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OLD NCERT प्राचढ ात - Examtrix.com · 2 Telegram : रानी प्राचीन भारत (पु NCERT) शोर्ट नोट्स ण ाढ(Old) NCERT

Mar 26, 2020

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    www.DesireIAS.com परुानी(Old) NCERT 11th Class शोर्ट नोट्स

    पाठ -1 प्राचीन भारतीय ेइडतिंास का मिंत्व प्राचीन भारत से िंम जानत ेिंैं कक मानव-समुदायों ने िंमारे देश में प्राचीन संस्कृडतयों का डवकास कब, किंााँ और कैसे ककया।

    यिं बतलाता िं ैकक उन्िंोंन ेकृडि की शुरुआत कैसे की डजससे कक मानव का जीवन सुरडित और सुडस्िर हुआ।

    कोई समुदाय तब तक सभ्य निंीं समझा जाता जब तक विं डलखना न जानता िंो । आज भारत में जो डवडभन्न प्रकार की डलडपयााँ

    प्रचलन में िंैं उन सबका डवकास प्राचीन डलडपयों से हुआ।

    अनकेता में एकता

    भारत अनेकानेक मानव-प्रजाडतयों का संगम रिंा िं।ै

    प्राक्-आयट, हिंद-आयट, यूनानी, शक, हूण और तुकट आकद अनेक प्रजाडतयों ने भारत को अपना घर बनाया।

    िंर प्रजाडत ने भारतीय सामाडजक व्यवस्िा, डशल्पकला, वास्तुकला और साडिंत्य के डवकास में यिाशडि अपना-अपना योग कदया।

    द्रडवड़ और संस्कृतेतर भािाओं के बहुत-सारे शब्द उन वैकदक ग्रन्िों में भी पाए जाते िंैं डजनका काल 1500-500 ई. पू. के बीच

    बताया जाता िं;ै ये शब्द प्रायद्वीपीय एवं वैकदकेतर भारत से संबद्ध भावनाओं, संस्िाओं, उत्पादनों और डनवासों के द्योतक िंैं।

    सारे देश को भरत नामक एक प्राचीन वंश के नाम पर भारतविट (अिाटत् भरतों का देश) नाम कदया गया और इस के डनवाडसयों को

    भरत संतडत किंा गया ।

    डिंमालय से कन्याकुमारी तक, पूवट में ब्रह्मपुत्र की घार्ी से पडिम में डसन्धु-पार तक अपना राज्य फैलान ेवाले राजाओं का व्यापक

    रूप से यशोगान ककया गया िं।ै

    देश में इस प्रकार की राजनीडतक एकता कम से कम दो बार प्राप्त हुई िी।

    ईसा-पूवट तीसरी सदी में अशोक ने अपना साम्राज्य सुदरू दडिणांचल को छोड़ सारे देश में फैलाया।

    कफर ईसा की चौिी सदी में समुद्रगुप्त की डवजय-पताका गगंा की घार्ी से तडमल दशे के छोर तक पहुाँची।

    सातवीं सदी में चालुक्य राजा पुलकेडशन्, ने िंिटवधटन को िंराया जो संपूणट उत्तर भारत का अडधपडत माना जाता िा।

    राजनीडतक एकता के अभाव की डस्िडत में भी, सारे देश में राजनीडतक ढााँचा कमोबेश एक-जैसा रिंा।

    भारत की इस एकता को डवदेडशयों ने भी सकारा िं।ै वे सवटप्रिम हसधु तर्वाडसयों के संपकट में आए और इसडलए उन्िंोंने परेू देश को

    िंी हसधु या इंिस नाम द ेकदया।

    हिंद शब्द संस्कृत के डसन्धु से डनकला िं ैऔर कालक्रमणे यिं देश इंडिया के नाम से मशहूर हुआ जो इसके पूनानी पयाटय के बहुत

    डनकर् िं;ै यिं फारसी और अरबी भािाओं में हिंद नाम से डवकदत हुआ।

    ईसा-पूवट तीसरी सदी में प्राकृत देश भर की संपकट भािा (हलगआु फ्रैं का) का काम करती िी ।

    सारे देश के प्रमुख भागों में अशोक के डशलालेख प्राकृत भािा और ब्राह्मी डलडप में डलखे गए िे।

    बाद में विं स्िान संस्कृत न ेडलया और देश के कोने-कोने में राजभािा के रूप में प्रचडलत हुई।

    यिं डसलडसला ईसा की चौिी सदी में आकर गुप्तकाल में और भी मजबूत हुआ।

    यद्यडप गुप्तकाल के बाद दशे अनके छोरे्छोरे् राज्यों में बाँर् गया, कफर भी राजकीय दस्तावेज संस्कृत में िंी डलखे जात ेरिं े।

    उत्तर भारत में वणट-व्यवस्िा या जाडत प्रिा का जन्म हुआ जो सारे देश में व्याप्त िंो गई।

    वतटमान में अतीत की प्रासडंगता वगों पर डनचल,े डवशेितः शूद्रों और चाण्िालों पर, डजस तरिं से अपात्रताएाँ िोप दी गई िीं विं आज के डवचार में बड़ी िंी

    खेदजनक िं।ै

    भारत में सभ्यता के डवकास की धारा इन सामाडजक भेदभावों की वृडद्ध के साि-साि बिंी िं।ै

    अतीत को पुन: लौर्ाने का अिट िंोगा उन सामाडजक डविमताओं को कायम रखना डजनके कारण िंमारा देश डचरकाल से

    ददुटशाग्रस्त रिंा िं।ै

    पुराने लोकाचार, मान्यताएाँ, सामाडजक रीडत-ररवाज और धार्ममक कमटकाण्ि डवडधयााँ लोगों के मन में इतनी गिंराई तक पहुाँची हुई

    िंैं कक इनसे छुर्कारा पाना आसान निंीं िं।ै दभुाटग्यवश य ेपरुान ेदरुाग्रिं व्यडि और राष्ट्र दोनों के डवकास में भीतर से अवरोध

    उत्पन्न करत ेिंैं।

    अत: प्राचीन भारत का इडतिंास केवल उन्िंीं लोगों के डलए प्रासंडगक निंीं िं ैजो जानना चािंते िंैं। कक अतीत का विं उज्ज्वल स्वरूप क्या िं ै

    डजसे कुछ लोग कफर से लौर्ाना चािंते िंैं, बडल्क उन लोगों के डलए भी िं ैजो देश की प्रगडत में बारा िालने वाल ेतत्वों को पिंचानना चािंत े

    िंैं।

    प्रारंडभक परीिा के डलए त्वररत ंमिंत्वपणूट डबन्द ु(ऊपर का सार ) कोई समुदाय तब तक सभ्य निंीं समझा जाता जब तक विं डलखना न जानता िंो

    ईसा-पूवट तीसरी सदी में अशोक ने अपना साम्राज्य सुदरू दडिणांचल को छोड़ सारे देश में फैलाया।

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    कफर ईसा की चौिी सदी में समुद्रगुप्त की डवजय-पताका गगंा की घार्ी से तडमल दशे के छोर तक पहुाँची।

    सातवीं सदी में चालुक्य राजा पुलकेडशन्, ने िंिटवधटन को िंराया जो संपूणट उत्तर भारत का अडधपडत माना जाता िा।

    राजनीडतक एकता के अभाव की डस्िडत में भी, सारे देश में राजनीडतक ढााँचा कमोबेश एक-जैसा रिंा।

