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ममममम मम ममममम
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Apr 12, 2017

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Himanshu Yadav
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महादेवी वमा

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जीवन परि�चय

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महादेवी वमा (26 माच, 1907 — 11 सि�तंब�, 1987) हिहन्दी की �वासि�क प्रहितभावान कवयियहि यों में �े हैं। वे हिहन्दी �ाहिहत्य में छायावादी युग के प्रमुख स्तंभों जयशंक� प्र�ाद, �ूयकांत हि पाठी हिन�ाला औ� �ुयिम ानंदन पंत के �ाथ महत्वपूर्ण स्तंभ मानी जाती हैं।उन्हें आ�ुहिनक मी�ा भी कहा गया है। कहिव हिन�ाला ने उन्हें “हिहन्दी के हिवशाल मन्दिन्द� की ��स्वती” भी कहा है। उन्होंने अध्यापन �े अपने कायजीवन की शुरूआत की औ� अंहितम �मय तक वे प्रयाग महिहला हिवद्यापीठ की प्र�ानाचाया बनी �हीं। उनका बाल-हिववाह हुआ प�ंतु उन्होंने अहिववाहिहत की भांहित जीवन-यापन हिकया। प्रहितभावान कवयिय ी औ� गद्य लेखिखका महादेवी वमा �ाहिहत्य औ� �ंगीत में हिनपुर्ण होने के �ाथ �ाथ कुशल सिच का� औ� �ृजनात्मक अनुवादक भी थीं। उन्हें हिहन्दी �ाहिहत्य के �भी महत्त्वपूर्ण पु�स्का� प्राप्त क�ने का गौ�व प्राप्त है। गत शताब्दी की �वासि�क लोकहिप्रय महिहला �ाहिहत्यका� के रूप में वे जीवन भ� पूजनीय बनी �हीं। वे भा�त की 50 �ब�े यशस्वी महिहलाओं में भी शायिमल हैंI

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प्रा�ंभिभक जीवन औ� परि�वा�महादेवी वमा का जन्म 26 माच �न् 1907 को (भा�तीय �ंवत के अनु�ा� फाल्गुन पूर्णिर्णLमा �ंवत 1964 को) प्रात: ८ बजे फर्रु खाबाद, उत्त� प्रदेश के एक �ंपन्न परि�वा� में हुआ। इ� परि�वा� में लगभग २०० वर्षोंV या �ात पीढ़िXयों के बाद महादेवी जी के रूप में पु ी का जन्म हुआ था। अत: इनके बाबा बाबू बाँके हिवहा�ी जी हर्षों �े झूम उठे औ� इन्हें घ� की देवी- महादेवी माना औ� उन्होंने इनका नाम महादेवी �खा था। महादेवी जी के माता-हिपता का नाम हेम�ानी देवी औ� बाबू गोहिवन्द प्र�ाद वमा था। श्रीमती महादेवी वमा की छोटी बहन औ� दो छोटे भाई थे। क्रमश: श्यामा देवी (श्रीमती श्यामा देवी �क्�ेना �मपत्नी- डॉ॰ बाबू�ाम �क्�ेना, भूतपूव हिवभागाध्यक्ष एवं उपकुलपहित इलाहाबाद हिवश्व हिवद्यालय) श्री जगमोहन वमा एवं श्री मनमोहन वमा। महादेवी वमा एवं जगमोहन वमा शान्तिन्त एवं गम्भी� स्वभाव के तथा श्यामादेवी व मनमोहन वमा चंचल, श�ा�ती एवं हठी स्वभाव के थे।

