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िनिर्मलर्मला - WordPress.com...का अभी तक परूणर्म प्रकाश नही हुआ ह। कृष्णा कुछ-कुछ

Sep 29, 2020

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िनिर्मलर्मलापे्रमलचंद

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िनिर्मलर्मलायो तो बाबू उदयभानुलाल के परिरिवारि में बीसों ही प्राणी थ, कोई ममेरिा भाई था, कोई फुफेरिा, कोई भांजा

था, कोई भतीजा, लेकिकन यहां हमें उनसे कोई प्रयोजन नही, वह अच्छे वकील थ, लक्ष्मी प्रसन्न थी औरि कुटुम्ब के दिरिद्र प्रािणयों को आश्रय देना उनका कत्तव्य ही था। हमारिा सम्बन्ध तो केवल उनकी दोनों कन्याआं से ह , िजनमें बड़ी का नाम िनमर्मला औरि छोटी का कृष्णा था। अभी कल दोनों साथ-साथ गुिड़या खेलती थी। िनमर्मला का परन्द्रहवां साल था, कृष्णा का दसवां, िफरि भी उनके स्वभाव में कोई िवशेष अन्तरि न था। दोनों चंचल, िखिलािड़न औरि सैरि-तमाशे पररि जान देती थी। दोनों गुिड़या का धूमधाम से ब्याह करिती थी, सदा काम से जी चुरिाती थी। मां परुकारिती रिहती थी, पररि दोनों कोठे पररि िछपरी बैठी रिहती थी िक न जाने िकस काम के िलए बुलाती हैं। दोनों अपरने भाइयों से लड़ती थी, नौकरिों को डांटती थी औरि बाजे की आवाज सुनते ही द्वारि पररि आकरि खिड़ी हो जाती थी पररि आज एकाएक एक ऐसी बात हो गई ह, िजसने बड़ी को बड़ी औरि छोटी को छोटी बना िदया ह। कृष्णा यही ह, पररि िनमर्मला बड़ी गम्भीरि, एकान्त-िप्रय औरि लज्जाशील हो गई ह। इधरि महीनों से बाबू उदयभानुलाल िनमर्मला के िववाह की बातचीत करि रिहे थ। आज उनकी मेहनत िठकाने लगी ह। बाबू भालचन्द्र िसन्हा के ज्येष्ठ परुत्र भुवन मोहन िसन्हा से बात परक्की हो गई ह। वरि के िपरता ने कह िदया ह िक आपरकी खिुशी ही दहेज दें , या न दें, मुझे इसकी पररिवाह नही; हां, बारिात में जो लोग जाएं उनका आदरि-सत्कारि अच्छी तरिह होना चिहए, िजसमें मेरिी औरि आपरकी जग-हंसाई न हो। बाबू उदयभानुलाल थ तो वकील, पररि संचय करिना न जानते थ। दहेज उनके सामने किठन समस्या थी। इसिलए जब वरि के िपरता ने स्वयं कह िदया िक मुझे दहेज की पररिवाह नही, तो मानों उन्हें आंखें िमल गई। डरिते थ, न जाने िकस-िकस के सामने हाथ फैलाना परड़े, दो-तीन महाजनों को ठीक करि रिखिा था। उनका अनुमान था िक हाथ रिोकने पररि भी बीस हजारि से कम खिचर्म न होंगे। यह आश्वासन पराकरि वे खिुशी के मारे फूलेक न समाये।

इसकी सूचना ने अज्ञान बिलका को मुंह ढांपर करि एक कोने में िबठा रिखिा ह। उसके हृदय में एक िविचत्र शंका समा गई ह, रिो-रिोम में एक अज्ञात भय का संचारि हो गया ह, न जाने क्या होगा। उसके मन में वे उमंगें नही हैं, जो युवितयों की आंखिों में ितरिछी िचतवन बनकरि, आंठों पररि मधुरि हास्य बनकरि औरि अंगों में आलस्य बनकरि प्रकट होती ह। नही वहां अिभलाषाएं नही हैं वहां केवल शंकाएं , िचन्ताएं औरि भीरू कल्परनाएं हैं। यौवन का अभी तक परूणर्म प्रकाश नही हुआ ह।

कृष्णा कुछ-कुछ जानती ह, कुछ-कुछ नही जानती। जानती ह, बहन को अच्छे-अच्छे गहने िमलेंगे, द्वारि पररि बाजे बजेंगे, मेहमान आयंेगे, नाच होगा-यह जानकरि प्रसन्न ह औरि यह भी जानती ह िक बहन सबके गलेक िमलकरि रिोयेगी, यहां से रिो-धोकरि िवदा हो जाएेगी, मैं अकेली रिह जाऊंगी- यह जानकरि द:खिी ह, पररि यह नही जानती िक यह इसिलए हो रिहा ह, माताजी औरि िपरताजी क्यों बहन को इस घरि से िनकालने को इतने उत्सुक हो रिहे हैं। बहन ने तो िकसी को कुछ नही कहा, िकसी से लड़ाई नही की, क्या इसी तरिह एक िदन मुझे भी ये लोग िनकाल देंगे? मैं भी इसी तरिह कोने में बैठकरि रिोऊंगी औरि िकसी को मुझ पररि दया न आयेगी? इसिलए वह भयभीत भी हैं।

संध्या का समय था, िनमर्मला छत पररि जानकरि अकेली बैठी आकाश की औरि तृषिषत नेत्रों से ताक रिही थी। ऐसा मन होता था परंखि होते, तो वह उड़ जाती औरि इन सारे झंझटों से छूट जाती। इस समय बहुधा दोनों बहन कही सैरि करिने जाएा करिती थी। बग्घी खिाली न होती, तो बगीचे में ही टहला करिती, इसिलए कृष्णा उसे खिोजती

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िफरिती थी, जब कही न पराया, तो छत पररि आई औरि उसे देखिते ही हंसकरि बोली-तुम यहां आकरि िछपरी बैठी हो औरि मैं तुम्हें ढूंढती िफरिती हंू। चलो, बग्घी तैयारि करिा आयी हंू।

िनमर्मला- ने उदासीन भाव से कहा-तू जा, मैं न जाऊंगी।

कृष्णा-नही मेरिी अच्छी दीदी, आज जरूरि चलो। देखिो, कैसी ठण्डी-ठण्डी हवा चल रिही ह।

िनमर्मला-मेरिा मन नही चाहता, तू चली जा।

कृष्णा की आंखें डबडबा आई। कांपरती हुई आवाज से बोली- आज तुम क्यों नही चलती मुझसे क्यों नही बोलती क्यों इधरि-उधरि िछपरी-िछपरी िफरिती हो? मेरिा जी अकेलेक बैठे-बैठे घबड़ाता ह। तुम न चलोगी, तो मैं भी न जाऊगी। यही तुम्हारे साथ बैठी रिहंूगी।

िनमर्मला-औरि जब मैं चली जाऊंगी तब क्या करेगी? तब िकसके साथ खेलेकगी औरि िकसके साथ घूमने जाएेगी, बता?

कृष्णा-मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी। अकेलेक मुझसे यहां न रिहा जाऐगा।

िनमर्मला मुस्करिाकरि बोली-तुझे अम्मा न जाने देंगी।

कृष्णा-तो मैं भी तुम्हें न जाने दूंगी। तुम अम्मा से कह क्यों नही देती िक मैं न जाउंगी।

िनमर्मला- कह तो रिही हंू, कोई सुनता ह!

कृष्णा-तो क्या यह तुम्हारिा घरि नही ह?

िनमर्मला-नही, मेरिा घरि होता, तो कोई क्यों जबदर्मस्ती िनकाल देता?

कृष्णा-इसी तरिह िकसी िदन मैं भी िनकाल दी जाऊंगी?

िनमर्मला-औरि नही क्या तू बैठी रिहेगी! हम लड़िकयां हैं, हमारिा घरि कही नही होता।

कृष्णा-चन्दरि भी िनकाल िदया जाएेगा?

िनमर्मला-चन्दरि तो लड़का ह, उसे कौन िनकालेकगा?

कृष्णा-तो लड़िकयां बहुत खिरिाब होती होंगी?

िनमर्मला-खिरिाब न होती, तो घरि से भगाई क्यों जाती?

कृष्णा-चन्दरि इतना बदमाश ह, उसे कोई नही भगाता। हम-तुम तो कोई बदमाशी भी नही करिती।

एकाएक चन्दरि धम-धम करिता हुआ छत पररि आ परहंुचा औरि िनमर्मला को देखिकरि बोला-अच्छा आपर यहां बैठी हैं। ओहो! अब तो बाजे बजेंगे, दीदी दल्हन बनगी, परालकी पररि चढ़ंगी, ओहो! ओहो!

चन्दरि का परूरिा नाम चन्द्रभानु िसन्हा था। िनमर्मला से तीन साल छोटा औरि कृष्णा से दो साल बड़ा।

िनमर्मला-चन्दरि, मुझे िचढ़ाओगे तो अभी जाकरि अम्मा से कह दूंगी।

चन्द्र-तो िचढ़ती क्यों हो तुम भी बाजे सुनना। ओ हो-हो! अब आपर दल्हन बनगी। क्यों िकशनी, तू बाजे सुनेगी न वैसे बाजे तूने कभी न सुने होंगे।

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कृष्णा-क्या बैण्ड से भी अच्छे होंगे?

चन्द्र-हां-हां, बैण्ड से भी अच्छे, हजारि गुने अच्छे, लाखि गुने अच्छे। तुम जानो क्या एक बैण्ड सुन िलया, तो समझने लगी िक उससे अच्छे बाजे नही होते। बाजे बजानेवालेक लाल-लाल विदयां औरि काली-काली टोिपरयां परहने होंगे। ऐसे खिबूसूरित मालूम होंगे िक तुमसे क्या कहंू आितशबािजयां भी होंगी, हवाइयां आसमान में उड़ जाएंगी औरि वहां तारिों में लगेंगी तो लाल, परीलेक, हरे, नीलेक तारे टूट-टूटकरि िगरेंगे। बड़ा बजा आयेगा।

कृष्णा-औरि क्या-क्या होगा चन्दन, बता दे मेरे भैया?