    सारे देश के प्रमुख भागों में अशोक के डशलालेख प्राकृत भािा और ब्राह्मी डलडप में डलखे गए िे।

    बाद में विं स्िान संस्कृत न ेडलया और देश के कोने-कोने में राजभािा के रूप में प्रचडलत हुई।

    यिं डसलडसला ईसा की चौिी सदी में आकर गुप्तकाल में और भी मजबूत हुआ।

    यद्यडप गुप्तकाल के बाद दशे अनके छोरे्छोरे् राज्यों में बाँर् गया, कफर भी राजकीय दस्तावेज संस्कृत में िंी डलखे जात ेरिं े।

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    अध्याय 2 प्राचीन भारतीय इडतिंास के आधडुनक लखेक

    जब 1765 में बंगाल और डबिंार ईस्र् इंडिया कंपनी के शासन में आया तब शासकों को हिंदओुं के उत्तराडधकार की न्याय-व्यवस्िा

    करने में करठनाई का अनुभव हुआ।

    अतः 1776 में सबसे अडधक प्रामाडणक मानी जान ेवाली मनुस्मृडत का अगं्रेजी अनुवाद ए कोि ऑफ जेन्रू् लॉज के नाम से कराया

    गया ।

    प्राचीन कानूनों और रीडत-ररवाजों को समझने के डलए प्रयास आरंभ हुआ, जो व्यापक रूप से अठारिंवीं सदी तक चलता रिंा ।

    इसी के पररणामस्वरूप 1784 में कलकत्ता में एडशयारर्क सोसाइर्ी ऑफ बंगाल नामक शोध संस्िा की स्िापना हुई । इसकी

    स्िापना ईस्र् इंडिया कंपनी के सर डवडलयम जोन्स (1746-1794) नामक डसडवल सवेर् न े की डजन्िंोंने 1789 में

    अडभज्ञानशाकंुतलम ्नामक नार्क का अगं्रेजी में अनुवाद ककया ।

    जबकक हिंदओुं के परम प्रडसद्ध धार्ममक ग्रंि भगवद्गीता का अंग्रजेी अनुवाद 1785 में डवडल्कन्स ने ककया।

    1804 में बंबई में एडशयारर्क सोसाइर्ी की स्िापना हुई, और 1823 में लंदन में एडशयारर्क सोसाइर्ी ऑफ ग्रेर् डब्ररे्न स्िाडपत

    हुई

    इसी तरिं कक्रडियन डमशनों के धमट-प्रचारकों ने भी हिंद ूधमट की दबुटलताओं को जानना आवश्यक समझा ताकक वे धमटपररवतटन करा

    सकें और इसके द्वारा डब्ररर्श साम्राज्य को मजबूत बना सके ।

    पािात्य डवद्वानों ने दढृ़तापूवटक किंा कक भारतवाडसयों को न तो राष्ट्रीय भावना का एिंसास िा, न ककसी प्रकार के स्वशासन का

    अनुभव ।

    ऐसे बहुत सारे डनष्किट डवन्सेन्र् आिटर डस्मि (1843-1920) की पुस्तक अली डिंस्री ऑफ इंडिया में प्रकाडशत िंैं। उन्िंोंन ेप्राचीन

    भारत का यिं पिंला सुव्यवडस्ित इडतिंास 1904 में तैयार ककया ।

    डब्ररर्श इडतिंासकारों ने भारतीय इडतिंास की जो व्याख्या की िं ै उसका लक्ष्य िे भारत के चररत्र और उपलडब्धयों को नीचा

    कदखाना और डवदेशी शासन को न्यायोडचत ठिंराना ।

    राष्ट्रवाकदयों की दडृि और योगदान भारत के डवद्वानों का डमशन भारतीय समाज को सुधारना िंी निंीं िा, बडल्क यिं भी िा कक भारत के प्राचीन इडतिंास का इस

    प्रकार पुनर्मनमाटण ककया जाए कक उससे समाज को सुधारने में, और इससे भी बढ़कर, स्वराज्य प्राप्त करन ेमें सिंारा डमल े।

    राजेन्द्र लाल डमत्र (1822-1891) डजन्िंोंने कई वैकदक मलूग्रिं प्रकाडशत ककए और इंिो-एररयन्स नाम की पुस्तक डलखी ।

    मिंाराष्ट्र में रामकृष्ण गोपाल भंिारकर (1837- 1925) और डवश्वनाि काशीनाि राजवाडे़ (1869-1926), दो समर्मपत मिंापंडित

    डनकले डजन्िंोंन ेदेश के सामाडजक और राजनीडतक इडतिंास के पुनर्मनमाटण के डलए डवडभन्न स्रोतों को बर्ोरा ।

    आर. जी. भंिारकर न ेसातवािंनों के दकन के इडतिंास का और वैष्णव एवं अन्य संप्रदायों के इडतिंास का पुनर्मनमाटण ककया

    पांिुरंग वामन काणे (1880-1972) संस्कृत के प्रकांि पंडित और समाज-सुधारक हुए

    िंमेचन्द्र रायचौधरी (1892-1957) न ेभारत (मिंाभारत) काल से अिाटत ईसा-पूवट दसवीं सदी से लेकर गुप्त साम्राज्य के अंत तक

    प्राचीन भारत के इडतिंास का पनुर्मनमाटण ककया।

    प्राचीन भारतीय इडतिंास के पनुर्मनमाटण में वी.ए. डस्मि के योगदान. को सरािंते हुए भी रायचौधरी ने उि डब्ररर्श डवद्वान की कई

    बातों में आलोचना की

    प्राचीन भारतीय इडतिंास के अडधकांश लेखकों न ेदडिण भारत पर समुडचत ध्यान निंीं कदया।

    अराजनडैतक इडतिंास की ओर मोड़

    डब्ररर्श इडतिंासकार संस्कृतडवद ्ए. एल. बैशम ।। (1914-1986) उनकी पुस्तक वंिर दैर् वाज इंडिया (1951) प्राचीन भारतीय

    संस्कृडत और सभ्यता के डवडभन्न पिों का सुव्यवडस्ित सवेिण िंै

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    अध्याय-3 : स्रोतों के प्रकार और इडतिंास का डनमाटण भौडतक अवशिे

    प्राचीन भारत के डनवाडसयों ने अपन ेपीछे अनडगनत भौडतक अवशेि छोडे़ िंैं।

    दडिण भारत में पत्िर के मडन्दर और पूवी भारत में ईंर्ों के डविंार आज भी धरातल पर देखन ेको डमलत ेिंैं ।

    र्ीला धरती की सतिं के उस उभरे हुए भाग को किंत ेिंैं डजसके नीचे परुानी बडस्तयों के अवशेि रिंते िंैं।

    र्ीले की खुदाई दो तरिं से की जा सकती िं ै

    अनलुंब या

    िैडतज

    अनलुंब उत्खनन का अिट िं ै सीधी खड़ी लम्बवत ्खुदाई करना डजससे कक डवडभन्न संस्कृडतयों का कालक्रडमक तााँता उद्घारर्त िंो।

    यिं सामान्यत: स्िल के कुछ भाग में िंी सीडमत रिंता िं ै।

    िैडतज उत्खनन का अिट िं ैसारे र्ीले की या उसके बृिंत भाग की खुदाई। अडधकांश स्िलों की अनलुंब खुदाई िंोने के कारण उनसे