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महादेवी वमा के हृदय में शैशवावस्था �े ही जीव मा के प्रहित कर्रुर्णा थी, दया थी। उन्हें ठण्डक में कँू कँू क�ते हुए हिपल्लों का भी ध्यान �हता था। पश-ुपभिक्षयों का लालन-पालन औ� उनके �ाथ खेलकूद में ही ढ़िदन हिबताती थीं। सिच बनाने का शौक भी उन्हें बचपन �े ही था। इ� शौक की पूर्तितL वे पृथ्वी प� कोयले आढ़िद �े सिच उके� क� क�ती थीं। उनके व्यसिoत्व में जो पीडा, कर्रुर्णा औ� वेदना है, हिवद्रोहीपन है, अहं है, दाशहिनकता एवं आध्यान्तित्मकता है तथा अपने काव्य में उन्होंने न्दिजन त�ल �ूक्ष्म तथा कोमल अनुभूहितयों की अभिभव्यसिo की है, इन �ब के बीज उनकी इ�ी अवस्था में पड़ चुके थे औ� उनका अंकु�र्ण तथा पल्लवन भी होने लगा था।

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भिशक्षामहादेवी की भिशक्षा 1912 में इंदौ� के यिमशन स्कूल �े प्रा�म्भ हुई �ाथ ही �ंस्कृत, अंग्रेजी, �ंगीत तथा सिच कला की भिशक्षा अध्यापकों द्वा�ा घ� प� ही दी जाती �ही। 1916 में हिववाह के का�र्ण कुछ ढ़िदन भिशक्षा स्थहिगत �ही। हिववाहोप�ान्त महादेवी जी ने 1919 में बाई का बाग स्थिस्थत क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद में प्रवेश सिलया औ� कॉलेज के छा ावा� में �हने लगीं। महादेवी जी की प्रहितभा का हिनखा� यहीं �े प्रा�म्भ होता है।1921 में महादेवी जी ने आठवीं कक्षा में प्रान्त भ� में प्रथम स्थान प्राप्त हिकया औ� कहिवता या ा के हिवका� की शुर्रुआत भी इ�ी �मय औ� यहीं �े हुई। वे �ात वर्षों की अवस्था �े ही कहिवता सिलखने लगी थीं औ� 1925 तक जब आपने मैढ़िvक की प�ीक्षा उत्तीर्ण की थी, एक �फल कवयिय ी के रूप में प्रसि�द्ध हो चुकी थीं। हिवभिभन्न प -पहि काओं में आपकी कहिवताओं का प्रकाशन होने लगा था।

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पाठशाला में हिहLदी अध्यापक �े प्रभाहिवत होक� ब्रजभार्षोंा में �मस्यापूर्तितL भी क�ने लगीं। हिफ� तत्कालीन खड़ीबोली की कहिवता �े प्रभाहिवत होक� खड़ीबोली में �ोला औ� हरि�गीहितका छंदों में काव्य सिलखना प्रा�ंभ हिकया। उ�ी �मय माँ �े �ुनी एक कर्रुर्ण कथा को लेक� �ौ छंदों में एक खंडकाव्य भी सिलख डाला। कुछ ढ़िदनों बाद उनकी �चनाए ँ तत्कालीन प -पहि काओं में प्रकाभिशत होने लगीं।हिवद्याथz जीवन में वे प्रायः �ाष्ट्रीय औ� �ामान्दिजक जागृहित �ंबं�ी कहिवताए ँसिलखती �हीं, जो लेखिखका के ही कथनानु�ा� "हिवद्यालय के वाताव�र्ण में ही खो जाने के सिलए सिलखी गईं थीं। उनकी �मान्तिप्त के �ाथ ही मे�ी कहिवता का शैशव भी �माप्त हो गया।” मैढ़िvक की प�ीक्षा उत्तीर्ण क�ने के पूव ही उन्होंने ऐ�ी कहिवताए ँ सिलखना शुरू क� ढ़िदया था, न्दिज�में व्यहि� में �महि� औ� स्थूल में �ूक्ष्म चेतना के आभा� की अनुभूहित अभिभव्यo हुई है। उनके प्रथम काव्य-�ंग्रह 'नीहा�' की असि�कांश कहिवताए ँउ�ी �मय की है।

