरे भाग
में शब्द हैं जो गेयपद हैं । तीसरा भाग रमैनी का
है जिसमें सात चौपाई के बाद एक दोहा आता है । इसके अतिरिक्त कबीर
ग्रंथावली और श्री आदि ग्रंथ में भी इनके पद मिलते हैं । इनकी भाषा को
एक अलग ही नाम मिल गया है - सधुक्कड़ी भाषा का ।
रैदास या रविदास :रैदास की बानी । इनके पद और दोहे भी श्री गुरु
ग्रंथ साहिब, आदि ग्रंथ आदि में मिलते हैं । इनकी भाषा में फारसी
शब्दों की प्रधानता है ।
गुरु नानक देव : जपुजी साहिब, सिद्धगोष्ठी, आसा दी वार,
दत्तिसनी ओंकार, बारहमाहा, मझ दी वार, मलार की वार । आपकी भाषा में
ब्रज,गुरुमुखी और नागरी का पुट है ।
नामदेव : संत नामदेव के पद भी आदि ग्रंथ में संकलित हैं ।
इनकी भाषा मराठी है ।
संत दादू-दयाल : हरडे वाणी, अंगवधु । आपकी भाषा राजस्थानी
मिश्रित पश्चिमी हिंदी है ।
सुंदर दास : इनकी रचनाएँ सुंदर ग्रंथावली में मिलती हैं ।
इनकी भाषा ब्रज है ।
संत मलूक दास : इनकी मुख्य रचनाएँ हैं : ज्ञानबोध,रतनबोध,
भक्त रामावतार, वंशावली, भक्त विरुदावली, पुरुष विलास, गुरु-प्रताप,
अलख बानी, दस-रत्न । आपकी भाषा अरबी, फारसी मिश्रित हिंदी है ।अन्य
कविदया बाईसहजो बाईदरियादाससंत पलटूदाससंत
चरणदासधरमदासरज्जबजगजीवनवाजिदयारीदूलन दाससंत लालभीखागुलालशेख
फरीद
ज्ञानाश्रयी निर्गुण काव्य की प्रवृत्ति
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने निर्गुण संत काव्य धारा को निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा नाम दिया । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इसे निर्गुण भक्ति साहित्य कहते हैं । रामकुमार वर्मा केवल संत-काव्य नाम से संबोधित करते हैं । संत शब्द से आशय उस व्यक्ति से है, जिसने सत परम तत्व का साक्षात्कार कर लिया हो । साधारणत: ईश्चर-उन्मुख किसी भी सज्जन को संत कहते हैं, लेकिन वस्तुत: संत वही है जिसने परम सत्य का साक्षात्कार कर लिया और उस निराकार सत्य में सदैव तल्लीन रहता हो । स्पष्टत: संतों ने धर्म अथवा साधना की शास्त्रीय ढ़ंग से व्याख्या या परिभाषा नहीं की है । संत पहले संत थे बाद में कवि । उनके मुख से जो शब्द निकले वे सहज काव्य रूप में प्रकट हुए । आज की चर्चा हम इसी संत काव्य की सामान्य प्रवृत्तियों (विशेषताओं) को लेकर कर रहें हैं :-
निर्गुण ईश्वर : संतों की अनुभूति में ईश्वर निर्गुण,
निराकार और विराट है । स्पष्टत: ईश्वर के सगुण रूप का खंडन होता है ।
कबीर के अनुसार :- दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना । राम नाम का मरम है
आना ।। संतों का ईश्वर घट-घट व्यापी है, जिसके द्वार सभी वर्णों
और जातियों के लिए खुले हैं । निर्गुण राम जपहु रे भाई ? अविगत
की गति लिखी न जाई ।जाके मुँह माथा नही नाही रूप कुरूप।पुहुप बाँस ते