चन्द्र-मेरे साथ घूमने चल, तो रिास्ते में सारिी बातें बता दूं। ऐसे-ऐसे तमाशे होंगे िक देखिकरि तेरिी आंखें खिुल जाएंगी। हवा में उड़ती हुई परिरियां होंगी, सचमुच की परिरियां।

कृष्णा-अच्छा चलो, लेकिकन न बताओगे, तो मारूंगी।

चन्द्रभानू औरि कृष्णा चलेक गए, पररि िनमर्मला अकेली बैठी रिह गई। कृष्णा के चलेक जाने से इस समय उसे बड़ा क्षोभ हुआ। कृष्णा, िजसे वह प्राणों से भी अिधक प्यारि करिती थी, आज इतनी िनठुरि हो गई। अकेली छोड़करि चली गई। बात कोई न थी, लेकिकन द:खिी हृदय दखिती हुई आंखि ह, िजसमें हवा से भी परीड़ा होती ह। िनमर्मला बड़ी देरि तक बैठी रिोती रिही। भाई-बहन, माता-िपरता, सभी इसी भांित मुझे भूल जाएंगे, सबकी आंखें िफरि जाएंगी, िफरि शायद इन्हें देखिने को भी तरिस जाऊं।

बाग में फूल िखिलेक हुए थ। मीठी-मीठी सुगन्ध आ रिही थी। चैत की शीतल मन्द समीरि चल रिही थी। आकाश में तारे िछटके हुए थ। िनमर्मला इन्ही शोकमय िवचारिों में परड़ी-परड़ी सो गई औरि आंखि लगते ही उसका मन स्वप्न-देश में, िवचरिने लगा। क्या देखिती ह िक सामने एक नदी लहरें मारि रिही ह औरि वह नदी के िकनारे नाव की बाठ देखि रिही ह। सन्ध्या का समय ह। अंधेरिा िकसी भयंकरि जन्तु की भांित बढ़ता चला आता ह। वह घोरि िचन्ता में परड़ी हुई ह िक कैसे यह नदी परारि होगी, कैसे परहंुचूंगी! रिो रिही ह िक कही रिात न हो जाऐ, नही तो मैं अकेली यहां कैसे रिहंूगी। एकाएक उसे एक सुन्दरि नौका घाट की ओरि आती िदखिाई देती ह। वह खिुशी से उछल परड़ती ह औरि ज्योही नाव घाट पररि आती ह, वह उस पररि चढ़ने के िलए बढ़ती ह, लेकिकन ज्योंही नाव के परटरे पररि परैरि रिखिना चाहती ह, उसका मल्लाह बोल उठता ह-तेरे िलए यहां जगह नही ह! वह मल्लाह की खिुशामद करिती ह, उसके परैरिों परड़ती ह, रिोती ह, लेकिकन वह यह कहे जाता ह, तेरे िलए यहां जगह नही ह। एक क्षण में नाव खिुल जाती ह। वह िचल्ला-िचल्लाकरि रिोने लगती ह। नदी के िनजर्मन तट पररि रिात भरि कैसे रिहेगी, यह सोच वह नदी में कूद करि उस नाव को परकड़ना चाहती ह िक इतने में कही से आवाज आती ह-ठहरिो, ठहरिो, नदी गहरिी ह, डूब जाओगी। वह नाव तुम्हारे िलए नही ह, मैं आता हंू, मेरिी नाव में बैठ जाओ। मैं उस परारि परहंुचा दूंगा। वह भयभीत होकरि इधरि-उधरि देखिती ह िक यह आवाज कहां से आई? थोड़ी देरि के बाद एक छोटी-सी डोंगी आती िदखिाई देती ह। उसमें न पराल ह, न परतवारि औरि न मस्तूल। परैंदा फटा हुआ ह, तख्ते टूटे हुए, नाव में परानी भरिा हुआ ह औरि एक आदमी उसमें से परानी उलीच रिहा ह। वह उससे कहती ह, यह तो टूटी हुई ह, यह कैसे परारि लगेगी? मल्लाह कहता ह- तुम्हारे िलए यही भेजी गई ह, आकरि बैठ जाओ! वह एक क्षण सोचती ह- इसमें बैठूं या न बैठूं? अन्त में वह िनश्चय करिती ह- बैठ जाऊं। यहां अकेली परड़ी रिहने से नाव में बैठ जाना िफरि भी अच्छा ह। िकसी भयंकरि जन्तु के पेट में जाने से तो यही अच्छा ह िक नदी में डूब जाऊं। कौन जाने, नाव परारि परहंुच ही जाएे। यह सोचकरि वह प्राणों की मुट्ठी में िलए हुए नाव पररि बैठ जाती ह। कुछ देरि तक नाव डगमगाती हुई चलती ह, लेकिकन प्रितक्षण उसमें परानी भरिता जाता ह। वह भी मल्लाह के साथ दोनों हाथों से परानी उलीचने

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लगती ह। यहां तक िक उनके हाथ रिह जाते हैं, पररि परानी बढ़ता ही चला जाता ह, आिखिरि नाव चक्करि खिाने लगती ह, मालूम होती ह- अब डूबी, अब डूबी। तब वह िकसी अदृषश्य सहारे के िलए दोनों हाथ फैलाती ह, नाव नीचे जाती ह औरि उसके परैरि उखिड़ जाते हैं। वह जोरि से िचल्लाई औरि िचल्लाते ही उसकी आंखें खिुल गई। देखिा, तो माता सामने खिड़ी उसका कन्धा परकड़करि िहला रिही थी।

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भाग २बाबू उदयभानुलाल का मकान बाजारि बना हुआ ह। बरिामदे में सुनारि के हथौड़े औरि कमरे में दजी की

सुईयां चल रिही हैं। सामने नीम के नीचे बढ़ई चारिपराइयां बना रिहा ह। खिपररैिल में हलवाई के िलए भट्ठा खिोदा गया ह। मेहमानों के िलए अलग एक मकान ठीक िकया गया ह। यह प्रबन्ध िकया जा रिहा ह िक हरेक मेहमान के िलए एक-एक चारिपराई, एक-एक कुसी औरि एक-एक मेज हो। हरि तीन मेहमानों के िलए एक-एक कहारि रिखिने की तजवीज हो रिही ह। अभी बारिात आने में एक महीने की देरि ह, लेकिकन तैयािरियां अभी से हो रिही हैं। बारिाितयों का ऐसा सत्कारि िकया जाएे िक िकसी को जबान िहलाने का मौका न िमलेक। वे लोग भी याद करें िक िकसी के यहां बारिात में गये थ। परूरिा मकान बतर्मनों से भरिा हुआ ह। चाय के सेट हैं, नाश्ते की तश्तिरियां, थाल, लोटे, िगलास। जो लोग िनत्य खिाट पररि परड़े हुक्का परीते रिहते थ, बड़ी तत्पररिता से काम में लगे हुए हैं। अपरनी उपरयोिगता िसद्ध करिने का ऐसा अच्छा अवसरि उन्हें िफरि बहुत िदनों के बाद िमलेकगा। जहां एक आदमी को जाना होता ह, परांच दौड़ते हैं। काम कम होता ह, हुल्लड़ अिधक। जरिा-जरिा सी बात पररि घण्टों तकर-िवतकर होता ह औरि अन्त में वकील साहब को आकरि िनणर्मय करिना परड़ता ह। एक कहता ह, यह घी खिरिाब ह, दूसरिा कहता ह, इससे अच्छा बाजारि में िमल जाएे तो टांग की रिाह से िनकल जाऊं। तीसरिा कहता ह, इसमें तो हीक आती ह। चौथा कहता ह, तुम्हारिी नाक ही सड़ गई ह, तुम क्या जानो घी िकसे कहते हैं। जब से यहां आये हो, घी िमलने लगा ह, नही तो घी के दशर्मन भी न होते थ! इस पररि तकरिारि बढ़ जाती ह औरि वकील साहब को झगड़ा चुकाना परड़ता ह।

रिात के नौ बजे थ। उदयभानुलाल अन्दरि बैठे हुए खिचर्म का तखिमीना लगा रिहे थ। वह प्राय: रिोज ही तखिमीना लगते थ पररि रिोज ही उसमें कुछ-न-कुछ परिरिवतर्मन औरि परिरिवधर्मन करिना परड़ता था। सामने कल्याणी भौंहे िसकोड़े हुए खिड़ी थी। बाबू साहब ने बड़ी देरि के बाद िसरि उठाया औरि बोलेक-दस हजारि से कम नही होता, बिल्क शायद औरि बढ़ जाएे।

कल्याणी-दस िदन में परांच से दस हजारि हुए। एक महीने में तो शायद एक लाखि नौबत आ जाएे।

उदयभानु-क्या करूं, जग हंसाई भी तो अच्छी नही लगती। कोई िशकायत हुई तो लोग कहेंगे, नाम बड़े दशर्मन थोड़े। िफरि जब वह मुझसे दहेज एक पराई नही लेकते तो मेरिा भी कतर्मव्य ह िक मेहमानों के आदरि-सत्कारि में कोई बात उठा न रिखिूं।

कल्याणी- जब से ब्रह्मा ने सृषिष्टि रिची, तब से आज तक कभी बारिाितयों को कोई प्रसन्न नही रिखि सकता। उन्हें दोष िनकालने औरि िनन्दा करिने का कोई-न-कोई अवसरि िमल ही जाता ह। िजसे अपरने घरि सूखिी रिोिटयां भी मयस्सरि नही वह भी बारिात में जाकरि तानाशाह बन बैठता ह। तेल खिुशबूदारि नही, साबुन टके सेरि का जाने कहां से बटोरि लाये, कहारि बात नही सुनते, लालटेन धुआं देती हैं, कुिसयों में खिटमल ह, चारिपराइयां ढीली हैं, जनवासे की जगह हवादारि नही। ऐसी-ऐसी हजारिों िशकायतें होती रिहती हैं। उन्हें आपर कहां तक रिोिकयेगा? अगरि यह मौका न िमला, तो औरि कोई ऐब िनकाल िलये जाएंगे। भई, यह तेल तो रंििडयों के लगाने लायक ह, हमें तो सादा तेल चािहए। जनाब ने यह साबुन नही भेजा ह, अपरनी अमीरिी की शान िदखिाई ह, मानो हमने साबुन देखिा ही नही। ये कहारि नही यमदूत हैं, जब देिखिये िसरि पररि सवारि! लालटेन ऐसी भेजी हैं िक आंखें चमकने लगती हैं, अगरि दस-परांच िदन इस रिोशनी में बैठना परड़े तो आंखें फूट जाएं। जनवासा क्या ह, अभागे का भाग्य ह, िजस पररि चारिों तरिफ से झोंके आते रिहते हैं। मैं तो िफरि यही कहंूगी िक बारिितयों के नखिरिों का िवचारि ही छोड़ दो।

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उदयभानु- तो आिखिरि तुम मुझे क्या करिने को कहती हो?

कल्याणी-कह तो रिही हंू, परक्का इरिादा करि लो िक मैं परांच हजारि से अिधक न खिचर्म करूंगा। घरि में तो टका ह नही, कजर्म ही का भरिोसा ठहरिा, तो इतना कजर्म क्यों लें िक िजन्दगी में अदा न हो। आिखिरि मेरे औरि बच्चे भी तो हैं, उनके िलए भी तो कुछ चािहए।

उदयभानु- तो आज मैं मरिा जाता हंू?

कल्याणी- जीने-मरिने का हाल कोई नही जानता।

कल्याणी- इसमें िबगड़ने की तो कोई बात नही। मरिना एक िदन सभी को ह। कोई यहां अमरि होकरि थोड़े ही आया ह। आंखें बन्द करि लेकने से तो होने-वाली बात न टलेकगी। रिोज आंखिों देखिती हंू, बापर का देहान्त हो जाता ह, उसके बच्चे गली-गली ठोकरें खिाते िफरिते हैं। आदमी ऐसा काम ही क्यों करे?

उदयभानु न जलकरि कहा- जो अब समझ लूं िक मेरे मरिने के िदन िनकट आ गये, यही तुम्हारिी भिवष्यवाणी ह! सुहाग से िस्त्रियों का जी ऊबते नही सुना था, आज यह नई बात मालूम हुई। रंिडापे में भी कोई सुखि होगा ही!