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परि�सिचत औ� आत्मीयमहादेवी जै�े प्रहितभाशाली औ� प्रसि�द्ध व्यसिoत्व का परि�चय औ� पहचान तत्कालीन �भी �ाहिहत्यका�ों औ� �ाजनीहितज्ञों �े थी। वे महात्मा गां�ी �े भी प्रभाहिवत �हीं। �ुभद्रा कुमा�ी चौहान की यिम ता कॉलेज जीवन में ही जुड़ी थी। �ुभद्रा कुमा�ी चौहान महादेवी जी का हाथ पकड़ क� �खिखयों के बीच में ले जाती औ� कहतीं- "�ुनो, ये कहिवता भी सिलखती हैं।" पन्त जी के पहले दशन भी हिहन्दू बोर्डिंडLग हाउ� के कहिव �म्मेलन में हुए थे औ� उनके घुँघ�ाले बडे़ बालों को देखक� उनको लड़की �मझने की भ्रांहित भी हुई थी। महादेवी जी गंभी� प्रकृहित की महिहला थीं लेहिकन उन�े यिमलने वालों की �ंख्या बहुत बड़ी थी। �क्षाबं�न, होली औ� उनके जन्मढ़िदन प� उनके घ� जमावड़ा �ा लगा �हता था। �ूयकांत हि पाठी हिन�ाला �े उनका भाई बहन का रि�श्ता जगत प्रसि�द्ध है। उन�े �ाखी बं�ाने वालों में �ुप्रसि�द्ध �ाहिहत्यका� गोपीकृष्र्ण गोपेश भी थे। �ुयिम ानंदन पंत को भी �ाखी बां�ती थीं औ� �ुयिम ानंदन पंत उन्हें �ाखी बां�ते।

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इ� प्रका� स् ी-पुर्रुर्षों की ब�ाब�ी की एक नई प्रथा उन्होंने शुरू की थी। वे �ाखी को �क्षा का नहीं स्नेह का प्रतीक मानती थीं। वे न्दिजन परि�वा�ों �े अभिभभावक की भांहित जुड़ी �हीं उ�में गंगा प्र�ाद पांडेय का नाम प्रमुख है, न्दिजनकी पोती का उन्होंने स्वयं कन्यादान हिकया था। गंगा प्र�ाद पांडेय के पु �ामजी पांडेय ने महादेवी वमा के अंहितम �मय में उनकी बड़ी �ेवा की। इ�के अहितरि�o इलाहाबाद के लगभग �भी �ाहिहत्यका�ों औ� परि�सिचतों �े उनके आत्मीय �ंब�ं थे।

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वैवाहिहक जीवननवाँ वर्षों पू�ा होते होते �न् 1916 में उनके बाबा श्री बाँके हिवहा�ी ने इनका हिववाह ब�ेली के पा� नबाव गंज कस्बे के हिनवा�ी श्री स्वरूप ना�ायर्ण वमा �े क� ढ़िदया, जो उ� �मय द�वीं कक्षा के हिवद्याथz थे। महादेवी जी का हिववाह उ� उम्र में हुआ जब वे हिववाह का मतलब भी नहीं �मझती थीं। उन्हीं के अनु�ा�- "दादा ने पुण्य लाभ �े हिववाह �च ढ़िदया, हिपता जी हिव�ो� नहीं क� �के। ब�ात आयी तो बाह� भाग क� हम �बके बीच खडे़ होक� ब�ात देखने लगे। व्रत �खने को कहा गया तो यिमठाई वाले कम�े में बैठ क� खूब यिमठाई खाई। �ात को �ोते �मय नाइन ने गोद में लेक� फे�े ढ़िदलवाये होंगे, हमें कुछ ध्यान नहीं है। प्रात: आँख खुली तो कपडे़ में गाँठ लगी देखी तो उ�े खोल क� भाग गए।"महादेवी वमा पहित-पत्नी �म्बं� को स्वीका� न क� �कीं। का�र्ण आज भी �हस्य बना हुआ है। आलोचकों औ� हिवद्वानों ने अपने-अपने ढँग �े अनेक प्रका� की अटकलें लगायी हैं।

