नाटक “दबितान-ए-बियाित” का अंक १३, राक़िम क़दनेश चर पु रोबित [पेज नंिर 1 ] राक़िम क़दनेश चर पुरोबित, ई मेल [email protected] [पेज नंिर 1 ] हा नाटक “दबिान-ए-बियाित” का अंक १३ राबिम बदनेश च पुरोबहत मंज़र १ वाड मबर का टिकि ककसे ममलेगा ? [मंच रोशन होता है , मनु भाई अपनी दुकान पर बैठे नज़र आ रहे ह ! वे इस व ाहको को ककरणा का सामान तोलकर दे रहे ह ! अब फे खा साहब हाजी मुफ़ा के गले म बाह डाले, वहा आते ह ! कफर दोनो पर की िच पर िैठ जाते ि ! अि फे खां िािि अपनी मंछ पर ताव देते ए, मनु भाई िे किते ि !] फे खां – [मंछ पर ताव देते ए, किते ि ] – मनु भाई, िम आ गए ि ! मनु भाई – [लि पर तििुम बिखेरते ए, किते ि ] – ित बिला इतला, यानी बिना िुलाये आ गए यारे ! कबिये जनाि, अि या बिदमत कर आपकी ? बनकाल शतरंज ? फे खां – [बखियानी िं िी के िाथ] – ि ..ि ....ि ..जि आप जानते िी ि, तो क़फर या पछना ? [मनु भाई उि थैली थमाते ि , बजिम शतरंज के मोिरे और बििायत रखी िै !] िाजी मुतफ़ा – [फे खां िे ] – िाम िािि ! या कर, ज़र...? आज़कल आपके दुिे भाई िाि भाई की गली, िनी-िनी नज़र आ रिी िै ! कोई चिल-पिल नि ज़र, या िात िै ? फे खां – िनी िी रिेगी, जनाि ! आज़कल िमारे एम.एल.ए. िािि को, काले भंवरे की तरि भम-भम करते ए उड़ने की कोई ज़ररत नि ! जानते नि, आप ? उनके घर पर िी िििरत बततबलया, उन पर मंडराकर चली जाती िै ! या क़िमत पायी ज़र, िमारे एम.एल.ए. िािि ने ? या कहं , आपको ? एक आह-चम मेिरार, उनके दतर और की रौनक िनती जा रिी िै ! िाजी मुतफ़ा – [अचरच करते उए] - या किा, जनाि ? एम.एल.ए. िािि अि िमारे मोिले म तशरीफ़ नि रखगे ? िुदा रिम ! अि तो िम गए, काम िे ..? अि िमारे मोिले का डवलपमट, िोने िे रिा !