पतारा ऐसा तत्व अनूप।।
बहुदेववाद या अवतारवाद का विरोध :- संतों ने बहुदेववाद तथा
अवतारवाद की धारणा का खंडन किया है । इनकी वाणी में एकेश्वरवाद का
संदेश है : अक्षय पुरुष इक पेड़ है निरंजन वाकी डार ।
त्रिदेवा शाखा भये, पात भया संसार ।। वस्तुत: संतों का लक्ष्य
सगुण और निर्गुण से परे स्व-सत्ता की अनुभुति है । फिर भी सगुण
उपासकों की तरह उन्होंने अपने प्रियतम (परम सत्ता) को राम, कृष्ण,
गोविन्द, केशव आदि नामों से पुकारा है ।
सद्-गुरु का महत्व :- संत कवियों ने ब्रह्म की प्राप्ति के
लिए सद्-गुरु को सर्वोच्च स्थान पर रखा है । राम की कृपा तभी संभव है,
जब गुरु की कृपा होती है । कबीर गुरु को गोविंद से भी महत्वपूर्ण
मानते हुए कहते हैं :-
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय ।बलिहारी गुरु आपने जिन
गोविंद दियो बताय ।।
माया से सावधान रहने का उपदेश : सभी संतों की वाणी में माया
से सावधान रहने का उपदेश मिलता है । इन्होंने माया का अस्तित्व
स्वीकार किया है । इनकी दृष्टि में माया के दो रूप हैं : एक सत्य
माया, जो ईश्वर प्राप्ति में सहायक है; दूसरी मिथ्या-माया जो ईश्वर से
विमुख रहती है । उनका कहना था - माया महाठगिनी हम जानी ।
कबीर माया के संबंध में कहते हैं :
कबीर माया मोहिनी, मोहे जाँण-सुजांण ।भागां ही छूटे नहीं, भरि-भरि
मारै बाण ।।
गृहस्थी धर्म में बाधक नहीं : प्राय: सभी संत पारिवारिक जीवन
व्यतीत करते थे । वे आत्मशुद्धि और व्यक्तिगत साधना पर बल देते थे तथा
शुद्ध मानव धर्म के प्रतिपादक थे । इस प्रकार एक ओर सभी संत भक्ति
आंदोलन के उन्नायक थे, वहीं दूसरी ओर वे समाज-सुधारक भी थे ।
नारी के प्रति दृष्टिकोण : यद्यपि सभी संतों ने वैवाहिक
जीवन जीया । लेकिन फिर भी इनके वचनों में नारी को माया का रूप माना
गया है । कनक और कामिनी को वे बंधनस्वरूप मानते हैं । कबीर के वचनों
में : नारी की झाई परत, अँधा होत भुजंग ।कबिरा तिन की कहा गति
नित नारी संग ।। किंतु पतिव्रता नारी की मुक्त कंठ से प्रशंसा भी
करते हैं ।पतिव्रता नारी की तरह साधक की भी अपने प्रिय के प्रति अटूट
निष्ठा और अन्यों के प्रति विरक्ति होती है :पतिब्रता नारी भली काली
कुटिल कुरूप।पतिब्रता के रूप पे वारौं कोटि स्वरूप।।
रहस्यवाद : इन्होंने ईश्वर को पति रूप में और आत्मा को को
पत्नी रूप में चित्रित कर अलौकिक प्रेम की अभिव्यंजना की है, जिसे
रहस्यवाद की संज्ञा दी जाती है । संतों ने प्रणय के संयोग और वियोग
दोनों ही अवस्थाओं को लिया है । उनके विरह में मीरा के विरह जैसी
विरह-वेदना है । कबीर आदि संतों ने विरहिणी आत्मा की विरह-व्यथा की
मार्मिक अभिव्यंजना की है :
बाह्य आडम्बरों का विरोध : सभी संत कवियों ने रुढ़ियों, मिथ्या