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गंगा प्र�ाद पाण्डेय के अनु�ा�- "��ु�ाल पहुँच क� महादेवी जी ने जो उत्पात मचाया, उ�े ��ु�ाल वाले ही जानते हैं।.. �ोना ब� �ोना। नई बासिलका बहू के स्वागत �मा�ोह का उत्�व फीका पड़ गया औ� घ� में एक आतंक छा गया। फलत: ��ु� महोदय दू��े ही ढ़िदन उन्हें वाप� लौटा गए।” हिपता जी की मृत्यु के बाद श्री स्वरूप ना�ायर्ण वमा कुछ �मय तक अपने ��ु� के पा� ही �ह,े प� पु ी की मनोवृसित्त को देखक� उनके बाबू जी ने श्री वमा को इण्ट� क�वा क� लखनऊ मेहिडकल कॉलेज में प्रवेश ढ़िदलाक� वहीं बोर्डिंडLग हाउ� में �हने की व्यवस्था क� दी। जब महादेवी इलाहाबाद में पXने लगीं तो श्री वमा उन�े यिमलने वहाँ भी आते थे।हिकन्तु महादेवी वमा उदा�ीन ही बनी �हीं। हिववाहिहत जीवन के प्रहित उनमें हिव�सिo उत्पन्न हो गई थी। इ� �बके बावजूद श्री स्वरूप ना�ायर्ण वमा �े कोई वैमनस्य नहीं था। �ामान्य स् ी-पुर्रुर्षों के रूप में उनके �म्बं� म�ु� ही �हे। दोनों में कभी-कभी प ाचा� भी होता था। यदा-कदा श्री वमा इलाहाबाद में उन�े यिमलने भी आते थे। एक हिवचा�र्णीय तथ्य यह भी है हिक श्री वमा ने महादेवी जी के कहने प� भी दू��ा हिववाह नहीं हिकया। महादेवी जी का जीवन तो एक �ंन्यासि�नी का जीवन था ही। उन्होंने जीवन भ� श्वेत वस् पहना, तख्त प� �ोया औ� कभी शीशा नहीं देखा।

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प्रसि�भिद्ध के पथ प�1932 में इलाहाबाद हिवश्वहिवद्यालय एम.ए. क�ने के बाद �े उनकी प्रसि�भिद्ध का एक नया युग प्रा�ंभ हुआ। भगवान बुद्ध के प्रहित गहन भसिoमय अनु�ाग होने के का�र्ण औ� अपने बाल-हिववाह के अव�ाद को झेलने वाली महादेवी बौद्ध भिभक्षुर्णी बनना चाहती थीं। कुछ �मय बाद महात्मा गां�ी के �म्पक औ� पे्र�र्णा �े उनका मन �ामान्दिजक कायV की ओ� उन्मुख हो गया। प्रयाग हिवश्वहिवद्यालय �े �ंस्कृत �ाहिहत्य में एम० ए० क�ने के बाद प्रयाग महिहला हिवद्यापीठ की प्र�ानाचाया का पद �ंभाला औ� चाँद का हिनःशुल्क �ंपादन हिकया। प्रयाग में ही उनकी भेंट �वीन्द्रनाथ ठाकु� �े हुई औ� यहीं प� 'मी�ा जयंती' का शुभा�म्भ हिकया। कलकत्ता में जापानी कहिव योन नागूची के स्वागत �मा�ोह में भाग सिलया औ� शान्तिन्त हिनकेतन में गुर्रुदेव के दशन हिकये। यायाव�ी की इच्छा �े बद्रीनाथ की पैदल या ा की औ� �ामगX, नैनीताल में 'मी�ा मढं़िद�' नाम की कुटी� का हिनमार्ण हिकया।