    िंमें भौडतक संस्कृडत का अच्छा-खासा कालानुक्रडमक डसलडसला डमल जाता िं।ै

    िैडतज खुदाइयााँ खचीली िंोन ेके कारण बहुत कम की गई िंैं।

    सूखी जलवायु के कारण पडिमी उत्तर प्रदेश, राजस्िान और पडिमोत्तर भारत के पुरावशिे अडधक सुरडित बने रिंे, परंतु मध्य

    गंगा के मैदान और िेल्र्ाई िेत्रों की नम और आद्रट जलवायु में लोिं ेके औजार भी संिाररत िंो जाते िंैं और कच्ची डमट्टी से बने भवनों

    के अवशेिों को खोजना करठन िंोता िं।ै

    दडिण भारत के कुछ लोग मृत व्यडि के शव के साि औजार, िंडियार, डमट्टी के बरतन आकद चीजें भी कब्र में गाड़ते िे और इसके

    ऊपर एक घेरे में बडे़-बडे़ पत्िर खडे़ कर कदए जात ेिे।

    ऐसे स्मारकों को मिंापािाण (मेगाडलि) किंत ेिंैं, िंालााँकक सभी मिंापािाण इस श्रणेी में निंीं आते।

    रेडियो काबटन काल डनधाटरण की डवडध से यिं पता लगाया जाता िं ैकक वे ककस काल के िंैं।

    रेडियो काबटन या काबटन 14 (C4) काबटन का रेडियोधमी (रेडियोएडक्र्व) समस्िाडनक (आइसोर्ोप) िं ैजो सभी प्राणवा वस्तुओं में

    डवद्यमान िंोता िं।ै

    पकाई गई डमट्टी के बन ेडसक्कों के सााँचे बड़ी संख्या में डमल ेिंैं। इनमें से अडधकांश सााँचे कुिाण काल के अिाटत ईसा की आरडम्भक

    तीन सकदयों के िंैं। गुप्तोत्तर काल में ये सााँचे लगभग लुप्त िंो गए।

    िंमारे आरंडभक डसक्कों पर तो कुछेक प्रतीक डमलते िंैं, पर बाद के डसक्कों पर राजाओं और देवताओं के नाम तिा डतडियााँ भी

    उडल्लडखत डमलती िंैं।

    सबसे अडधक डसके्क मौयोत्तर कालों में डमलें िंैं जो डवशेितः सीसे, पोरर्न, तााँबे, कााँसे, चााँदी, और सोन ेके गुप्त शासकों न ेसोने के

    डसके्क सबसे अडधक जारी ककए।

    इसके डवपरीत गुप्तोत्तर काल के बहुत कम डसके्क डमले िंैं, डजससे यिं प्रकर् िंोता िं ैकक उन कदनों व्यापार वाडणज्य डशडिल िंो गया

    िा।

    अडभलखे

    डसक्कों से भी किंीं अडधक मिंत्त्व के िंैं अडभलेख।

    इनके अध्ययन को परुालेखशास्त्र (एडपग्रेफी) किंते िंैं, और इनकी तिा दसूरे पुरान ेदस्तावेजों की प्राचीन डतडि के अध्ययन को

    पुराडलडपशास्त्र (पडलअगॅ्रेफी) किंते िंैं।

    अडभलेख मुिंरों, प्रस्तरस्तंभों, स्तूपों, चट्टानों और ताम्रपत्रों पर डमलते िंैं, तिा मंकदर की दीवारों और ईंर्ों या मूर्मतयों पर भी।

    समग्र देश में आरंडभक अडभलेख पत्िरों पर खुदे डमलते िंैं। ककतु ईसा के आरंडभक शतकों में इस काम में ताम्रपत्रों का प्रयोग आरंभ

    हुआ । तिाडप पत्िर पर अडभलखे खोदने की पररपार्ी दडिण भारत में भारी मात्रा में जारी रिंी ।

    आरंडभक अडभलेख प्राकृत भािा में िंैं। और य ेई. पू. तीसरी सदी के िंैं। अडभलेखों में संस्कृत भािा ईसा की दसूरी सदी से डमलन े

    लगती िंैं, और चौिी-पााँचवीं सदी में इसका सवटत्र व्यापक प्रयोग िंोन ेलगा। तब भी प्राकृत का प्रयोग समाप्त निंीं हुआ । अडभलेखों

    में प्रादेडशक भािाओं का प्रयोग नौवीं-दसवीं सदी से िंोने लगा ।

    िंड़प्पा संस्कृडत के अडभलेख अभी तक पढे़ निंीं जा सके िंैं। ये संभवतः ऐसी ककसी भावडचत्रात्मक डलडप में डलखे गए िंैं डजसमें

    डवचारों और वस्तुओं को डचत्रों के रूप में व्यि ककया जाता िा।

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    अशोक के डशलालेख ब्राह्मी डलडप में िंैं। यिं डलडप बाएाँ से दाएाँ डलखी जाती िी। उन के कुछ डशलालेख खरोष्ठी डलडप में भी िंैं जो

    दाएाँ से बाएाँ स्रोतों के प्रकार और इडतिंास का डनमाटण डलखी जाती िी, लेककन पडिमोत्तर भाग के अलावा भारत में डभन्न प्रदशेों में

    बाह्मी डलडप का िंी प्रचार रिंा।

    सबसे पुराने अडभलेख जो पढे़ जा चुके िंैं वे िंैं, ई. पू. तीसरी सदी के अशोक के डशलालेख ।

    चौदिंवीं सदी में कफरोजशािं तगुलक को अशोक के दो स्तंभलखे डमले िे, एक. मरेठ में और दसूरा िंररयाणा के र्ोपरा नामक स्िान

    में उसने इन्िंें कदल्ली मगंवाया और अपने राज्य के पंडितों स ेपढ़वाने का प्रयास ककया, पर कोई भी पंडित पढ़ निंीं पाया।

    इन अडभलेखों को पढ़न ेमें सवटप्रिम 1837 में सफलता डमली जेम्स डप्रन्सेप को, जो उस समय बंगाल में ईस्र् इंडिया कंपनी की सेवा

    में ऊाँ चे पद पर िे।

    भारत में पाण्िुडलडपयााँ, भोजपत्रों और तालपत्रों पर डलखी डमलती िंैं, परंतु मध्य एडशया में जिंााँ भारत से प्राकृत भािा फैल गई

    िी, ये पाण्िुडलडपयााँ मेिचमट तिा काष्ठफलकों पर भी डलखी गई िंैं।

    ऋग्वेद में मखु्यतः देवताओं की स्तुडतयााँ िंैं, परंत ु बाद के वैकदक साडिंत्य में स्तुडतयों के साि-साि कमटकाण्ि, जादरू्ोना और

    पौराडणक आख्यान भी िंैं। िंााँ, उपडनिदों में िंमें दाशटडनक हचतन डमलते िंैं ।

    पाडणडन का व्याकरण जो 400 ई. पू. के आस-पास डलखा गया िा। व्याकरण के डनयमों का उदािंरण दनेे के क्रम में पाडणडन न े

    अपन ेसमय के समाज, अिटव्यवस्िा और संस्कृडत पर अमलू्य प्रकाश िाला।

    मिंाभारत, रामायण और प्रमुख परुाणों का अडन्तम रूप से संकलन 400 ई. के आसपास हुआ प्रतीत िंोता िं।ै इनमें मिंाभारत, जो