आडम्बरों और अंध-विश्वासों का घोर विरोध किया है । मूर्ति-पूजा,
तीर्थ-व्रत, रोजा-नमाज़, हवन-यज्ञ और पशु-बलि आदि बाह्य कर्मकांडों,
आडम्बरों का उन्होंने डटकर विरोध किया है ।
काकर पाथर जोड़ि के मस्जिद लियो चिनाय।ता चढ़ि मुल्ला बाग दे क्या
बहिरा हुआ खुदाय।।
नामदेव मराठी और हिंदी दोनो भाषाओ मे भजन गाते थे | उन्होने हिन्दू
और मुस्लमान की मिथ्या रूढियों का विरोध किया | उदाहरण स्वरुप –हिन्दू
अन्धा तुरको काना, दुऔ से ग्यानी सयाना |हिन्दू पूजै देहरा, मुस्लमान
मसीख ||
जातिपाति के भेद-भाव से मुक्ति : सभी संत कवियों ने मनुष्य को
समान माना है और कोई भी भगवत-प्राप्ति कर सकता है । जाति-पाँति
पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई, आदि भावनाएँ इसी विचार
की पौषक हैं । इस प्रकार संत साहित्य लोक-कल्याणकारी है ।
जाति-पांति पूछे नहिं कोई।हरि को भजै सो हरि का होई।।
जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिये ज्ञान।मोल करो तलवार का पड़ा रहन दो
म्यान।।
प्रभाव : सिद्धौ और नाथ-पंथ के हठयोग, शंकर के अद्वैतवाद और
सूफी-कवियों की प्रेम साधना का प्रभाव संतों की वाणी में दिखाई पड़ता
है ।
पंथों का उदय : प्राय: सभी संत निम्न जातियों में पैदा हुए ।
उनके प्रभाववश उनके पीछे निम्न वर्ण के लोगों ने उनके नाम से पंथ चला
लिए; जैसे - कबीर-पंथ, दादू-पंथ आदि ।
भजन और नाम स्मरण : संतों की वाणी में नाम स्मरण प्रभु मिलन
का सर्वोत्तम मार्ग है ।
अब कैसे छूटे राम, नाम रट लागी |प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी, जाकी
अंग – अंग वास समानी |प्रभु जी तुम धन बन हम मोरा, जैसे चितवन चन्द्र
चकोरा |प्रभु जी तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती |प्रभुजी
तुम मोती हम धागा, जैसे सोने मिलत सुहागा |प्रभु जी तुम स्वामी हम
दासा, ऐसी भक्ति करे रैदासा ||
भाषा-शैली : प्राय: सभी संत अशिक्षित थे । इसलिए बोलचाल की
भाषा को ही अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया । धर्म-प्रचार हेतु वे भ्रमण
करते रहते थे । जिस कारण उनकी भाषा में विभिन्न प्रान्तीय शब्दों का
प्रयोग हुआ । इन्हीं कारणों से इनकी भाषा सधुक्कड़ी या बेमेल खिचड़ी हो
गई, जिसमें अवधी, ब्रजभाषा, खड़ी बोली, पूर्वी-हिंदी, फारसी, अरबी,
संस्कृत, राजस्थानी और पंजाबी भाषाओं का मेल है । साथ ही प्रतीकों और
उलटबासियों की शैलियों का प्रयोग बहुतायत हुआ, जिससे भाषा में दुरुहता
बढ़ी । संत काव्य मुक्तक रूप में ही अधिक प्राप्त होता है । संतों के
शब्द गीतिकाव्य के सभी तत्वों- भावात्मकता, संगीतात्मकता,
संक्षिप्तता, वैयक्तिकता आदि से युक्त हैं । उपदेशात्मक पदों में
माधुर्य के स्थान पर बौद्धिकता अवश्य है । इन्होंने साखी, दोहा और