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एक अव�� ऐ�ा भी आया हिक हिवश्ववार्णी के बुद्ध अंक का �ंपादन हिकया औ� '�ाहिहत्यका� �ं�द' की स्थापना की। भा�तीय �चनाका�ों को आप� में जोड़ने के सिलये 'अखिखल भा�तीय �ाहिहत्य �म्मेलन' का आयोजन हिकया औ� �ाष्ट्रपहित �ाजेंद्र प्र�ाद �े 'वार्णी मंढ़िद�' का भिशलान्या� क�ाया।स्वा�ीनता प्रान्तिप्त के पश्चात इलाचंद्र जोशी औ� ढ़िदनक� जी के �ाथ दभिक्षर्ण की �ाहिहन्तित्यक या ा की। हिन�ाला की काव्य-कृहितयों �े कहिवताए ँलेक� '�ाहिहत्यका� �ं�द' द्वा�ा अप�ा शीर्षोंक �े काव्य-�ंग्रह प्रकाभिशत हिकया। '�ाहिहत्यका� �ं�द' के मुख-प �ाहिहत्यका� का प्रकाशन औ� �ंपादन इलाचंद्र जोशी के �ाथ हिकया। प्रयाग में नाट्य �ंस्थान '�ंगवार्णी' की स्थापना की औ� उद्घाटन म�ाठी के प्रसि�द्ध नाटकका� मामा व�े�क� ने हिकया। इ� अव�� प� भा�तेंदु के जीवन प� आ�ारि�त नाटक का मंचन हिकया गया। अपने �मय के �भी �ाहिहत्यका�ों प� पथ के �ाथी में �ंस्म�र्ण-�ेखासिच - कहानी-हिनब�ं-आलोचना �भी को घोलक� लेखन हिकया।

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१९५४ में वे ढ़िदल्ली में स्थाहिपत �ाहिहत्य अकादमी की �दस्या चुनी गईं तथा १९८१ में �म्माहिनत �दस्या। इ� प्रका� महादेवी का �ंपूर्ण कायकाल �ाष्ट्र औ� �ाष्ट्रभार्षोंा की �ेवा में �मर्तिपLत �हा।

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व्यसिoत्वमहादेवी वमा के व्यसिoत्व में �ंवेदना दृXता औ� आक्रोश का अद्भतु �ंतुलन यिमलता है। वे अध्यापक, कहिव, गद्यका�, कलाका�, �माज�ेवी औ� हिवदुर्षोंी के बहु�ंगे यिमलन का जीता जागता उदाह�र्ण थीं। वे इन �बके �ाथ-�ाथ एक प्रभावशाली व्याख्याता भी थीं। उनकी भाव चेतना गंभी�, मार्मिमLक औ� �ंवेदनशील थी। उनकी अभिभव्यसिo का प्रत्येक रूप हिनतान्त मौसिलक औ� हृदयग्राही था। वे मंचीय �फलता के सिलए ना�े, आवेशों औ� �स्ती उते्तजना के प्रया�ों का �हा�ा नहीं लेतीं। गंभी�ता औ� �ैय के �ाथ �ुनने वालों के सिलए हिवर्षोंय को �ंवेदनशील बना देती थीं, तथा शब्दों को अपनी �ंवेदना में यिमला क� प�म आत्मीय भाव प्रवाहिहत क�ती थीं। इलाचंद्र जोशी उनकी वoृत्व शसिo के �ंदभ में कहते हैं - 'जीवन औ� जगत �े �ंबंसि�त महानतम हिवर्षोंयों प� जै�ा भार्षोंर्ण महादेवी जी देती हैं वह हिवश्व ना�ी इहितहा� में अभूतपूव है।