    व्यास की कृडत माना जाता िं,ै संभवत: दसवीं सदी ई. प.ू से चौिी सदी ई. तक की डस्िडत का आभास देता िं।ै

    बौद्धों के धार्ममकेतर साडिंत्य में सबसे मिंत्त्वपूणट और रोचक िंैं गौतम बुद्ध के पूवट जन्मों की किाएाँ।

    पूवट-जन्मों की वे किाएाँ जातक किंलाती िंैं और प्रत्येक जातक-किा एक प्रकार की लोक-किा िं।ै

    ये जातक ईसा-पूवट पााँचवीं सदी से दसूरी सदी ई. सन् तक की सामाडजक और आर्मिक डस्िडत पर बहुमूल्य प्रकाश िालते िंैं।

    जैन ग्रिंों की रचना प्राकृत भािा में हुई िी। ईसा की छठी सदी में गुजरात के वलभी नगर में इन्िंें अंडन्तम रूप से संकडलत ककया

    गया िा। जैन ग्रंिों में व्यापार और व्यापाररयों के उल्लेख बार-बार डमलते िंैं।

    कौरर्ल्य का अिटशास्त्र अत्यन्त मिंत्त्वपूणट डवडधग्रिं िं।ै

    यिं पंद्रिं अडधकरणों या खंिों में डवभि िं ैडजनमें दसूरा और तीसरा अडधक पुरान ेिंैं। इसके प्राचीनतम अंश मौयटकालीन समाज

    और अिटतंत्र की झलक दतेे िंैं। इसमें प्राचीन भारतीय राज्यतंत्र तिा अिटव्यवस्िा के अध्ययन के डलए मिंत्त्व की सामग्री डमलती िं।ै

    काडलदास ने काव्य और नार्क डलखे, डजनमें सबसे प्रडसद्ध िं।ै अडभज्ञानशाकंुतलम ्। इन मिंान सजटनात्मक कृडतयों में गुप्तकालीन

    उत्तरी और मध्य भारत के सामाडजकं एवं सांस्कृडतक जीवन की झलक डमलती िं।ै

    कुछ प्राचीनतम तडमल ग्रंि भी िंैं जो संगम साडिंत्य में संकडलत िंैं।

    राजाओं द्वारा संरडित डवद्या केन्द्रों में एकत्र, िंोकर कडवयों और भार्ों ने तीन-चार सकदयों में,इस साडिंत्य का सृजन ककया िा।

    ऐसी साडिंडत्यक सभा को संगम किंते ि,े इसडलए समूचा साडिंत्य, संगम साडिंत्य के नाम से प्रडसद्ध िंो गया।

    संगम साडिंत्य के पद्य 30,000 पंडियों में डमलत ेिंैं, जो आठ एट्टत्तोकै अिाटत ् संकलनों में डवभि िं।ै पद्य सौ-सौ के समूिंों में

    संगृिंीत िंैं, जैसे पुरनानरूु (बािंर के चार शतक) आकद ।

    मुख्य समूिं दो िंैं: परर्नेडिकल परर्ननेकील कणक्कु (अठारिं डनम्न संग्रिं) और पत्त पाट्ट (दस गीत)। पिंला दसूरे से पुराना माना

    जाता िं,ै इसडलए लौककक इडतिंास के डलए मिंत्त्वपणूट समझा जाता िं।ै

    संगम ग्रिं वैकदक ग्रिंों से, खासकर ऋग्वेद से, डभन्न प्रकार के िंैं। ये धार्ममक ग्रंि निंीं िंैं। इनके मुिकों और प्रबन्धकाव्यों की रचना

    बहुत-सारे कडवयों ने की िं,ै डजनमें बहुत-से नायंकों (वीरपरुुिों) और नाडयकाओं का गुणगान िं।ै

    इस प्रकार ये लौककक कोरर् के िंैं । ये आकदम कीलीन गीत निंीं िंैं, बडल्क इनमें पररष्कृत साडिंत्य का दशटन िंोता िं।ै अनेक काव्यों में

    योद्धा, सर्ममत या राजा का नामत: उल्लेख करके उनके वीरतापूणट कायों का सडवस्तार वणटन ककया गया िं।ै

    डवदेशी डववरण

    यूनानी लेखकों ने 326 ई. प.ू में भारत पर िंमला करन ेवाल े डसकंदर मिंान के समकालीन के रूप में सन्द्रोकोत्तस के नाम का

    उल्लेख ककया िं।ै

    यिं डसद्ध ककया गया िं ै कक यनूानी डववरणों का यिं सन्द्रोकोत्तस और चन्द्रगुप्त मौयट, डजनके राज्यारोिंण की डतडि 322 ई. प.ू

    डनधाटररत की गई िं,ै एक िंी व्यडि िे।

    यिं पिंचान प्राचीन भारत के डतडिक्रम के डलए सुदढृ़ आधारडशला बन गई।

    चन्द्रगुप्त मौयट के दरबार में दतू बनकर आए मेगास्िनीज की इंडिका उन उद्धरणों के रूप में िंी सुरडित िं ैजो अनेक प्रख्यात लखेकों

    की रचनाओं में आए िंैं।

    चीनी पयटर्कों में प्रमुख िंैं- फा-डिंयान और िंवेन सांग।

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    दोनों बौद्ध ि ेऔर बौद्ध तीिों का दशटन करन ेतिा बौद्ध धमट का अध्ययन करन ेभारत आए िे।

    फाडिंयान ईसा की पााँचवीं सदी के प्रारंभ में आया िा और वेन सांग सातवीं सदी के दसूरे चतिुाांश में ।

    फा-डिंयान न ेगुप्तकालीन भारत की सामाडजक, धार्ममक और आर्मिक डस्िडत पर प्रकाश िाला िं,ै तो वेन सांग न ेइसी प्रकार की

    जानकारी िंिटकालीन भारत के बारे में दी िं।ै

    ऐडतिंाडसक दडृि

    पुराणों की संख्या अठारिं िं;ै अठारिं पारंपररक पद िं।ै डवियवस्तु की दडृि से परुाण डवश्वकोश जैसे िंैं, पर इनमें गुप्त काल के आरंभ

    तक की राजवंशीय इडतिंास आया िं।ै

    पुराणों में चार युग बताए गए िंैं- कृत, ते्रता, द्वापर और कडल । इनमें िंर यगु अपन ेडपछले यगु से घरर्या बताया गया िं ैऔर किंा

    गया िं ैकक एक यगु के बाद जब दसूरा युग आरंभ िंोता िं ैतब नडैतक मूल्यों और सामाडजक मानदण्िों का अध:पतन िंोता िं ै

    भारत के लोगों न ेजीवनचररतात्मक रचनाओं में ऐडतिंाडसक दडृि का अच्छा पररचय कदया िं।ै इसका संुदर उदािंरण िं ैिंिटचररत,

    डजसकी रचना - बाणभट्ट न ेईसा की सातवीं सदी में की।

    इडतिंास का डनमाटण

    मिंाभारत में कृष्ण की भूडमका भले िंी मिंत्त्वपणूट िंो, पर मिरुा में पाए गए 200 ई. पू. से 300 ई. तक के बीच के अडभलेखों और

    मूर्मतकला कृडतयों से उनके अडस्तत्व की पुडि निंीं िंोती िं।ै

    इसी तरिं की करठनाइयों के कारण, मिंाभारत और रामायण के आधार पर कडल्पत मिंाकाव्य-युग (एडपक एज) की धारणा