कल्याणी-तुमसे दिनया की कोई भी बात कही जाती ह, तो जहरि उगलने लगते हो। इसिलए न िक जानते हो, इसे कही िटकना नही ह, मेरिी ही रिोिटयों पररि परड़ी हुई ह या औरि कुछ! जहां कोई बात कही, बस िसरि हो गये, मानों मैं घरि की लौंडी हंू, मेरिा केवल रिोटी औरि कपरड़े का नाता ह। िजतना ही मैं दबती हंू, तुम औरि भी दबाते हो। मुफ्तखिोरि माल उड़ायंे, कोई मुंह न खिोलेक, शरिाब-कबाब में रूपरये लुटंे, कोई जबान न िहलाये। वे सारे कांटे मेरे बच्चों ही के िलए तो बोये जा रिहे ह।

उदयभानु लाल- तो मैं क्या तुम्हारिा गुलाम हंू?

कल्याणी- तो क्या मैं तुम्हारिी लौंडी हंू?

उदयभानु लाल- ऐसे मदर्म औरि होंगे, जो औरितों के इशारिों पररि नाचते हैं।

कल्याणी- तो ऐसी िस्त्रियों भी होंगी, जो मदों की जूितयां सहा करिती हैं।

उदयभानु लाल- मैं कमाकरि लाता हंू, जैसे चाहंू खिचर्म करि सकता हंू। िकसी को बोलने का अिधकारि नही।

कल्याणी- तो आपर अपरना घरि संभिलये! ऐसे घरि को मेरिा दूरि ही से सलाम ह, जहां मेरिी कोई परूछ नही घरि में तुम्हारिा िजतना अिधकारि ह, उतना ही मेरिा भी। इससे जौ भरि भी कम नही। अगरि तुम अपरने मन के रिाजा हो, तो मैं भी अपरने मन को रिानी हंू। तुम्हारिा घरि तुम्हें मुबारिक रिहे, मेरे िलए पेट की रिोिटयों की कमी नही ह। तुम्हारे बच्चे हैं, मारिो या िजलाओ। न आंखिों से देखिूंगी, न परीड़ा होगी। आंखें फूटी, परीरि गई!

उदयभानु- क्या तुम समझती हो िक तुम न संभालेकगी तो मेरिा घरि ही न संभलेकगा? मैं अकेलेक ऐसे-ऐसे दस घरि संभाल सकता हंू।

कल्याणी-कौन? अगरि ‘आज के महीने िदन िमट्टी में न िमल जाऐ ’, तो कहना कोई कहती थी!

यह कहते-कहते कल्याणी का चेहरिा तमतमा उठा, वह झमककरि उठी औरि कमरे के द्वारि की ओरि चली। वकील साहब मुकदमें में तो खिूब मीन-मेखि िनकालते थ, लेकिकन िस्त्रियों के स्वभाव का उन्हें कुछ यों ही-सा ज्ञान

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था। यही एक ऐसी िवद्या ह, िजसमें आदमी बूढ़ा होने पररि भी कोरिा रिह जाता ह। अगरि वे अब भी नरिम परड़ जाते औरि कल्याणी का हाथ परकड़करि िबठा लेकते, तो शायद वह रूक जाती, लेकिकन आपरसे यह तो हो न सका, उल्टे चलते-चलते एक औरि चरिका िदया।

बोल-मैके का घमण्ड होगा?

कल्याणी ने द्वारिा पररि रूक करि परित की ओरि लाल-लाल नेत्रों से देखिा औरि िबफरिकरि बोल- मैके वालेक मेरे तकदीरि के साथी नही ह औरि न मैं इतनी नीच हंू िक उनकी रिोिटयों पररि जा परडूं।

उदयभानु-तब कहां जा रिही हो?

कल्याणी-तुम यह परूछने वालेक कौन होते हो? ईश्वरि की सृषिष्टि में असंख्य प्रािणयों के िलए जगह ह, क्या मेरे ही िलए जगह नही ह?

यह कहकरि कल्याणी कमरे के बाहरि िनकल गई। आंगन में आकरि उसने एक बारि आकाश की ओरि देखिा , मानो तारिागण को साक्षी दे रिही ह िक मैं इस घरि में िकतनी िनदर्मयता से िनकाली जा रिही हंू। रिात के ग्यारिह बज गये थ। घरि में सन्नाटा छा गया था, दोनों बेटों की चारिपराई उसी के कमरे में रिहती थी। वह अपरने कमरे में आई, देखिा चन्द्रभानु सोया ह, सबसे छोटा सूयर्मभानु चारिपराई पररि उठ बैठा ह। माता को देखिते ही वह बोला-तुम तहां दई ती अम्मां?

कल्याणी दूरि ही से खिड़े-खिड़े बोली- कही तो नही बेटा, तुम्हारे बाबूजी के परास गई थी।

सूयर्म-तुम तली दई, मुधे अतेलेक दरि लदता था। तुम क्यों तली दई ती, बताओ?

यह कहकरि बच्चे ने गोद में चढ़ने के िलए दोनों हाथ फैला िदये। कल्याणी अब अपरने को न रिोक सकी। मातृष-स्नेह के सुधा-प्रवाह से उसका संतप्त हृदय परिरिपर्लािवत हो गया। हृदय के कोमल परौधे, जो क्रोध के तापर से मुरिझा गये थ, िफरि हरे हो गये। आंखें सजल हो गई। उसने बच्चे को गोद में उठा िलया औरि छाती से लगाकरि बोली-तुमने परुकारि क्यों न िलया, बेटा?

सूयर्म-परुतालता तो ता, तुम थुनती न ती, बताओ अब तो कबी न दाओगी।

कल्याणी-नही भैया, अब नही जाऊंगी।

यह कहकरि कल्याणी सूयर्मभानु को लेककरि चारिपराई पररि लेकटी। मां के हृदय से िलपरटते ही बालक िन:शंक होकरि सो गया, कल्याणी के मन में संकल्पर-िवकल्पर होने लगे, परित की बातें याद आती तो मन होता-घरि को ितलांजिल देकरि चली जाऊं, लेकिकन बच्चों का मुंह देखिती, तो वासल्य से िचत्त गद्रगद्र हो जाता। बच्चों को िकस पररि छोड़करि जाऊं? मेरे इन लालों को कौन परालेकगा, ये िकसके होकरि रिहेंगे? कौन प्रात:काल इन्हें दूध औरि हलवा िखिलायेगा, कौन इनकी नीद सोयेगा, इनकी नीद जागेगा? बेचारे कौड़ी के तीन हो जाएंगे। नही प्यारिो, मैं तुम्हें छोड़करि नही जाऊंगी। तुम्हारे िलए सब कुछ सह लूंगी। िनरिादरि-अपरमान, जली-कटी, खिोटी-खिरिी, घुड़की-िझड़की सब तुम्हारे िलए सहंूगी।

कल्याणी तो बच्चे को लेककरि लेकटी, पररि बाबू साहब को नीद न आई उन्हें चोट करिनेवाली बातें बड़ी मुिश्कल से भूलती थी। उफ, यह िमजाज! मानों मैं ही इनकी स्त्रिी हंू। बात मुंह से िनकालनी मुिश्कल ह। अब मैं इनका गुलाम होकरि रिहंू। घरि में अकेली यह रिहें औरि बाकी िजतने अपरने बेगाने हैं, सब िनकाल िदये जाएं। जला करिती

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हैं। मनाती हैं िक यह िकसी तरिह मरें, तो मैं अकेली आरिाम करूं। िदल की बात मुंह से िनकल ही आती ह, चाहे कोई िकतना ही िछपराये। कई िदन से देखि रिहा हंू ऐसी ही जली-कटी सुनाया करिती हैं। मैके का घमण्ड होगा, लेकिकन वहां कोई भी न परूछेगा, अभी सब आवभगत करिते हैं। जब जाकरि िसरि परड़ जाएंगी तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जाएेगा। रिोती हुई जाएंगी। वाह रे घमण्ड! सोचती हैं-मैं ही यह गृषहस्थी चलाती हंू। अभी चारि िदन को कही चला जाऊं, तो मालूम हो जाएेगा, सारिी शेखिी िकरििकरिी हो जाएेगा। एक बारि इनका घमण्ड तोड़ ही दूं। जरिा वैधव्य का मजा भी चखिा दूं। न जाने इनकी िहम्मत कैसे परड़ती ह िक मुझे यों कोसने लगत हैं। मालूम होता ह, प्रेम इन्हें छू नही गया या समझती हैं, यह घरि से इतना िचमटा हुआ ह िक इसे चाहे िजतना कोसूं , टलने का नाम न लेकगा। यही बात ह, पररि यहां संसारि से िचमटनेवालेक जीव नही हैं! जहन्नुम में जाएे यह घरि, जहां ऐसे प्रािणयों से पराला परड़े। घरि ह या नरिक? आदमी बाहरि से थका-मांदा आता ह, तो उसे घरि में आरिाम िमलता ह। यहां आरिाम के बदलेक कोसने सुनने परड़ते हैं। मेरिी मृषत्यु के िलए व्रत रिखे जाते हैं। यह ह परचीस वषर्म के दाम्परत्य जीवन का अन्त! बस, चल ही दूं। जब देखि लूंगा इनका सारिा घमण्ड धूल में िमल गया औरि िमजाज ठण्डा हो गया, तो लौट आऊंगा। चारि-परांच िदन काफी होंगे। लो, तुम भी याद करिोगी िकसी से पराला परड़ा था।

यही सोचते हुए बाबू साहब उठे, रेशमी चादरि गलेक में डाली, कुछ रूपरये िलये, अपरना काडर्म िनकालकरि दूसरे कुतर्ते की जेब में रिखिा, छड़ी उठाई औरि चुपरके से बाहरि िनकलेक। सब नौकरि नीद में मस्त थ। कुत्ता आहट पराकरि चौंक परड़ा औरि उनके साथ हो िलया।

पररि यह कौन जानता था िक यह सारिी लीला िविध के हाथों रिची जा रिही ह। जीवन-रंिगशाला का वह िनदर्मय सूत्रधारि िकसी अगम गुप्त स्थान पररि बैठा हुआ अपरनी जिटल क्रूरि क्रीड़ा िदखिा रिहा ह। यह कौन जानता था िक नकल असल होने जा रिही ह, अिभनय सत्य का रूपर ग्रहण करिने वाला ह।

िनशा ने इन्दू को पररिास्त करिके अपरना साम्राज्य स्थािपरत करि िलया था। उसकी परैशािचक सेना ने प्रकृित पररि आतंक जमा रिखिा था। सद्रवृषित्तयां मुंह िछपराये परड़ी थी औरि कुवृषित्तयां िवजय-गवर्म से इठलाती िफरिती थी। वन में वन्यजन्तु िशकारि की खिोज में िवचारि रिहे थ औरि नगरिों में नरि-िपरशाच गिलयों में मंडरिाते िफरिते थ।

बाबू उदयभानुलाल लपरके हुए गंगा की ओरि चलेक जा रिहे थ। उन्होंने अपरना कुत्ता घाट के िकनारे रिखिकरि परांच िदन के िलए िमजापरुरि चलेक जाने का िनश्चय िकया था। उनके कपरड़े देखिकरि लोगों को डूब जाने का िवश्वास हो जाएेगा, काडर्म कुतर्ते की जेब में था। परता लगाने में कोई िदक्कत न हो सकती थी। दम-के-दम में सारे शहरि में खिबरि मशहूरि हो जाएेगी। आठ बजते-बजते तो मेरे द्वारि पररि सारिा शहरि जमा हो जाएेगा, तब देखिूं, देवी जी क्या करिती हैं?