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हिवशुद्ध वार्णी का ऐ�ा हिवला� नारि�यों में तो क्या पुर्रुर्षोंों में भी एक �वीन्द्रनाथ को छोड़ क� कहीं नहीं �ुना।' महादेवी जी हिव�ान परि�र्षोंद की माननीय �दस्या थीं। वे हिव�ान परि�र्षोंद में बहुत ही कम बोलती थीं, प�ंतु जब कभी महादेवी जी अपना भार्षोंर्ण देती थीं तब पं.कमलापहित हि पाठी के कथनानु�ा�- �ा�ा हाउ� हिवमुग्� होक� महादेवी के भार्षोंर्णामृत का ��पान हिकया क�ता था। �ोकने-टोकने का तो प्रश्न ही नहीं, हिक�ी को यह पता ही नहीं चल पाता था हिक हिकतना �मय हिन�ारि�त था औ� अपने हिन�ारि�त �मय �े हिकतनी असि�क दे� तक महादेवी ने भार्षोंर्ण हिकया।

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�चनाएँ

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महादेवी वमा का �चना �ं�ा� अत्यंत व्यापक है। न्दिज�में गद्य, पद्य, सिच कला औ� बाल �ाहिहत्य �भी �माए हुए हैं। उनका �चनाकाल भी 50 �े असि�क वर्षोंV तक फैला हुआ है औ� वे अपने अंहितम �मय तक कुछ न कुछ �चती ही �हीं। इ� लेख में उनकी लगभग �मस्त �चनाओं को �न्तिम्मसिलत क�ने का प्रया� हिकया गया है।

महादेवी वमा के आठ कहिवता �ंग्रह हैं-1. नीहा� (1930)2. �स्थिश्म (1932) 3. नी�जा (1934)4. �ांध्यगीत (1936)5. दीपभिशखा (1942),6. �प्तपर्णा (अनढू़िदत 1959)7. प्रथम आयाम (1974) 8. अन्तिग्न�ेखा (1990)

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�ंकलनइ�के अहितरि�o कुछ ऐ�े काव्य �ंकलन भी प्रकाभिशत हैं, न्दिजनमें उपयुo �चनाओं में �े चुने हुए गीत �ंकसिलत हिकये गये हैं, जै�े 1. आन्तित्मका2.हिन�ंत�ा3.परि�क्रमा4. �न्धि�नी5. यामा6. गीतपव7. दीपगीत8. स्मारि�का9. हिहमालय10. आ�ुहिनक कहिव महादेवी

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�ेखासिच 1. अतीत के चलसिच  (1941) 2. स्मृहित की �ेखाए ं(1943)

हिनब�ं �ंग्रह1. शृंखला की कहिड़याँ (1942)2.हिववेचनात्मक गद्य (1942) 3.�ाहिहत्यका� की आस्था तथा अन्य हिनब�ं (1962)4. �ंकल्पिल्पता (1969)

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�ंस्म�र्ण1. पथ के �ाथी (1956)2. म�ेा परि�वा� (1972) 3. स्मृहितसिच  (1973) 4. �ंस्म�र्ण (1983)

�चनात्मक गद्य के अहितरि�o महादेवी का हिववेचनात्मक गद्य तथा दीपभिशखा, यामा औ� आ�ुहिनक कहिव- महादेवी की भूयिमकाए ँउत्कृ� गद्य-लेखन का नमूना �मझी जाती हैं। उनकी कलम �े बाल �ाहिहत्य की �चना भी हुई है।

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नी�जानी�जा में �स्थिश्म का सिचन्तन औ� दशन असि�क स्प� औ� प्रौX होता है। कवयिय ी �ुख-दु:ख में �मन्वय स्थाहिपत क�ती हुई पीड़ा एवं वेदना में आनन्द की अनुभूहित क�ती है। वह उ� �ामंजस्यपूर्ण भावभूयिम में पहुँच गई हैं, जहाँ दुःख �ुख एकाका� हो जाते हैं औ� वेदना का म�ु� �� ही उ�की �म��ता का आ�ा� बन जाता है। �ांध्यगीत में यह �ामंजस्य भावना औ� भी परि�पक्व औ� हिनमल बनक� �ासि�का को हिप्रय के इतना हिनकट पहुँचा देती है हिक वह अपने औ� हिप्रय के बीच की दू�ी को ही यिमलन �मझने लगती है।