    त्यागनी िंोगी, िंालााँकक अतीत में प्राचीन भारत पर डलखी गई लगभग सभी सवेिण-पुस्तकों में इसे एक अध्याय बनाया गया िं।ै

    DesireIAS.com अध्याय - 4: भौगोडलक ढााँचा

    भारतीय उपमिंाद्वीप पााँच देशों में बाँर्ा िं-ैभारत, बांग्लादेश, नपेाल, भूर्ान और पाककस्तान।

    पडिमी डविोभ से उत्तरी भारत में जाडे़ में विाट िंोती िं ैजिंााँ उस समय गेहूाँ, जौ, आकद प्रमुख फसले िंोती िंैं।

    प्रायद्वीपीय भारत के कुछ भाग, डवशेिरूप से तडमलनािु के तर्ीय िेत्र में ज्यादातर विाट उत्तरी-पूवी मानसून से िंोती िं ैडजसका

    समय मध्य अक्रू्बर से लेकर मध्ये कदसंबर तक िंोता िं।ै

    मैदानों की कछारी डमट्टी में पनपे घन ेजंगलों की अपिेा डिंमालय की तराइयों के जंगलों को साफ़ करना आसान िा।

    इन तराइयों में बिंन ेवाली नकदयााँ कम चौड़ी िंोती िंैं अतः उन्िंें पार करना करठन न िा। यिंी कारण िं ैकक प्रारंडभक यात्रा-मागट

    डिंमालय की तराइयों में िंी पडिम से पूवट और पूवट से पडिम की ओर डवकडसत हुए।

    ऐडतिंाडसक भारत का विस्िल उन मिंत्त्वपणूट नकदयों का िेत्र िं ैजो उष्ण करर्बंधीय मानसूनी विाट से लबालब भरी रिंती िंैं।

    नकदयों के य ेिेत्र िंैं- हसध ुका मैदान, हसधु-गंगा जलडवभाजक, गगंा की घार्ी और ब्रह्मपुत्र की घार्ी। ज्यों-ज्यों िंम पडिम से पूरब

    की ओर बढ़ते िंैं त्यों-त्यों पाते िंैं। कक वार्मिक वृडिमान क्रमशः 25 सेंर्ीमीर्र से बढ़ते-बढ़ते 250 सेंर्ीमीर्र तक पहुाँच जाता िं ै।

    अतः प्राकृडतक संपदाओं का इस्तेमाल पिंल ेकम विाट वाल ेपडिमी प्रदेश में िंी ककया गया और बड़ी बडस्तयों का डवस्तार आम तौर

    से पडिम से पूरब की ओर िंोता गया।

    वैकदकोत्तर संस्कृडत, जो मुख्यत: लोिं ेके प्रयोग पर आडश्रत िी, मध्य गंगा घार्ी में फूली-फली ।

    'नकदयााँ वाडणज्य और संचार की मानो धमडनयााँ िीं। प्राचीन काल में सड़क बनाना करठन िा, इसडलए आदडमयों और वस्तओुं का

    आवागमन नावों से िंोता िा। अतः नदी-मागट सैडनक और वाडणज्य संचार में बडे़ िंी साधक िंए।

    अशोक द्वारा स्िाडपत प्रस्तर स्तंभ नावों से िंी देश के दरू-दरू स्िानों तक पहुाँचाए गए। संचार-साधन के रूप में नकदयों की यिं

    भूडमका ईस्र् इंडिया कंपनी' के कदनों तक कायम रिंी।

    पूवट की ओर बिंकर बंगाल की खाड़ी में डगरन ेवाली नकदयों ने इनमें अनेक रास्त ेबना कदए िंैं।

    इसडलए प्राचीन काल में पूवी समुद्रतर् तिा आंध्र प्रदशे और तडमलनािु के अन्य भागों के बीच आवागमन में करठनाई निंीं िी,

    आररकमेिु (आधुडनक नाम), मिंाबडलपुरम और कावेरीपट्टनम् के बंदरगािं कोरोमंिल पर िंी अवडस्ित िे।

    प्रायद्वीप के पडिमी भाग में ऐसी सुस्पि प्रादेडशक इकाइयााँ निंीं िंैं। परंत ुउत्तर में ताप्ती (दमन गगंा) और दडिण में भीमा के बीच

    का प्रदेश मिंाराष्ट्र के रूप में पिंचाना जा सकता िं।ै

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    प्रायद्वीप के पडिमी भाग में ऐसी सुस्पि प्रादेडशक इकाइयााँ निंीं िंैं। परंत ुउत्तर में ताप्ती (दमन गगंा) और दडिण में भीमा के बीच

    का प्रदेश मिंाराष्ट्र के रूप में पिंचाना जा सकता िं।ै

    उत्तर में हसधु और गगंा की नदी-प्रणाडलयााँ और दडिण में डवन्ध्यपवटत श्रृंखला, इन दोनों के बीच का डवस्तृत प्रदेश अरावली पवटतों

    द्वारा दो भागों में बंर्ा हुआ िं।ै अरावली पवटतों से पडिम का भू-भाग िार मरुभूडम में पड़ता िंै, िंालांकक राजस्िान का डिंस्सा भी

    इस िेत्र में पड़ता िं।ै

    राजस्िान का दडिण-पूवी भाग प्राचीन काल से िंी अपेिाकृत उपजाऊ रिंा िं।ै इसके अलावा, खेत्री की तांबे की खाने भी उसी िेत्र

    में िंोने से विंााँ ताम्र-पािाण युग से िंी बडस्तयााँ बनती रिंी िंैं।

    राजस्िान की सीमा गुजरात के उपजाऊ मैदानों में जा डमलती िं।ै नमटदा, ताप्ती, मािंी और साबरमती नकदयााँ इस प्रदेश को पार

    करती हुई समुद्र में डगरती िंैं।

    दकनी पठार के पडिमोत्तर छोर पर डस्ित इस गुजरात प्रदेश में कम विाट वाला िेत्र कारठयावाड़ वाली प्रायद्वीप भी शाडमल िं।ै

    इस राज्य का तर्ीय िेत्र काफी दंतुर िंोन ेके कारण यिंााँ कई बंदरगािं बने िंैं।

    यिंी कारण िं।ै ' कक प्राचीन काल से िंी गुजरात समुद्रतर्ीय और डवदेशी व्यापार के डलए प्रडसद्ध रिंा िंै, और यिंााँ के लोगों न ेअपन े

    को उद्यमशील व्यापारी डसद्ध ककया िं।ै

    द्रडवड़ भािा बोलन ेवाले लोग डवन्ध्य के दडिण में रिंते और भारतीय आयटभािा बोलने वाले इसके उत्तर में।

    प्राचीन काल में संचार-व्यवस्िा की करठनाइयों के बावजूद, उत्तर के लोग दडिण पहुाँचत ेऔर दडिण के लोग उत्तर । पररणामत:

    संस्कृडत और भािा का आदान-प्रदान हुआ।

    प्राचीन काल में जत्न पकाई हुई ईंर्ों का अडधक इस्तेमाल निंीं िंोता िा, लकड़ी के मकान और लकड़कोर् बनाए जाते िे। इनके

    अवशिे पार्डलपुत्र में डमल ेिंैं जिंााँ देश की पिंली प्रमुख राजधानी स्िाडपत हुई िी।