यही सोचते हुए बाबू साहब गिलयों में चलेक जा रिहे थ, सहसा उन्हें अपरने परीछे िकसी दूसरे आदमी के आने की आहट िमली, समझे कोई होगा। आगे बढ़े, लेकिकन िजस गली में वह मुड़ते उसी तरिफ यह आदमी भी मुड़ता था। तब बाबू साहब को आशंका हुई िक यह आदमी मेरिा परीछा करि रिहा ह। ऐसा आभास हुआ िक इसकी नीयत साफ नही ह। उन्होंने तुरिन्त जेबी लालटेन िनकाली औरि उसके प्रकाश में उस आदमी को देखिा। एक बिरिष्ष्ठ मनुष्य कन्धे पररि लाठी रिखे चला आता था। बाबू साहब उसे देखिते ही चौंक परड़े। यह शहरि का छटा हुआ बदमाश था। तीन साल परहलेक उस पररि डाके का अिभयोग चला था। उदयभानु ने उस मुकदमे में सरिकारि की ओरि से परैरिवी की थी औरि इस बदमाश को तीन साल की सजा िदलाई थी। सभी से वह इनके खिून का प्यासा हो रिहा था। कल ही वह छूटकरि आया था। आज दैवात् साहब अकेलेक रिात को िदखिाई िदये, तो उसने सोचा यह इनसे दाव चुकाने का

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अच्छा मौका ह। ऐसा मौका शायद ही िफरि कभी िमलेक। तुरिन्त परीछे हो िलया औरि वारि करिने की घात ही में था िक बाबू साहब ने जेबी लालटेन जलाई। बदमाश जरिा िठठककरि बोला-क्यों बाबूजी परहचानते हो? मैं हंू मतई।

बाबू साहब ने डपरटकरि कहा- तुम मेरे िपरछे-िपरछे क्यों आ रिहे हो?

मतई- क्यों, िकसी को रिास्ता चलने की मनाही ह? यह गली तुम्हारे बापर की ह?

बाबू साहब जवानी में कुश्ती लड़े थ, अब भी हृष्टि-परुष्टि आदमी थ। िदल के भी कच्चे न थ। छड़ी संभालकरि बोलेक-अभी शायद मन नही भरिा। अबकी सात साल को जाओगे।

मतई-मैं सात साल को जाऊंगा या चौदह साल को, पररि तुम्हें िजद्दा न छोडूंगा। हां, अगरि तुम मेरे परैरिों पररि िगरिकरि कसम खिाओ िक अब िकसी को सजा न करिाऊंगा, तो छोड़ दूं। बोलो मंजूरि ह?

उदयभानु-तेरिी शामत तो नही आई?

मतई-शामत मेरिी नही आई, तुम्हारिी आई ह। बोलो खिाते हो कसम-एक!

उदयभानु-तुम हटते हो िक मैं परुिलसमैन को बुलाऊं।

मतई-दो!

उदयभानु-(गरिजकरि) हट जा बादशाह, सामने से!

मतई-तीन!

मुंह से ‘तीन’ शब्द िनकालते ही बाबू साहब के िसरि पररि लाठी का ऐसा तुला हाथ परड़ा िक वह अचेत होकरि जमीन पररि िगरि परड़े। मुंह से केवल इतना ही िनकला-हाय! मारि डाला!

मतई ने समीपर आकरि देखिा, तो िसरि फट गया था औरि खिून की घारि िनकल रिही थी। नाड़ी का कही परता न था। समझ गया िक काम तमाम हो गया। उसने कलाई से सोने की घड़ी खिोल ली, कुतर्ते से सोने के बटन िनकाल िलये, उंगली से अंगूठी उतारिी औरि अपरनी रिाह चला गया, मानो कुछ हुआ ही नही। हां, इतनी दया की िक लाश रिास्ते से घसीटकरि िकनारे डाल दी। हाय, बेचारे क्या सोचकरि चलेक थ, क्या हो गया! जीवन, तुमसे ज्यादा असारि भी दिनया में कोई वस्तु ह? क्या वह उस दीपरक की भांित ही क्षणभंगुरि नही ह, जो हवा के एक झोंके से बुझ जाता ह! परानी के एक बुलबुलेक को देखिते हो, लेकिकन उसे टूटते भी कुछ देरि लगती ह, जीवन में उतना सारि भी नही। सांस का भरिोसा ही क्या औरि इसी नश्वरिता पररि हम अिभलाषाआं के िकतने िवशाल भवन बनाते हैं! नही जानते, नीचे जानेवाली सांस ऊपररि आयेगी या नही, पररि सोचते इतनी दूरि की हैं, मानो हम अमरि हैं।

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अध्याय-२िववाह का िवलापर औरि अनाथों का रिोना सुनाकरि हम पराठकों का िदल न दखिायंेगे। िजसके ऊपररि परड़ती ह ,

वह रिोता ह, िवलापर करिता ह, परछाड़ं खिाता ह। यह कोई नयी बात नही। हां, अगरि आपर चाहें तो कल्याणी की उस घोरि मानिसक यातना का अनुमान करि सकते हैं, जो उसे इस िवचारि से हो रिही थी िक मैं ही अपरने प्राणाधारि की घाितका हंू। वे वाक्य जो क्रोध के आवेश में उसके असंयत मुखि से िनकलेक थ, अब उसके हृदय को वाणों की भांित छेद रिहे थ। अगरि परित ने उसकी गोद में करिाह-करिाहकरि प्राण-त्याग िदए होते, तो उसे संतोष होता िक मैंने उनके प्रित अपरने कतर्मव्य का परालन िकया। शोकाकुल हृदय को इससे ज्यादा सान्त्वना औरि िकसी बात से नही होती। उसे इस िवचारि से िकतना संतोष होता िक मेरे स्वामी मुझसे प्रसन्न गये, अिन्तम समय तक उनके हृदय में मेरिा प्रेम बना रिहा। कल्याणी को यह सन्तोष न था। वह सोचती थी-हा! मेरिी परचीस बरिस की तपरस्या िनष्फल हो गई। मैं अन्त समय अपरने प्राणपरित के प्रेम के वंिचत हो गयी। अगरि मैंने उन्हें ऐसे कठोरि शब्द न कहे होते , तो वह कदािपर रिात को घरि से न जाते।न जाने उनके मन में क्या-क्या िवचारि आये हों? उनके मनोभावों की कल्परना करिके औरि अपरने अपररिाध को बढ़ा-बढ़ाकरि वह आठों परहरि कुढ़ती रिहती थी। िजन बच्चों पररि वह प्राण देती थी, अब उनकी सूरित से िचढ़ती। इन्ही के कारिण मुझे अपरने स्वामी से रिारि मोल लेकनी परड़ी। यही मेरे शत्रु हैं। जहां आठों परहरि कचहरिी-सी लगी रिहती थी, वहां अब खिाक उड़ती ह। वह मेला ही उठ गया। जब िखिलानेवाला ही न रिहा, तो खिानेवालेक कैसे परड़े रिहते। धीरे-धीरे एक महीने के अन्दरि सभी भांजे-भतीजे िबदा हो गये। िजनका दावा था िक हम परानी की जगह खिून बहानेवालों में हैं, वे ऐसा सरिपरट भागे िक परीछे िफरिकरि भी न देखिा। दिनया ही दूसरिी हो गयी। िजन बच्चों को देखिकरि प्यारि करिने को जी चाहता था उनके चेहरे पररि अब मिक्खियां िभनिभनाती थी। न जाने वह कांित कहां चली गई?

शोक का आवेग कम हुआ, तो िनमर्मला के िववाह की समस्या उपरिस्थत हुई। कुछ लोगों की सलाह हुई िक िववाह इस साल रिोक िदया जाएे, लेकिकन कल्याणी ने कहा- इतनी तैयिरियों के बाद िववाह को रिोक देने से सब िकया-धरिा िमट्टी में िमल जाएेगा औरि दूसरे साल िफरि यही तैयािरियां करिनी परड़ंगी, िजसकी कोई आशा नही। िववाह करि ही देना अच्छा ह। कुछ लेकना-देना तो ह ही नही। बारिाितयों के सेवा-सत्कारि का काफी सामान हो चुका ह, िवलम्ब करिने में हािन-ही-हािन ह। अतएव महाशय भालचन्द्र को शोक-सूचना के साथ यह सन्देश भी भेज िदया गया। कल्याणी ने अपरने परत्र में िलखिा-इस अनािथनी पररि दया कीिजए औरि डूबती हुई नाव को परारि लगाइये। स्वामीजी के मन में बड़ी-बड़ी कामनाएं थी, िकतु ईश्वरि को कुछ औरि ही मंजूरि था। अब मेरिी लाज आपरके हाथ ह। कन्या आपरकी हो चुकी। मैं लोगों के सेवा-सत्कारि करिने को अपरना सौभाग्य समझती हंू, लेकिकन यिद इसमें कुछ कमी हो, कुछ त्रुिट परड़े, तो मेरिी दशा का िवचारि करिके क्षमा कीिजयेगा। मुझे िवश्वास ह िक आपर इस अनािथनी की िनन्दा न होने देंगे, आिद।

कल्याणी ने यह परत्र डाक से न भेजा, बिल्क परुरिोिहत से कहा-आपरको कष्टि तो होगा, पररि आपर स्वयं जाकरि यह परत्र दीिजए औरि मेरिी ओरि से बहुत िवनय के साथ किहयेगा िक िजतने कम आदमी आयंे, उतना ही अच्छा। यहां कोई प्रबन्ध करिनेवाला नही ह।

परुरिोिहत मोटेरिाम यह सन्देश लेककरि तीसरे िदन लखिनऊ जा परहँुचे।

संध्या का समय था। बाबू भालचन्द्र दीवानखिाने के सामने आरिामकुसी पररि नंग-धड़ंग लेकटे हुए हुक्का परी रिहे थ। बहुत ही स्थूल, ऊंचे कद के आदमी थ। ऐसा मालूम होता था िक काला देव ह या कोई हब्शी अफ्रीका से

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परकड़करि आया ह। िसरि से परैरि तक एक ही रंिग था-काला। चेहरिा इतना स्याह था िक मालूम न होता था िक माथ का अंत कहां ह िसरि का आरिम्भ कहां। बस, कोयलेक की एक सजीव मूित थी। आपरको गमी बहुत सताती थी। दो आदमी खिड़े परंखिा झल रिहे थ, उस पररि भी परसीने का तारि बंधा हुआ था। आपर आबकारिी के िवभाग में एक ऊंचे ओहदे पररि थ। परांच सौ रूपरये वेतन िमलता था। ठेकेदारिों से खिूब िरिश्वत लेकते थ। ठेकेदारि शरिाब के नाम परानी बेच, चौबीसों घंटे दकान खिुली रिखें, आपरको केवल खिुश रिखिना काफी था। सारिा कानून आपरकी खिुशी थी। इतनी भयंकरि मूित थी िक चांदनी रिात में लोग उन्हें देखि करि सहसा चौंक परड़ते थ-बालक औरि िस्त्रियां ही नही, परुरूष तक सहम जाते थ। चांदनी रिात इसिलए कहा गया िक अंधेरिी रिात में तो उन्हें कोई देखि ही न सकता था-श्यामलता अन्धकारि में िवलीन हो जाती थी। केवल आंखिों का रंिग लाल था। जैसे परक्का मुसलमान परांच बारि नमाज परढ़ता ह, वैसे ही आपर भी परांच बारि शरिाब परीते थ, मुफ्त की शरिाब तो काजी को हलाल ह, िफरि आपर तो शरिाब के अफसरि ही थ, िजतनी चाहें िपरयंे, कोई हाथ परकड़ने वाला न था। जब प्यास लगती शरिाब परी लेकते । जैसे कुछ रंिगों में पररिस्पररि सहानुभूित ह, उसी तरिह कुछ रंिगों में पररिस्पररि िवरिोध ह। लािलमा के संयोग से कािलमा औरि भी भयंकरि हो जाती ह।