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�ांध्यगीत�ांध्यगीत में १९३४ �े १९३६ ई० तक के �सिचत गीत हैं। इन गीतों मं नी�जा के भावों का परि�पक्व रूप यिमलता है। यहाँ न केवल �ुख-दुख का बल्पिल्क आँ�ू औ� वेदना, यिमलन औ� हिव�ह, आशा औ� हिन�ाशा एवं ब�न-मुसिo आढ़िद का �मन्वय है। दीपभिशखा में १९३६ �े १९४२ ई० तक के गीत हैं। इ� �ंग्रह के गीतों का मुख्य प्रहितपाद्य स्वयं यिमटक� दू��े को �ुखी बनाना है। यह महादेवी की सि�द्धावस्था का काव्य है, न्दिज�में �ासि�का की आत्मा की दीपभिशखा अकंहिपत औ� अचंचल होक� आ�ाध्य की अखंड ज्योहित में हिवलीन हो गई है।

अन्तिग्न�ेखामें महादेवी की अन्तिन्तम ढ़िदनों में �ची गयीं �चनाए ँ�ंग्रहीत हैं जो पाठकों को अभिभभूत भी क�ेंगी औ� आश्चयचहिकत भी, इ� अथ में हिक महादेवी काव्य में ओत-प्रोत वेदना औ� कर्रुर्णा का वह स्व�, जो कब �े उनकी पहचान बन चुका है।

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'अन्तिग्न�ेखा` में दीपक को प्रतीक मानक� अनेक �चनाए ँसिलखी गयी हैं। �ाथ ही अनेक हिवर्षोंयों प� भी कहिवताए ँहैं।

�प्तपर्णा�प्तपर्णा में महादेवी ने अपनी �ांस्कृहितक चेतना के �हा�े वेद, �ामायर्ण, थे� गाथा, अश्वघोर्षों, कासिलदा�, भवभूहित एवं जयदेव की कृहितयों �े तादात्म्य स्थाहिपत क�के 39 चयहिनत महत्वपूर्ण अंशों का हिहन्दी काव्यानुवाद इ� प्रस्तुत हिकया है। आ�ंभ में 61 पृष्ठीय ‘अपनी बात’ में उन्होंने भा�तीय मनीर्षोंा औ� �ाहिहत्य की इ� अमूल्य ��ोह� के �ंबं� में गहन शो�पूर्ण हिवमर्षों भी प्रस्तुत हिकया है।

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’�प्तपर्णा’ के अंतगत आर्षोंवार्णी, वाल्मीहिक, थे�गाथा, अश्वघोर्षों, कासिलदा� औ� भवभूहित के बाद �ातवें �ोपान प� महादेवी वमा ने जयदेव को प्रहितहिष्ठत हिकया है। उन्होंने बताया है हिक जयदेव (१२वीं शती का पूवाद्ध) का जब आहिवभाव हुआ तब �ंस्कृत के शृंगा�ी काव्य के नायक-नायियका के रूप में �ा�ाकृष्र्ण की प्रहितष्ठा हो चुकी थी।...महादेवी जी ने ’�प्तपर्णा’ में �ंस्कृत औ� पासिल �ाहिहत्य के चयहिनत अंशों का काव्यानुवाद प्रस्तुत क�ते �मय अपनी दृहि� भा�तीय चिचLतन�ा�ा औ� �ौंदयबो� की प�ंप�ा के इहितहा� प� कें ढ़िद्रत �खी है। उनकी यह कृहित उन्हें एक �फल �ृजनात्मक काव्यानुवादक, �ाहिहत्यहेितहा�का� तथा �ंस्कृहित-चिचLतक के रूप में प्रहितहिष्ठत क�ने में पूर्ण �मथ है, इ�में �ंदेह नहीं।

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ढ़िदवाली ग्रह

कायनाम-हिहमांशु यादवकक्षा-नवींअध्यापक-पंकज शमा