    ऐडतिंाडसक युगों में पत्िर के मकंदरों और प्रस्तर-मूर्मतयों का डनमाटण उत्तर भारत के मैदानों की अपेिा दकटन तिा दडिण भारत में

    अडधक संख्या में हुआ िं।ै

    तांबे की परम समृद्ध 'खानें छोर्ानागपुर के पठार में, डवशेि कंर हसिंभूम डजले में पाई जाती िंैं।

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    तांबे के डवपलु भंिार राजस्िान के खेत्री खानों में भी डमल ेिंैं। इनका उपयोग पाककस्तान, राजस्िान, गुजरात और गंगा-यमुना

    दोआब में रिंन ेवाले प्राक्-वैकदक और वैकदक दोनों िंी लोगों न ेककया िं।ै

    िंड़प्पा संस्कृडत के लोग संभवत: राजस्िान से कुछ रर्न प्राप्त करते िे, परंतु वे रर्न की आयात मुख्यतः अफगाडनस्तान से करते िे,

    और विं भी सीडमत मात्रा में िंी।

    बडे़ पैमान ेपर कांसे का इस्तेमाल िंोन ेलगा, डवशेितः दडिण भारत में बनने वाली देवप्रडतमाओं में।

    डबिंार में डमली पाल-कालीन कांस्य प्रडतमाओं के डलए रर्न संभवतः िंजारीबाग और रांची से प्राप्त ककया गया िा, क्योंकक

    िंजारीबाग में डपछली सदी के मध्यकाल तक रर्न के अयस्क को गलाने का काम िंोता िा।

    मगध में ईसा पूवट छठी-चौिी सकदयों में जो पिंला साम्राज्य स्िाडपत हुआ उसका प्रमुख कारण यिंी बताया जाता िं ैकक इस प्रदेश

    के ठीक दडिण में लोिंा उपलब्ध िा।

    बडे़ पैमाने पर लोिं ेका उपयोग करके िंी अवडन्त, डजसकी राजधानी उज्जडयनी में िी, ईसा पूवट छठी-पााँचवीं सकदयों का मिंत्त्वपूणट

    राज्य बन पाई िी।

    सातवािंनों ने और डवन्ध्य के दडिण में उकदत हुई अन्य सत्ताओं ने भी शायद आधं्र और कनाटर्क के लौिं-अयस्कों का इस्तेमाल ककया

    िा।

    आंध और मिंाराष्ट्र के कुछ डिंस्सों पर शासन करने वाले सातवािंनों ने बड़ी संख्या में सीसे के डसके्क जारी ककए िे। सीसा राजस्िान

    के जोवार से भी प्राप्त ककया गया िंोगा।

    िंमारे देश के सबसे पिंले के डसके्क, डजन्िंें आिंत (या पंच-माक्र्ि) डसके्क केिंत ेिंैं, मुख्यतः चााँदी के िंैं ।

    सोना कनाटर्क की कोलार खानों में डमलता िं।ै सोन े का सबसे पुराना अवशेि 1800 ई. पू. के आसपास के कनाटर्क के एक

    नवपािाण यगुीन स्िल से डमला िं।ै

    प्राचीन काल में उपयोग में लाया गया अडधकांश सोना मध्य-एडशया और रोमन साम्राज्य से प्राप्त ककया गया िा। इसडलए स्वणटमुद्रा

    का डनयडमत प्रचलन ईसा की आरंडभक पााँच सकदयों में हुआ िा। पर, लंबी अवडध तक स्वणट मुद्रा चलात ेरिंने के डलए यिंााँ पयाटप्त

    स्रोत निंीं िा, इसडलए बािंर से सोने का आयात बंद िंोते िंी स्वणट-मुद्रा दलुटभ िंोती गई।

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    अध्याय 5

    प्रस्तर-युग : आदिम मानव (नोट – इस अध्याय में से संघ लोक सेवा आयोग द्वारा अक्सर प्रश्न पूछे जाते है और अगर आपका बेदसक ठीक नही ंतो इस

    अध्याय में अच्छी पकड़ होना मुश्किल है इसदलए हम यहााँ पर कुछ बेदसक सामग्री भी िे रहे है तादक आप सभी प्रश्न को हल कर

    सके)

    कुछ बेदसक सामग्री

    1-प्रागैतिहातिक काल

    वह काल तििमे मनुष्य की घटनाओ ंका कोई तलखिि तववरण ना हो

    इि काल में मनुष्य लेिन-कला िे िववथा अपररतिि था

    2-आद्य ऐतिहातिक काल (3000 ई.पू. िे 600 ई.पू. िक)

    तिि काल में लेि कला उपलब्द होने के बाद भी तिनको पढ़ा ना िा िके

    िैिे तिंधु िभ्यिा इि काल िे िंबंतधि है

    वैतदक िातहत्य इिका अपवाद है

    3-ऐतिहातिक काल (600 ई.पू. के पश्चाि् का काल)

    ऐतिहातिक काल िे आशय मानव इतिहाि के उि काल िे है तििके अध्ययन के तलए हमें उि युग के तनतश्चि िाक्ष्य िुलभ है।

    इि काल के अध्ययन हेिु पुरािाखिक, िातहखत्यक िथा तवदेतशयो ंके वणवन, िीनो ंप्रकार के िाक्ष्य उपलब्ध हैं

    मानव इतिहाि का 90% भाग प्रागैतिहातिक काल के अन्तगवि आिा है, शेष 10% ऐतिहातिक काल के अन्तगवि

    प्रािीन इतिहाि को लोगो ंद्वारा उपयोग तकए िाने वाले उपकरणो ंके अनुिार अलग-अलग अवतधयो ंमें तवभातिि तकया िा िकिा है।

    1. पुरापाषाण काल: 2000000 ईिा पूवव - 10,000 ईिा पूवव

    2. मध्यपाषाण काल: 10,000 ईिा पूवव - 8000 ईिा पूवव

    3. नवपाषाण काल: 8000 ईिा पूवव - 4000 ईिा पूवव

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    4. िाम्रपाषाण अवतध: 4000 ईिा पूवव - 1500 ईिा पूवव

    5. लौह युग: 1500 ईिा पूवव - 200 ईिा पूवव

    1. पुरापाषाण काल 2000000 ईसा पूवव - 10,000 ईसा पूवव इिे आगे िीन भागो में बांटा गया है:

    I. तनम्न पुरापाषाण काल 100,000 ईिा पूवव िक

    II. मध्य पुरापाषाण काल: 100,000 ईिा पूवव - 40,000 ईिा पूवव

    III. ऊपरी पुरापाषाण काल 40,000 ईिा पूवव - 10,000 ईिा पूवव

    I. दनम्न पुरापाषाण काल 100,000 ईसा पूवव तक भारि में िववप्रथम पुरापाषाण कालीन िट्टान की िोि रॉबटव बू्रि फूटी ने 1863 में की थी

    इि युग में मनुष्य िेिी नही ंकरिा था

    इि काल के लोग मुख्यिः “दिकारी” एवं “खाद्य संग्राहक” थे

    इि युग में लोग गुफाओ ंमें रहिे थे

    अनुमान लगाया िािा है तक इि युग का अंि होिे-होिे िलवायु में पररविवन होने लगा िथा धीरे-धीरे इन के्षत्ो ंके िापमान में वृखि

    हुई

    इि युग का मनुष्य तित्कारी करिा था तििका प्रमाण उन गुफाओ ंिे तमलिा है िहााँ वह रहिा था