चौपाई शैली का प्रयोग किया है ।
छंद : संतों ने अधिकतर सधुक्कड़ी छंद का प्रयोग किया है ।
इनमें साखी और सबद प्रमुख हैं । साखी दोहा छंद है जबकि सबद पदों का
वाचक है । संतों के सबद राग-रागिनियों में गाए जा सकते हैं । कबीर ने
इनके अलावा रमैनी का भी प्रयोग किया है, जिसमें सात चौपाइयों के बाद
एक दोहा आता है । इसके अतिरिक्त चौपाई, कवित्त, सवैया, सार, वसंत आदि
छंदों का भी प्रयोग दिखाई पड़ता है ।
अलंकार : संतों की वाणी सहज है । वह कोई साहित्यिक चेष्टा का
परिणाम नहीं है । फिर भी उसमें स्वत: अलंकार-योजना हो गई है । उपमा,
रूपक संतों के प्रिय अलंकार हैं । इसके अतिरिक्त विशेषोक्ति,
विरोधाभास, अनुप्रास, यमक आदि का भी प्रयोग इनकी वाणी में मिल जाता है
। उदाहरणार्थ : पानी केरा बुदबुदा अस मानुस की जात । देखत ही छिप
जाएगा ज्यों तारा परभात ।। (उपमा) नैनन की करि कोठरी पुतली पलंग विछाय
। पलकों की चिक डारिकै पिय को लिया रिझाय ।। (रूपक)
रस : संत काव्य में भक्तिपरक उक्तियों में मुख्यत: शांत रस का
प्रयोग हुआ है । ईश्वर भक्ति एवं संसार-विमुखता का भाव होने के कारण
निर्वेद स्थायीभाव है । रहस्यवाद के अंतर्गत श्रृंगार-रस का चित्रण
है, जिसमें संयोग की अपेक्षा वियोग-पक्ष अधिक प्रबल है । विरही को
कहीं भी सुख नहीं : कबीर बिछड्या राम सूँ । ना सुख धूप
न छाँह । जहां कहीं ईश्वर की विशालता का वर्णन है, वहाँ अद्भूत
रस है, सुंदरदास ने स्त्री के शरीर का बीभत्स चित्रण किया है ।
विशेष : वैसे तो सभी संत कवियों ने लोक भाषा मे सहज स्वाभाविक
अभिव्यक्ति पर बल दिया है । और काव्यकला को लेकर कोई कसौटी नही बनाई।
लेकिन संतकाव्य में सुंदर दास जैसे कवि भी हुए जिन्होंने काफी सुगढ़
कविता लिखी और काव्य के प्रति अपने विशेष आग्रह को भी व्यक्त
कियाबोलिए तौ तब जब बोलिबे की बुद्धि होय,ना तौ मुख मौन गहि चुप होय
रहिए Iजोरिए तौ तब जब जोरिबै को रीति जानै,तुक छंद अरथ अनूप जामे लहिए
IIगाइए तौ तब जब गाइबे को कंठ होय,श्रवन के सुनतहीं मनै जाय गहिए
Iतुकभंग, छंदभंग, अरथ मिलै न कछु,सुंदर कहत ऐसी बानी नहिं कहिए II
आदिकाल के सिद्ध-साहित्य, नाथ-साहित्य और संत साहित्य को एक ही
विचारधारा की तीन स्थितियाँ कहा जा सकता है ।
संत कबीर ने अपने अनुभव और ज्ञान के बल पर इस विचारधारा को व्यापक
फलक प्रदान किया । साथ ही आम लोगों की जुबान में उन्हें प्रस्तुत करते
हुए आंदोलन का स्वरूप दिया जिसमे बाद के संत कवियों ने नए आयाम जोड़ते
हुए उसकी धार तेज की।
लेक्चर-5
सूफीकाव्य की प्रमुख विशेषता
इस लेक्चर में हम जानेंगे कि भक्तिकालीन प्रेम काव्यधारा की मुख्य
विशेषताएं क्या हैं। उसके प्रमुख कवि और उनकी रचनाएँ कौन सी है। सूफी
काव्य को स