बाबू साहब ने परंिडतजी को देखिते ही कुसी से उठकरि कहा-अख्खिाह! आपर हैं? आइए-आइए। धन्य भाग! अरे कोई ह। कहां चलेक गये सब-के-सब, झगडू, गुरिदीन, छकौड़ी, भवानी, रिामगुलाम कोई ह? क्या सब-के-सब मरि गये! चलो रिामगुलाम, भवानी, छकौड़ी, गुरिदीन, झगडू। कोई नही बोलता, सब मरि गये! दजर्मन-भरि आदमी हैं, पररि मौके पररि एक की भी सूरित नही नजरि आती, न जाने सब कहां गायब हो जाते हैं। आपरके वास्ते कुसी लाओ।

बाबू साहब ने ये परांचों नाम कई बारि दहरिाये, लेकिकन यह न हुआ िक परंखिा झलनेवालेक दोनों आदिमयों में से िकसी को कुसी लाने को भेज देते। तीन-चारि िमनट के बाद एक काना आदमी खिांसता हुआ आकरि बोला-सरिकारि, ईतना की नौकरिी हमारि कीन न होई ! कहां तक उधारि-बाढ़ी लै-लै खिाई मांगत-मांगत थथरि होय गयेना।

भाल- बको मत, जाकरि कुसी लाओ। जब कोई काम करिने की कहा गया, तो रिोने लगता ह। किहए परिडतजी, वहां सब कुशल ह?

मोटेरिाम-क्या कुशल कहंू बाबूजी, अब कुशल कहां? सारिा घरि िमट्टी में िमल गया।

इतने में कहारि ने एक टूटा हुआ चीड़ का सन्दूक लाकरि रिखि िदया औरि बोला-कसी-मेज हमारे उठाये नाही उठत ह।

परंिडतजी शमाते हुए डरिते-डरिते उस पररि बैठे िक कही टूट न जाएे औरि कल्याणी का परत्र बाबू साहब के हाथ में रिखि िदया।

भाल-अब औरि कैसे िमट्टी में िमलेकगा? इससे बड़ी औरि कौन िवपरित्त परड़ेगी? बाबू उदयभानु लाल से मेरिी परुरिानी दोस्ती थी। आदमी नही, हीरिा था! क्या िदल था, क्या िहम्मत थी, (आंखें परोंछकरि) मेरिा तो जैसे दािहना हाथ ही कट गया। िवश्वास मािनए, जबसे यह खिबरि सुनी ह, आंखिों में अंधेरिा-सा छा गया ह। खिाने बैठता हंू, तो कौरि मुंह में नही जाता। उनकी सूरित आंखिों के सामने खिड़ी रिहती ह। मुंह जूठा करिके उठ जाता हंू। िकसी काम में िदल नही लगता। भाई के मरिने का रंिज भी इससे कम ही होता ह। आदमी नही, हीरिा था!

मोटे- सरिकारि, नगरि में अब ऐसा कोई रिईस नही रिहा।

भाल- मैं खिूब जानता हंू, परंिडतजी, आपर मुझसे क्या कहते हैं। ऐसा आदमी लाखि-दो-लाखि में एक होता ह।

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िजतना मैं उनको जानता था, उतना दूसरिा नही जान सकता। दो-ही-तीन बारि की मुलाकात में उनका भक्त हो गया औरि मरिने दम तक रिहंूगा। आपर समिधन साहब से कह दीिजएगा, मुझे िदली रंिज ह।

मोटे-आपरसे ऐसी ही आशा थी! आज-जैसे सज्जनों के दशर्मन दलर्मभ हैं। नही तो आज कौन िबना दहेज के परुत्र का िववाह करिता ह।

भाल-महारिाज, देहज की बातचीत ऐसे सत्यवादी परुरूषों से नही की जाती। उनसे सम्बन्ध हो जाना ही लाखि रूपरये के बरिाबरि ह। मैं इसी को अपरना अहोभाग्य समझता हंू। हा! िकतनी उदारि आमत्मा थी। रूपरये को तो उन्होंने कुछ समझा ही नही, ितनके के बरिाबरि भी पररिवाह नही की। बुरिा िरिवाज ह, बेहद बुरिा! मेरिा बस चलेक, तो दहेज लेकनेवालों औरि दहेज देनेवालों दोनों ही को गोली मारि दूं, हां साहब, साफ गोली मारि दूं, िफरि चाहे फांसी ही क्यों न हो जाए! परूछो, आपर लड़के का िववाह करिते हैं िक उसे बेचते हैं? अगरि आपरको लड़के के शादी में िदल खिोलकरि खिचर्म करिने का अरिमान ह, तो शौक के खिचर्म कीिजए, लेकिकन जो कुछ कीिजए, अपरने बल पररि। यह क्या िक कन्या के िपरता का गला रेितए। नीचता ह, घोरि नीचता! मेरिा बस चलेक, तो इन परािजयों को गोली मारि दूं।

मोटे- धन्य हो सरिकारि! भगवान् ने आपरको बड़ी बुिद्ध दी ह। यह धमर्म का प्रतापर ह। मालिकन की इच्छा ह िक िववाह का मुहूतर्म वही रिहे औरि तो उन्होंने सारिी बातें परत्र में िलखि दी हैं। बस, अब आपर ही उबारें तो हम उबरि सकते हैं। इस तरिह तो बारिात में िजतने सज्जन आयंेगे, उनकी सेवा-सत्कारि हम करेंगे ही, लेकिकन परिरििस्थित अब बहुत बदल गयी ह सरिकारि, कोई करिने-धरिनेवाला नही ह। बस ऐसी बात कीिजए िक वकील साहब के नाम पररि बट्टा न लगे।

भालचन्द्र एक िमनट तक आंखें बन्द िकये बैठे रिहे, िफरि एक लम्बी सांस खिीच करि बोलेक-ईश्वरि को मंजूरि ही न था िक वह लक्ष्मी मेरे घरि आती, नही तो क्या यह वज्र िगरिता? सारे मनसूबे खिाक में िमल गये। फूला न समाता था िक वह शुभ-अवसरि िनकट आ रिहा ह, पररि क्या जानता था िक ईश्वरि के दरिबारि में कुछ औरि षड्यन्त्र रिचा जा रिहा ह। मरिनेवालेक की याद ही रूलाने के िलए काफी ह। उसे देखिकरि तो जख्म औरि भी हरिा जो जाएेगा। उस दशा में न जाने क्या करि बैठूं। इसे गुण समिझए, चाहे दोष िक िजससे एक बारि मेरिी घिनष्ठता हो गयी, िफरि उसकी याद िचत्त से नही उतरिती। अभी तो खिैरि इतना ही ह िक उनकी सूरित आंखिों के सामने नाचती रिहती ह , लेकिकन यिद वह कन्या घरि में आ गयी, तब मेरिा िजन्दा रिहना किठन हो जाएेगा। सच मािनए, रिोते-रिोते मेरिी आंखें फूट जाएंगी। जानता हंू, रिोना-धोना व्यथर्म ह। जो मरि गया वह लौटकरि नही आ सकता। सब्र करिने के िसवाय औरि कोई उपराय नही ह, लेकिकन िदल से मजबूरि हंू। उस अनाथ बािलका को देखिकरि मेरिा कलेकजा फट जाएेगा।

मोटे- ऐसा न किहए सरिकारि! वकील साहब नही तो क्या, आपर तो हैं। अब आपर ही उसके िपरता-तुल्य हैं। वह अब वकील साहब की कन्या नही, आपरकी कन्या ह। आपरके हृदय के भाव तो कोई जानता नही, लोग समझंगे, वकील साहब का देहान्त हो जाने के कारिण आपर अपरने वचन से िफरि गये। इसमें आपरकी बदनामी ह। िचत्त को समझाइए औरि हंस-खिुशी कन्या का परािणग्रहण करिा लीिजए। हाथी मरे तो नौ लाखि का। लाखि िवपरित्त परड़ी ह, लेकिकन मालिकन आपर लोगों की सेवा-सत्कारि करिने में कोई बात न उठा रिखेंगी।

बाबू साहब समझ गये िक परंिडत मोटेरिाम कोरे परोथी के ही परंिडत नही, वरिन व्यवहारि-नीित में भी चतुरि हैं। बोलेक-परंिडतजी, हलफ से कहता हंू, मुझे उस लड़की से िजतना प्रेम ह, उतना अपरनी लड़की से भी नही ह, लेकिकन जब ईश्वरि को मंजूरि नही ह, तो मेरिा क्या बस ह? वह मृषत्यु एक प्रकारि की अमंगल सूचना ह, जो िवधाता की ओरि से हमें िमली ह। यह िकसी आनेवाली मुसीबत की आकाशवाणी ह िवधाता स्परष्टि रिीित से कह रिहा ह िक

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यह िववाह मंगलमय न होगा। ऐसी दशा में आपर ही सोिचये, यह संयोग कहां तक उिचत ह। आपर तो िवद्वान आदमी हैं। सोिचए, िजस काम का आरिम्भ ही अमंगल से हो, उसका अंत अमंगलमय हो सकता ह? नही, जानबूझकरि मक्खिी नही िनगली जाती। समिधन साहब को समझाकरि कह दीिजएगा, मैं उनकी आज्ञापरालन करिने को तैयारि हंू, लेकिकन इसका परिरिणाम अच्छा न होगा। स्वाथर्म के वंश में होकरि मैं अपरने पररिम िमत्र की सन्तान के साथ यह अन्याय नही करि सकता।

इस तकर ने परिडतजी को िनरुत्तरि करि िदया। वादी ने यह तीरि छोड़ा था, िजसकी उनके परास कोई काट न थी। शत्रु ने उन्ही के हिथयारि से उन पररि वारि िकया था औरि वह उसका प्रितकारि न करि सकते थ। वह अभी कोई जवाब सोच ही रिहे थ, िक बाबू साहब ने िफरि नौकरिों को परुकारिना शुरू िकया- अरे, तुम सब िफरि गायब हो गये- झगडू, छकौड़ी, भवानी, गुरूदीन, रिामगुलाम! एक भी नही बोलता, सब-के-सब मरि गये। परंिडतजी के वास्ते परानी-वानी की िफक्र ह? ना जाने इन सबों को कोई कहां तक समझये। अक्ल छू तक नही गयी। देखि रिहे हैं िक एक महाशय दूरि से थके-मांदे चलेक आ रिहे हैं, पररि िकसी को जरिा भी पररिवाह नही। लाआं, परानी-वानी रिखिो। परिडतजी, आपरके िलए शबर्मत बनवाऊं या फलाहारिी िमठाई मंगवा दूं।

मोटेरिामजी िमठाइयों के िवषय में िकसी तरिह का बन्धन न स्वीकारि करिते थ। उनका िसद्धान्त था िक घृषत से सभी वस्तुएं परिवत्र हो जाती हैं। रिसगुल्लेक औरि बेसन के लड्डू उन्हें बहुत िप्रय थ, पररि शबर्मत से उन्हें रुिच न थी। परानी से पेट भरिना उनके िनयम के िवरूद्ध था। सकुचाते हुए बोलेक-शबर्मत परीने की तो मुझे आदत नही, िमठाई खिा लूंगा।

भाल- फलाहारिी न?