    प्रारंतभक या तनम्न पुरापाषाण काल का िंबंध मुख्यिः तहम युग िे है और इि काल के प्रमुि औिार हस्त-कुठार (hand-axe),

    दविारनी (cleaner) और कुल्हाड़ी (chopper) थे

    तनम्न पुरापाषाण काल िाइट महाराष्ट्र के बोरी में तमली है

    मध्यप्रदेश में भीमंबेटका एक महिपूणव स्थान है इिे 2003 में तवश्व तवरािि स्थल घोतषि तकया गया था

    दनम्न पुरापाषाण काल की प्रमुख साइटें

    िोहन घाटी (विवमान में पातकस्तान में)

    कश्मीर

    िौराष्ट्र

    गुिराि

    मध्य भारि

    डेक्कन पठार

    छोटानागपुर पठार

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    कावेरी नदी के उत्तर में

    यूपी में बेलन घाटी

    II.मध्य पुरापाषाण काल: 100,000 ईसा पूवव - 40,000 ईसा पूवव

    मध्य पुरापाषाण काल की प्रमुि तवशेषिा शल्क (flakes) िे बने औिार हैं| इि काल के प्रमुि उपकरण बे्लड, पॉइंट और

    सै्क्रपर थे

    उपकरण छोटे, हले्क और पिले थे

    महत्वपूणव मध्य पुरापाषाण काल के साइटो में

    यूपी में बेलन घाटी

    लूनी घाटी (रािस्थान)

    पुत् और नमवदा नतदयो ं

    भीमबेटका

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    III. ऊपरी पुरापाषाण काल 40,000 ईसा पूवव - 10,000 ईसा पूवव

    होमो िेतपयंि का उद्भव

    उच्च पुरापाषाण काल में होमो िेतपयन्स और नए िकमक पत्थर की उपखस्थति के तनशान तमलिे हैं|

    इिके अलावा छोटी मूतिवयो ंऔर कला एवं रीति-ररवािो ंको दशाविी अनेक कलाकृतियो ंकी व्यापक उपखस्थति के तनशान तमलिे

    हैं|

    इस काल के प्रमुख औजार हदियो ंसे दनदमवत औजार, सुई, मछली पकड़ने के उपकरण, हारपून, बे्लड और खुिाई वाले

    उपकरण थे

    ऊपरी पुरापाषाण काल की प्रमुख साइटें

    बेलन घाटी

    छोटा नागपुर पठार (तबहार)

    महाराष्ट्र

    उडीिा

    आंध्र प्रदेश में पूवी घाट

    भीमे्बटका िाइट पर पेंतटंग्स इि उम्र िे िंबंतधि हैं।

    2. मध्यपाषाण काल: 10,000 ईिा पूवव - 8000 ईिा पूवव

    िलवायु गमव व शुष्क हो गई, िलवायु पररविवन के िाथ ही पेड-पौधे और िीव- िंिुओ में भी पररविवन हुए और मानव के तलए

    नए के्षत्ो ंकी ओर अग्रिर होना िभंव हुआ

    यह पुरापाषाण काल और नवपाषाण काल के बीि का िक्रमण काल है

    मध्यपाषाण काल के मानव तशकार करके मछली पकडकर और िाध वसु्तएाँ एकत्कर अपना पेट भरिे थे िथा आगे िलकर वे

    पशुपालन भी करने लगे । इनमे शुरू के िीन पेशे िो पुरापाषाण काल िे ही िले आ रहे थे पर अंतिम पेशा नवपाषाण िंसृ्कति िे

    िुडा है

    अब न केवल बडे बखल्क छोटे िानवरो का भी तशकार होने लगा

    औिार बनाने की िकनीक में पररविवन हुआ और छोटे पत्थरो का उपयोग तकया िाने लगा

    इि काल के महिपूणव हतथयार थे - इकधार फलक (Backed Blade) , बेघनी (Points), अधव िन्द्रकाल (Lunate) िथा िमलम्ब

    (Trapeze)

    इि काल में िामातिक - आतथवक िीवन में महिपूणव पररविवन हुआ। िनिाँख्या में वृतद हुई और आिेट की िुगमिा िे मनुष्य

    अब छोटी- छोटी टोतलयो में रहने लगा। स्थाई तनवाि की परंपरा शुरू हुई। पशुपालन एवं कृतष की शुरुआि हुई और तमटटी के

    बिवन बनने लगे

    कृतष : इिकी भी शुरुआि हुई

    आग (अति) : आग का आतवष्कार हो िुका था

    िोपानीमांडो (इलाहाबाद) िे बिवन के िाक्ष्य तमले है िथा तवश्व में तमटटी के बिवन के प्रािीनिम िाक्ष्य यही िे तमले है

    आवाि: मध्यपाषाण में आवािी अस्थायी होिे थे क्ोतंक इि िमय भी मानव आिेटक एवं पशुपालक था

    पशुपालन: मध्यपाषाण काल में पशुपालन के िाक्ष्य तमलने लगिे है लतकन यह अथवव्यवस्था के महिपूणव आधार नही ंथे

    आदमगढ़ (मध्य प्रदेश) और रािस्थान के बागोर नामक स्थान िे पशुपालन के प्रािीनिम िाक्ष्य प्राप्त हुए है

    प्रमुख साइटें:

    वीरभारपुर (पतश्चम बंगाल),

    लधनाि (गुिराि),

    टेरी िमूह (ितमलनाडु),

    आदमगढ़ (म. प्र.),

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    बागोर (रािस्थान),

    महादहा,

    िरायनहरराय (उ. प्र.),

    भीमबेटका,

    गोदावरी बेतिन

    3.नवपाषाण काल: 8000 ईसा पूवव - 4000 ईसा पूवव

    नवपाषाण कालीन उपकरण और औिारो ंकी िोि 1860 में उत्तर प्रदेश में “ली मेिुररयर” द्वारा की गई थी

    नवपाषाण िंसृ्कति की प्रमुि तवशेषिा कृतष-कायों की शुरूआि, पशुपालन, पत्थरो ंके तिकने औिार और तमट्टी के बिवनो ंका

    तनमावण है

    ऐिा माना िािा है तक पृथ्वी पर िववप्रथम “पे्लस्टोतिन” युग में मानव का उद्भव “ऑस्टर ेलोतपतथक्स” या “िाउदनव पीपल”

    (िववप्रथम अफ्रीका में) के रूप में हुआ था

    महाराष्ट्र के “बोरी” नामक स्थान िे प्राप्त िाक्ष्य िे पिा िलिा है तक भारि में मनुष्य का उद्भव “पे्लस्टोतिन” युग के दौरान हुआ

    था

    तवश्वस्तरीय िंदभव में नवपाषाण काल 9000 ई. पू. में आरंभ होिा है तकंिु भारिीय उपमहादीप में नवपाषाण काल की एक ऐिी बस्ती

    तमली है तििका आरंभ 7000 ई. पू. माना िाया है । यह पातकस्तान के बलूतिस्तान प्रांि में अवखस्थि मेहरगढ़ है। यधतप मेहरगढ़ में

    नवपाषाण काल, िामपाषाण काल और कांस्ययुगीन िंसृ्कतियो ंके िाक्ष्य तमलिे है

    दतक्षण भारि में पायी गयी नई नवपाषाण बखस्तयां 2500 ई. पू. िे अतधक पुरानी नही ंहै

    इि युग में मानव पातलशदार पत्थर के औिारो ंऔर हतथयारो ंका प्रयोग करिे थे। वे िाििौर िे पत्थर की कुल्हातडयो ंका

    इसे्तमाल तकया करिे है

    नवपाषाण काल (Neolithic Age) में मनुष्य कृषक और पशुपालक दोनो ंथा

    इि काल में लोग िल, िूयव, आकाश, पृथ्वी, गाय और िपव की पूिा तवशेष रूप िे करिे थे.

    इि काल में बने तमट्टी के बरिन कई स्थलो ंिे प्राप्त हुए हैं. इन बरिनो ंपर रंग लगाकर और तित् बनाकर उन्हें आकषवक बनाने

    का प्रयाि करिे थे.

    नवपाषाण युग में कृषक और पशुपालक एक िाथ एक स्थान पर छोटी-छोटी बखस्तयााँ बनाकर रहने लगे

    पतहयो ंकी िोि हुई

    रागी, गेहं की िेिी की गई थी

    महत्वपूणव साइटें:

    बुिवहोम (कश्मीर में)

    मेहरगढ़ (पातकस्तान)

    दाओिली हैतडंग (तत्पुरा / अिम)

    हॉलूर (एपी)

    पाययंपल्ली (एपी)

    तिरंद (तबहार)

    घरो ंका िबूि

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    भीमबेटका दित्रकला

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    अध्याय 6

    ताम्रपाषाण कृषक संसृ्कदतयााँ

    पषृ्ठभडूम

    धािुओ ंमें िबिे पहले िांबे का प्रयोग हुआ।

    कई िंसृ्कतियो ंका िन्म पत्थर और िांबे के उपकरणो ंका िाथ-िाथ प्रयोग करने के कारण हुआ। इन िंसृ्कतियो ंको

    िाम्रपाषातणक (कैल्कोतलतथक) कहिे हैं, तििका अथव है पत्थर और िांबे के उपयोग की अवस्था ।

    िकनीकी दृतष्ट् िे िाम्रपाषाण अवस्था हडप्पा की कांस्ययुगीन िंसृ्कति िे पहले की है पर कालक्रमानुिार भारि में हडप्पा की

    कांस्य िंसृ्कति पहले आिी है और अतधकांश िाम्रपाषाण युगीन िंसृ्कतियााँ बाद में।

    ताम्रपाषाण काल की आधारभूत दविेषताएाँ

    िाम्रपाषाण युग के लोगं अतधकांशिः पत्थर और िांबे की वसु्तओ ंका प्रयोग करिे थे, तकंिु कभी-कभी वे घतटया तकस्म के िांबे

    का भी प्रयोग करिे थे।

    वे मुख्यि: ग्रामीण िमुदाय बना कर रहिे थे इिके तवपरीि हडप्पाई लोग कांिे का प्रयोग करिे थे

    पत्थर युग िे धािु युग में िंक्रमण को तितिि तकया गया इि िाम्रपाषाण काल को

    दतक्षण भारि में िाम्रपाषाण िरण को नवपाषाण िाम्रपाषाण िरण कहा िािा है

    िाम्रपाषाण काल के लोग तवतभन्न प्रकार के मृद्भांडो ंका व्यवहार करिे थे। इनमें एक तकस्म के बरिन काले-व-लाल रंग के हैं ये

    िाको ंपर बनिे थे और कभी-कभी इन पर िफेद रैखिक आकृतियााँ बनी रहिी थी ं।

    ऐिा िमझना गलि होगा तक काले-व-लाल मृदभांड का व्यवहार करने वाले िभी लोग एक ही िंसृ्कति के हैं। महाराष्ट्र , मध्य

    प्रदेश और रािस्थान वाले मृदभांड तितत्ि है, पर पूवी भारि में ऐिे मृदभांड बहुि कम हैं ।

    िामान्यि: वे घोडे िे पररतिि नही ंथे।

    तमट्टी की स्त्री-मूतिवयो ंिे प्रिीि होिा है तक िाम्रपाषाण युग के लोग मािृ-देवी की पूिा करिे थे।

    बस्ती के ढााँिो ंऔर शव-िंस्कार-तवतध दोनो ंिे पिा िलिा है तक िाम्रपाषाण िमाि में अिमानिा आरंभ हो िुकी थी।

    िेिी और तशकार दोनो ंप्रितलि थे

    िामातिक अिमानिाओ ंकी शुरुआि हुई

    लोग तलिना नही ंिानिे थे

    मछली और मांि को मुख्य आहार बनाया िािा था

    डेक्कन में कपाि का उत्पादन तकया िािा था

    लोग किाई और बुनाई िानिे थे

    बसने की प्रकक्रया

    भारि में पहली गांव प्रणाली तवकतिि हुई

    िाम्रपाषाण लोगो ं ने ईंटो ंका उपयोग नही ंतकया था

    आग में पक्की हुई ईंटो ंका इसे्तमाल नही ंतकया गया था

    दीवारो ंका तनमावण तमट्टी िे तकया गया था

    घर या िो वृत्तिाकार या आयिाकार में होिे थे

    इनामगांव ने वृत्तिाकार घर का िबूि तदया

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    भारि में िाम्रपाषाण अवस्था की बखस्तयााँ तनम्न िगह पाई गई हैं।

    1. दतक्षण-पूवी रािस्थान

    2. मध्य प्रदेश के पतश्चमी भाग

    3. पतश्चमी महाराष्ट्र

    4. दतक्षण-पूवी भारि

    कुछ िाम्रपाषाण िंसृ्कति भी िंमें देखने को डमलती िं ैजो इि प्रकार है

    ताम्रपाषाण अवस्था की बश्कस्तयााँ

    िदिण-पूवी राजस्थान

    पुरास्थल िो तमले अहार और तगलंद

    कई बखस्तयो ंमें िांबे की वसु्तएाँ बहुिायि िे तमली हैं । यही हाल अहार और तगलंद का भी प्रिीि होिा है, िो रािस्थान की बनाि

    घाटी के कमोबेश शुष्क इलाको ंमें पडिे हैं।

    िमकातलक िाम्रपाषातणक कृषक िंसृ्कतियो ंके तवपरीि, अहार में वास्तव में िूक्षम-पाषाण औजारो ंका इसे्तमाल नही ंहोिा था;

    यहााँ पत्थर की कुल्हातडयो ंया फलको ंका लगभग अभाव ही है।

    अहार के लोग शुरू िे ही धािुकमव िानिे थे।

    अहार िंसृ्कति का काल 2100 ई. पू. और 1500 ई. पू. के बीि कही ंरिा िािा है और तगलंद उि िंसृ्कति का स्थानीय केन्द्र माना

    िािा है।

    तगलंद में िांबे के टुकडे ही तमलिे हैं। यहााँ एक प्रस्तर-फलक उद्योग पाया गया है।

    रािस्थान की बनाि घाटी की अतधकााँश बखस्तयााँ छोटी हैं, तकंिु अहार और तगलंद लगभग िार हेक्टर के्षत् में फैले हैं।

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    िाम्रपाषाण युग के लोग प्रायः पकी ईंटो ंिे पररतिि नही ंथे, तिनका इसे्तमाल कभी-कभी ही होिा था, िैिे तगलंद में 1500 ई. पू.

    के आिपाि यदा-कदा वे अपना घर कच्ची ईंटो ंिे बनािे, 'पर अतधकिर गीली तमट्ट