मोटे- इसका मुझे कोई िवचारि नही।

भाल- ह तो यही बात। छूत-छात सब ढकोसला ह। मैं स्वयं नही मानता। अरे, अभी तक कोई नही आया? छकौड़ी, भवानी, गुरुदीन, रिामगुलाम, कोई तो बोलेक!

अबकी भी वही बूढ़ा कहारि खिांसता हुआ आकरि खिड़ा हो गया औरि बोला-सरिकारि, मोरि तलब दै दीन जाए। ऐसी नौकरिी मोसे न होई। कहां लो दौरिी दौरित-दौरित गोड़ िपररिाय लागत ह।

भाल-काम कुछ करिो या न करिो, पररि तलब परिहलेक चिहए! िदन भरि परड़े-परड़े खिांसा करिो, तलब तो तुम्हारिी चढ़ रिही ह। जाकरि बाजारि से एक आने की ताजी िमठाई ला। दौड़ता हुआ जा।

कहारि को यह हुक्म देकरि बाबू साहब घरि में गये औरि स्त्रिी से बोलेक-वहां से एक परंिडतजी आये हैं। यह खित लाये हैं, जरिा परढ़ो तो।

परत्नी जी का नाम रंिगीलीबाई था। गोरे रंिग की प्रसन्न-मुखि मिहला थी। रूपर औरि यौवन उनसे िवदा हो रिहे थ, पररि िकसी प्रेमी िमत्र की भांित मचल-मचल करि तीस साल तक िजसके गलेक से लगे रिहे, उसे छोड़ते न बनता था।

रंिगीलीबाई बैठी परान लगा रिही थी। बोली-कह िदया न िक हमें वहां ब्याह करिना मंजूरि नही।

भाल-हां, कह तो िदया, पररि मारे संकोच के मुंह से शब्द न िनकलता था। झूठ-मूठ का होला करिना परड़ता।

रंिगीली-साफ बात करिने में संकोच क्या? हमारिी इच्छा ह, नही करिते। िकसी का कुछ िलया तो नही ह?

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जब दूसरिी जगह दस हजारि नगद िमल रिहे ह; तो वहा क्यों न करें ? उनकी लडकी कोई सोने की थोडे ही ह। वकील साहब जीते होते तो शरिमाते-शमाते परनदह-बीस हजारि दे मरिते। अब वहा क्या रिखिा ह?

भाल- एक दफा जबान देकरि मुकरि जाना अचछी बात नही। कोई मुखि से कुछ न कहे, पररि बदनामी हुए िबना नही रिहती। मगरि तुमहारिी िजद से मजबूरि हंू।

रंिगीलीबाई ने परान खिाकरि खित खिोला औरि परढने लगी। िहन्दी का अभ्यास बाबू साहब को तो िबलकुल न था औरि यद्यिपर रंिगीलीबाई भी शायद ही कभी िकताब परढती हो, पररि खित-वत परढ लेकती थी। परहली ही पराित परढकरि उनकी आंखे सजल हो गयी औरि परत्र समाप्त िकया। तो उनकी आंखिो से आंसू बह रिहे थ-एक-एक शब्द करूणा के रिस मे डूबा हुआ था। एक-एक अक्षरि से दीनता टपरक रिही थी। र॑िगलीबाई की कठोरिता परत्थरि की नही, लाखि की थी, जो एक ही आचं से िपरघल जाती ह। कलयाणी के करूणातोपरादक शब्दो ने उनके स्वाथर्म-मंिडत हृदय को िपरंघला िदया। रू॑धे हुए कंठ से बोली-अभी ब्राह्मण बैठा ह न?

भालचन्द परत्नी के आंसुआं को देखि-देखिकरि सूखे जाते थ। अपरने ऊपररि झलला रिहे थ िक नाहक मैने यह खित इसे िदखिाया। इसकी जरूरित क्या थी? इतनी बडी भूल उनसे कभी न हुई थी। संिदगध भाव से बोलेक-शायद बैठा हो, मैने तो जाने को कह िदया था। रंिगीली ने िखिडकी से झांककरि देखिा। परंिडत मोटेरिाम जी बगुलेक की तरिह धयान लगाये बाजारि के रिास्ते की ओरि ताक रिहे थ। लालसा मे वय्ग्र होकरि कभी यह परहलू बदलते, कभी वह परहलू। ‘एक आने की िमठाई’ ने तो आशा की कमरि ही तोड दी थी, उसमे भी यह िवलमब, दारिण दशा थी। उन्हे बैठे देखिकरि रंिगीलीबाई बोली-ह-ह अभी ह, जाकरि कह दो, हम िववाह करेगे, जरूरि करेगे। बेचारिी बडी मुसीबत मे ह।

भाल- तुम कभी-कभी बब्चो की-सी बाते करिने लगती हो, अभी उससे कह आया हंू िक मुझे िववाह करिना मंजूरि नही। एक लमबी-चौडी भूिमका बाधनी परडी। अब जाकरि यह संदेश कहंूगा, तो वह अपरने िदल मे क्या कहेगा, जरिा सोचो तो? यह शादी-िववाह का मामला ह। लडको का खिलेक नही िक अभी एक बात तय की, अभी परलट गये। भलेक आदमी की बात न हुई, िदल्लगी हुई।

रंिगीली- अच्छा, तुम अपरने मुंह से न कहो, उस ब्राह्मण को मेरे परास भेज दो। मै इस तरिह समझा दूंगी िक तुम्हारिी बात भी रिह जाये औरि मेरिी भी। इसमे तो तुमहे कोई आपरित नही ह।

भाल-तुम अपरने िसवा सारिी दिनया को नादान समझती हो। तुम कहो या मै कहंू, बात एक ही ह। जो बात तय हो गयी, वह हो गई, अब मै उसे िफरि नही उठाना चाहता। तुम्ही तो बारि-बारि कहती थी िक मै वहा न करूंगी। तुम्हारे ही कारिण मुझे अपरनी बात खिोनी परडी। अब तुम िफरि रिगं बदलती हो। यह तो मेरिी छाती पररि मूंग दलना ह। आिखिरि तुमहे कुछ तो मेरे मान-अपरमान का िवचारि करिना चािहए।

रंिगीली- तो मुझे क्या मालूम था िक िवधवा की दशा इतनी हीन हो गयी ह? तुम्ही ने तो कहा था िक उसने परित की सारिी सम्परित िछपरा रिखिी ह औरि अपरनी गरिीबी का ढोग रिचकरि काम िनकालना चाहती ह। एक ही छंटी औरित ह। तुमने जो कहा, वह मैने मान िलया। भलाई करिके बुरिाई करिने मे तो लज्जा औरि संकोच ह। बुरिाई करिके भलाई करिने मे कोई संकोच नही। अगरि तुम ‘हा’ करि आये होते औरि मै ‘नही’ करिने को कहती, तो तुमहारिा संकोच उिचत था। ‘नही’ करिने के बाद ‘हा’ करिने मे तो अपरना बडपरपरन ह।

भाल- तुमहे बडपरपरन मालूम होता हो, मुझे तो लुच्चापरन ही मालूम होता ह। िफरि तुमने यह कैसे मान िलया िक मैने वकीलाइन के िवषय मे जो बात कही थी, वह झूठी थी! क्या वह परत्र देखिकरि? तुम जैसी खिुद सरिल हो, वैसे ही दूसरे को भी सरिल समझती हो।

रंिगीली- इस परत्र मे बनावट नही मालूम होती। बनावट की बात िदल मे चुभती नही। उसमे बनावट की

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गंध अवश्य रिहती ह।भाल- बनावट की बात तो ऐसी चुभती ह िक सच्ची बात उसके सामने िबलकुल फीकी मालूम होती ह।

यह िकस्से-कहािनयां िलखिने वालेक िजनकी िकताबे परढ-परढकरि तुम घंटो रिोती हो, क्या सच्ची बाते िलखिते हैं? सरिासरि झूठ का तूमारि बाधते ह। यह भी एक कला ह।

रंिगीली- क्यो जी, तुम मुझसे भी उडते हो! दाई से पेट िछपराते हो? मै तुम्हारिी बाते मान जाती हंू, तो तुम समझते हो, इसे चकमा िदया। मगरि मै तुमहारिी एक-एक नस परहचानती हंू। तुम अपरना ऐब मेरे िसरि मढकरि खिुद बेदाग बचना चहाते हो। बोलो, कुछ झूठ कहती हंू, जब वकील साहब जीते थ, जो तुमने सोचा था िक ठहरिाव की जरूरित ही क्या ह, वे खिुद ही िजतना उिचत समेझेगे देगे, बिल्क िबना ठहरिाव के औरि भी जयादा िमलने की आशा होगी। अब जो वकील साहब का देहान्त हो गया, तो तरिह-तरिह के हीलेक-हवालेक करिने लगे। यह भलमनसी

नही, छोटापरन ह, इसका इल्जाम भी तुमहारे िसरि ह। मै। अब शादी-बयाह के नजीक न जाऊंगी। तुमहारिी जैसी इच्छा हो, करिो। ढोगी आिदमयो से मुझे िचढ ह। जो बात करिो, सफाई से करिो, बुरिा हो या अच्छा । ‘हाथी के दात खिाने के औरि िदखिाने के औरि’ वाली नीित पररि चलना तुम्हे शोभा नही देता। बोलो अब भी वहां शादी करिते हो या नही?

भाला- जब मै बेईमान, दगाबाज औरि झूठा ठहरिा, तो मुझसे परूछना ही क्या! मगरि खिूब परहचानती हो आिदमयो को! क्या कहना ह, तुम्हारिी इस सूझ-बूझ की, बलैया लेक लेक!

रंिगीली- हो बडे हयादारि, अब भी नही शरिमाते। ईमान से कहो, मैने बात ताड ली िक नही?भाल-अजी जाओ, वह दूसरिी औरिते होती ह जो मदों को परहचानती ह। अब तक मै यही समझता था िक

औरितो की दृषिष बडी सूक्ष्म होती ह, पररि आज यह िवश्वास उठ गया औरि महात्माआं ने औरितो के िवषय मे जो तत्व की बाते कही ह, उनको मानना परडा।

रंिगीली- जरिा आईने मे अपरनी सूरित तो देखि आआं, तुम्हे मेरिी कमस ह। जरिा देखि लो, िकतना झेपे हुए हो।भाल- सच कहना, िकतना झेपरा हुआ हंू?रंिगीली- इतना ही, िजतना कोई भलामानस चोरि चोरिी खिुल जाने पररि झेपरता ह।भाल- खिरैि, मैं झंपरा ही सही, पररि शादी वहा न होगी।रंिगीली- मेरिी बला से, जहा चाहो करिो। क्यो, भुवन से एक बारि क्यो नही परूछ लेकते?भाल- अच्छी बात ह, उसी पररि फैसला रिहा।रंिगीली- जरिा भी इशारिा न करिना!भाल- अजी, मै उसकी तरिफ ताकूंगा भी नही।संयोग से ठीक इसी वक्त भुवनमोहन भी आ परंहुचा। ऐसे सुन्दरि, सुडौल, िबलष युवक कालेकजो मे बहुत कम

देखिने मे आते ह। िबलकुल मां को परडा था, वही गोरिा-िचटा रंिग , वही परतलेक-परतलेक गुलाब की परत्ती के-से होंठ, वही चौडा, माथा, वही बडी-बडी आंखे, डील-डौल बापर का-सा था। ऊंचा कोट, ब्रीचेज, टाई, बटू , हट उस पररि खिूब ल रिहे थ। हाथ मे एक हाकी-िस्टक थी। चाल मे जवानी का गुरूरि था, आंखिो मे आत्मगौरिव।

रंिगीली ने कहा-आज बडी देरि लगाई तुमने? यह देखिो, तुमहारिी ससुरिाल से यह खित आया ह। तुम्हारिी सास ने िलखिा ह। साफ-साफ बतला दो, अभी सबेरिा ह। तुमहे वहा शादी करिना मंजूरि ह या नही?

भवु न- शादी करिनी तो चािहए अम्मा, पररि मै करूंगा नही।रंिगीली- क्यों?भुवन- कही ऐसी जगह शादी करिवाइये िक खिूब रूपरये िमलेक। औरि न सही एक लाखि का तो डौल हो। वहा

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अब कया रिखिा ह? वकील साहब रिहे ही नही, बुिढया के परास अब क्या होगा?रंिगीली- तुमहे ऐसी बाते मुंह से िनकालते शमर्म नही आती?भुवन- इसमे शमर्म की कौन-सी बात ह? रूपरये िकसे काटते ह? लाखि रूपरये तो लाखि जन्म मे भी न जमा करि

पराऊंगा। इस साल परास भी हो गया, तो कम-से-कम पराच साल तक रूपरये की सूरित नजरि न आयेगी। िफरि सौ दो-सौ रिपरये महीने कमाने लगूंगा। पराच-छ: तक परंहुचते- परंहुचते उम्र के तीन भाग बीत जायंेगे। रूपरये जमा करिने की नौबत ही न आयेगी। दिनया का कुछ मजा न उठा सकूंगा। िकसी धनी की लडकी से शादी हो जाती , तो चैन से कटती। मै जयादा नही चाहता, बस एक लाखि हो या िफरि कोई ऐसी जायदादवाली बेवा िमलेक, िजसके एक ही लडकी हो।

रंिगीली- चाहे औरित कैसे ही िमलेक।भूवन- धन सारे ऐबो को िछपरा देगा। मुझे वह गािलया भी सुनाये, तो भी चूं न करूं । दधारि गाय की लात

िकसे बुरिी मालूम होती ह?बाबू साहब ने प्रशंसा-सूचक भाव से कहा-हमे उन लोगो के साथ सहानुिभत ह औरि द:खिी ह िक ईश्वरि ने

उन्हे िवपरित मे डाला, लेकिकन बुिद्ध से काम लेककरि ही कोई िनश्चय करिना चािहए। हम िकतने ही फटे-हालो जाये, िफरि भी अच्छी-खिासी बारिात हो जायेगी। वहा भोजन का भी िठकाना नही। िसवा इसके िक लोग हसेंगे औरि कोई नतीजा न िनकलेकगा।

रंिगीली- तुम बापर-परूत दोनो एक ही थैली के चटे-बटे हो। दोनो उस गरिीब लडकी के गलेक पररि छुरिी फेरिना चाहते हो।

भुवन-जो गरिीब ह, उसे गरिीबो ही के यहा सम्बन्ध करिना चािहए। अपरनी हिसयत से बढकरि.....।रंिगीली- चुपर भी रिह, आया ह वहा से हिसयत लेककरि। तुम कहां के धना-सेठ हो? कोई आदमी द्वारि पररि आ

जाये, तो एक लोटे परानी को तरिस जाये। बडे हिसयतवालेक बने हो!यह कहकरि रंिगीली वहा से उठकरि रिसोई का प्रबन्ध करिने चली गयी।भुवनमोहन मुसकरिाता हुआ अपरने कमरे मे चला गया औरि बाबू साहब मूछो पररि ताव देते हुए बाहरि आये

िक मोटेरिाम को अिन्तम िनश्चय सुना दे। पररि उनका कही परता न था।मोटेरिामजी कुछ देरि तक तो कहारि की रिाह देखिते रिहे, जब उसके आने मे बहुत देरि हुई, तो उनसे बैठा न

गया। सोचा यहा बैठे-बैठे काम न चलेकगा, कुछ उद्योग करिना चािहए। भाग्य के भरिोसे यहा अडी िकये बैठे रिहे, तो भूखिो मरि जायेगे। यहा तुम्हारिी दाल नही गलने की। चुपरके से लकडी उठायी औरि िजधरि वह कहारि गया था , उसी तरिफ चलेक। बाजारि थोडी

ही दूरि पररि था, एक कण मे जा परहंुचे। देखिा, तो बड्डढा एक हलवाई की दकान पररि बैठा िचलम परी रिहा था। उसे देखिते ही आपरने बडी बेतकललुफी से कहा-अभी कुछ तैयारि नही ह क्या महरिा? सरिकारि वहा बैठे िबगड रिहे ह िक जाकरि सो गया या ताडी परीने लगा। मैने कहा-‘सरिकारि यह बात नही, बुढडा आदमी ह, आते ही आते तो आयेगा।’ बडे िविचत्र जीव ह। न जाने इनके यहा कैसे नौकरि िटकते ह।

कहारि-मुझे छोडकरि आज तक दूसरिा कोई िटका नही, औरि न िटकेगा। साल-भरि से तलब नही िमली। िकसी को तलब नही देते। जहा िकसी ने तलब मागी औरि लगे डाटने। बेचारिा नौकरिी छोडकरि भाग जाता ह। वे दोनो आदमी, जो परंखिा झल रिहे थ, सरिकारिी नौकरि ह। सरिकारि से दो अदरिली िमलेक ह न! इसी से परडे हुए ह। मै भी सोचता हंू, जैसा तेरिा ताना- बाना वैसे मेरिी भरिनी! इस साल कट गये ह, साल दो साल औरि इसी तरिह कट जायेगे।

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मोटेरिाम- तो तुम ही अकेलेक हो? नाम तो कई कहारिो का लेकते ह।कहारि- वह सब इन दो-तीन महीनो के अन्दरि आये औरि छोड-छोड करि चलेक गये। यह अपरना रिोब जमाने

को अभी तक उनका नाम जपरा करिते ह। कही नौकरिी िदलाइएगा, चलू?ंमोटेरिाम- अजी, बहुत नौकरिी ह। कहारि तो आजकल ढूंढे नही िमलते। तुम तो परुरिाने आदमी हो, तुमहारे

िलए नौकरिी की क्या कमी ह। यहा कोई ताजी चीज? मुझसे कहने लगे, िखिचडी बनाइएगा या बाटी लगाइएगा? मैने कह िदया-सरिकारि, बुढडा आदमी ह, रिात को उसे मेरिा भोजन बनाने मे कष्टि होगा, मै कुछ बाजारि ही से खिा लूंगा। इसकी आपर िचन्ता न करें।

बोलेक, अच्छी बात ह, कहारि आपरको दकान पररि िमलेकगा। बोलो साहजी, कुछ तरि माल तैयारि ह?लडडू तो ताजे मालूम होते ह तौल दो एक सेरि भरि। आ जाऊं वही ऊपररि न?

यह कहकरि मोटेरिामजी हलवाई की दकान पररि जा बैठे औरि तरि माल चखिने लगे। खिूब छककरि खिाया। ढाई-तीन सेरि चट करि गये। खिाते जाते थ औरि हलवाई की तारिीफ करिते जाते थ- शाहजी, तुम्हारिी दकान का जैसा नाम सुना था, वैसा ही माल भी पराया। बनारिसवालेक ऐसे रिसगुल्लेक नही बना पराते, कलाकनद अच्छी बनाते ह, पररि तुम्हारिी उनसे बुरिी नही, माल डालने

से अच्छीचीज नही बन जाती, िवद्या चिहए।हलवाई-कुछ औरि लीिजए महारिाज! थोडी-सी रिबडी मेरिी तरिफ से लीिजए।मोटेरिाम-इच्छा तो नही ह, लेकिकन दे दो पराव-भरि।हलवाई-पराव-भरि क्या लीिजएगा? चीज अच्छी ह, आध सेरि तो लीिजए।खिूब इच्छापरूणर्म भोजन करिके परंिडतजी ने थोडी देरि तक बाजारि की सरैि की औरि नौ बजते-बजते मकान पररि

आये। यहा सनाटा-सा छाया हुआ था। एक लालटेन जल रिही थी। अपरने चबूतरे पररि िबसतरि जमाया औरि सो गये।सबेरे अपरने िनयमानुसारि कोई आठ बजे उठे, तो देखिा िक बाबूसाहब टहल रिहे ह। इनको जगा देखिकरि वह

परायलागन करि बोलेक-महारिाज, आज रिात कहा चलेक गये? मै बडी रिात तक आपरकी रिाह देखिता रिहा। भोजन का सब सामान बडी देरि तक रिखिा रिहा। जब आपर न आये, तो रिखिवा िदया गया। आपरने कुछ भोजन िकया था। या नही?

मोटे- हलवाई की दकान मे कुछ खिा आया था।भाल- अजी परूरिी-िमठाई मे वह आनन्द कहां, जो बाटी औरि दाल मे ह। दस-बारिह आने खिचर्म हो गये होगे,

िफरि भी पेट न भरिा होगा, आपर मेरे मेहमान ह, िजतने परैसे लगे हो लेक लीिजएगा।मोटे- आपर ही के हलवाई की दकू ान पररि खिाया था, वह जो नुकड पररि बैठता ह।भाल- िकतने परैसे देने परडे?मोटे- आपरके िहसाब मे िलखिा िदये ह।भाल- िजतनी िमठाइया ली हो, मुझे बता दीिजए, नही तो परीछे से बेईमानी करिने लगेगा।एक ही ठग ह।मोटे- कोई ढाई सरे िमठाई थी औरि आधा सरे रिबडी।बाबू साहब ने िवस्फिरित नेत्रो से परंिडतजी को देखिा, मानो कोई अचम्भे की बात सुनी हो। तीन सेरि तो

कभी यहां महीने भरि का टोटल भी न होता था औरि यह महाशय एक ही बारि मे कोई चारि रूपरये का माल उडा गये। अगरि एक आध िदन औरि रिह गये, तो या बैठ जायेगी।

पेट ह या शैतान की कब्र? तीन सरे ! कुछ िठकाना ह! उिद्वग्न दशा मे दौडे हुए अन्दरि गये औरि

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रंिगीली से बोल-कुछ सुनती हो, यह महाशय कल तीन सेरि िमठाई उडा गये। तीन सरे परक्की तौल!रंिगीलीबाई ने िवसिमत होकरि कहा-अजी नही, तीन सेरि भला क्या खिा जायेगा! आदमी ह या बैल?भाल- तीन सरे तो अपरने मुंह से कह रिहा ह। चारि सेरि से कम न होगा, परक्की तौल!रंिगीली- पेट मे सनीचरि ह क्या?भाल- आज औरि रिह गया तो छ: सरे पररि हाथ फेरेगा।रंिगीली- तो आज रिहे ही क्यों, खित का जवाब जो देना देकरि िवदा करिो। अगरि रिहे तो साफ कह देना िक

हमारे यहा िमठाई मुफ्त नही आती। िखिचडी बनाना हो, बनावे, नही तो अपरनी रिाह लेक। िजनहे ऐसे पेटुआं को िखिलाने से मुिकत िमलती हो, वे िखिलाये हमे ऐसी मुिक्त न चािहये!

मगरि परंिडत िवदा होने को तैयारि बैठे थ, इसिलए बाबूसाहब को कौशल से काम लेकनेकी जरूरित न परडी।परूछा- क्या तैयारिी करि दी महारिाज?मोटे- हां सरिकारि, अब चलूंगा। नौ बजे की गाडी िमलेकगी न?भाल- भला आज तो औरि रििहए।यह कहते-कहते बाबूजी को भय हुआ िक कही यह महारिाज सचमुच न रिह जाये, इसिलये वाक्य को यों

परूरिा िकया- हां, वहा भी लोग आपरका इन्तजारि करि रिहे होगे।मोटे- एक-दो िदन की तो कोई बात न थी औरि िवचारि भी यही था िक ितवेणी का स्नान करूंगा , पररि बुरिा

न मािनए तो कहंू, आपर लोगो मे ब्राह्मणो के प्रित लेकशमात भी श्रदा नही ह हमारे जजमान ह, जो हमारिा मुंह जोहते रिहते ह िक परंिडतजी कोई आज्ञा दे, तो उसका परालन करे। हम उनके द्वारि परंहुच जाते ह, तो वे अपरना धन्य भाग्य समझते ह औरि सारिा घरि-छोटे से बडे तक हमारिी सेवा-सत्कारि मे मग्न हो जाते ह। जहा अपरना आदरि नही, वहा एक परल भी ठहरिना असहाय ह। जहा ब्राह्मण का आदरि नही, वहा कल्याण नही हो सकता।

भाल- महारिाज, हमसे तो ऐसा अपररिाध नही हुआ।मोटे- अपररिाध नही हुआ! औरि अपररिाध कहते िकसे ह? अभी आपर ही ने घरि मे जाकरि कहा िक यह महाशय

तीन सेरि िमठाई चट करि गये, परक्की तौल। आपरने अभी खिानेवालेक देखे कहा? एक बारि िखिलाइये तो आंखे खिुल जाये। ऐसे-ऐसे महान परुरुष परडे ह, जो परसेरिी भरि िमठाई खिा जाये औरि डकारि तक न लेक। एक-एक िमठाई खिाने के िलए हमारिी िचरिौरिी की जाती ह, रूपरये िदये जाते ह। हम िभक्षुक बाहाण नही ह, जो आपरके द्वारि पररि परडे रिहे। आपरका नाम सुनकरि आये थ, यह न जानते थ िक यहा मेरे भोजन के भी लालेक परडेगे। जाइये, भगवान् आपरका कल्याण करे!

बाबू साहब ऐसा झेपे िक मुंह से बात न िनकली। िजन्दगी भरि मे उन पररि कभी ऐसी फटकारि न परडी थी। बहुत बाते बनायी-आपरकी चचा न थी, एक दूसरे ही महाशय की बात थी, लेकिकन परंिडतजी का क्रोध शांत न हुआ। वह सब कुछ सह सकते थ, पररि अपरने पेट की िनन्दा न सह सकते थ। औरितो को रूपर की िनन्दा िजतनी अिप्रय लगती ह, उससे कही अिधक अिप्रय परुरिषो को अपरने पेट की िनन्दा लगती ह। बाबू साहब मनाते तो थ; पररि धडका भी समाया हुआ था िक यह िटक न जाये। उनकी कृपरणता का पररिदा खिलु गया था, अब इसमे सन्देह न था। उस परदे को ढाकना जरूरिी था। अपरनी कृपरणता को िछपराने के िलए उन्होने कोई बात उठा न रिखिी पररि होनेवाली बात होकरि रिही। परछता रिहे थ िक कहां से घरि मे इसकी बात कहने गया औरि कहा भी तो उच्च स्वरि मे। यह दषट भी कान लगाये सुनता रिहा, िकन्तु अब परछताने से क्या हो सकता था? न जाने िकस मनहूस की सूरित देखिी थी यह िवपरित गलेक परडी। अगरि इस वकत यहा से रुष्टि होकरि चला गया; तो वहा जाकरि बदनाम करेगा औरि मेरिा

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सारिा कौशल खिुल जायेगा। अब तो इसका मुंह बंद करि देना ही परडेगा।यह सोच-िवचारि करिते हुए वह घरि मे जाकरि रंिगीलीबाई से बोलेक-इस दष्टि ने हमारिी- तुम्हारिी बाते सुन

ली। रूठकरि चला जा रिहा ह।रंिगीली-जब तुम जानते थ िक द्वारि पररि खिडा ह, तो धीरे से क्यों न बोलेक?भाल-िवपरित आती ह; तो अकेलेक नही आती। यह क्या जानता था िक वह द्वारि पररि कान लगाये खिडा ह।रंिगीली- न जाने िकसका मुंह देखि था?भाल-वही दष्टि सामने लेकटा हुआ था। जानता तो उधरि ताकता ही नही। अब तो इसे कुछ दे-िदलाकरि रिाजी

करिना परडेगा।रंिगीली- ऊंह, जाने भी दो। जब तुमहे वहा िववाह ही नही करिना ह, तो क्या पररिवाह ह? जो चाहे समझे,

जो चाहे कहे।भाल-यों जान न बचेगी। आआं दस रिपरये िवदाई के बहाने दे दं।ू ईश्वरि िफरि इस मनहूस की सूरित न

िदखिाये।रंिगीली ने बहुत अछताते-परछताते दस रिपरये िनकालेक औरि बाबू साहब ने उनहे लेक जाकरि परंिडतजी के चरिणो

पररि रिखि िदया। परंिडतजी ने िदल मे कहा-धत्तैरे मकखिीचूस की! ऐसा रिगडा िक याद करिोगे। तुम समझते होगे िक दस रुपरये देकरि इसे उल्लू बना लूंगा। इस फेरि मे न रिहना। यहां तुम्हारिी नस-नस परहचानते ह। रुपरये जेब मे रिखि िलये औरि आशीवाद देकरि अपरनी रिाह ली।

बाबू साहब बडी देकरि तक खिडे सोच रिहे थ-मालूम नही, अब भी मुझे कृपरण ही समझ रिहा ह या पररिदा ढंक गया। कही ये रुपरये भी तो परानी मे नही िगरि परडे।

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भाग २कल्याणी के सामने अब एक िवषम समसया आ खिडी हुई। परित के देहान्त के बाद उसे अपरनी दरिवस्था का

यह परहला औरि बहुत ही कडवा अनुभव हुआ। दिरिद िवधवा के िलए इससे बडी औरि क्या िवपरित हो सकती ह िक जवान बेटी िसरि पररि सवारि हो? लडके नंगे परांव परढने जा सकते ह, चौका-बतरिन भी अपरने हाथ से िकया जा सकता ह, रूखिा-सूखिा खिाकरि िनवाह िकया जा सकता ह, झोपरडे मे िदन काटे जा सकते ह, लेकिकन युवती कन्या घरि मे नही बैठाई जा सकती। कलयाणी को भालचनद पररि ऐसा कोध आता था िक सवयं जाकरि उसके मुंह मे कािलखि लगाऊं , िसरि के बाल नोच लूं, कहंू िक तू अपरनी बात से िफरि गया, तू अपरने बापर का बेटा नही। परंिडत मोटेरिाम ने उनकी कपरट-लीला का नग्न वृषतानत सुना िदया था। वह इसी क्रोध मे भरिी बैठी थी िक कृषणा खेलती हुई आयी औरि बोली-कै िदन मे बारिात आयेगी अम्मा? परिडत तो आ गये।

कल्याणी- बारिात का सपरना देखि रिही ह क्या?कृष्णा-वही चन्दरि तो कह रिहा ह िक-दो-तीन िदन मे बारिात आयेगी, क्या न आयेगी अम्मा?कल्याणी-एक बारि तो कह िदया, िसरि क्यों खिाती ह?कृष्णा-सबके घरि तो बारिात आ रिही ह, हमारे यहां क्यों नही आती?कल्याणी-तेरे यहा जो बारिात लाने वाला था, उसके घरि मे आग लग गई।कृष्णा-सच, अममा! तब तो सारिा घरि जल गया होगा। कहा रिहते होगे? बहन कहां जाकरि रिहेगी?कल्याणी-अरे परगली! तू तो बात ही नही समझती। आग नही लगी। वह हमारे यहा ब्याह न करेगा।कृष्णा-यह क्यों अम्मा? परहलेक तो वंही ठीक हो गया था न?कल्याणी-बहुत से रुपरये मागता ह। मेरे परास उसे देने को रुपरये नही ह।कृष्णा-क्या बडे लालची ह, अम्मा?कल्याणी-लालची नही तो औरि क्या हैं। परूरिा कसाई िनदरियी, दगाबाज।कृष्णा-तब तो अम्मा, बहुत अच्छा हुआ िक उसके घरि बहन का ब्याह नही हुआ। बहन उसके साथ कैसे

रिहती? यह तो खिुश होने की बात ह अम्मा, तुम रंिज क्यों करिती हो?कल्याणी ने परुत्री को सनेहमयी दृषिष से देखिा। इनका कथन िकतना सत्य ह? भोलेक शब्दों मे समस्या का

िकतना मािमक िनरूपरण ह? सचमुच यह ते प्रसन्न होने की बात ह िक ऐसे कुपरात्रों से सम्बन्घ नही हुआ, रंिज की कोई बात नही। ऐसे कुमानुसो के बीच मे बेचारिी िनमर्मला की न जाने क्या गित होती अपरने नसीबो को रिोती। जरिा सा घी दाल मे अिधक परड जाता, तो सारे घरि मे शोरि मच जाता, जरिा खिाना ज्यादा परक जाता, तो सास दिनया िसरि पररि उठा लेकती। लडका भी ऐसा लोभी ह। बडी अच्छी बात हुई, नही, बेचारिी को उम्र भरि रिोना परडता।

कल्याणी यहां से उठी, तो उसका हृदय हलका हो गया था।लेकिकन िववाह तो करिना ही था औरि हो सके तो इसी साल, नही तो दूसरे साल िफरि नये िसरे से तैयािरिया

करिनी परडेगी। अब अच्छे घरि की जरिरित न थी। अच्छे वरि की जरूरित न थी। अभािगनी को अच्छा घरि-वरि कहा िमलता! अब तो िकसी भाित िसरि का बोझा उतारिना था, िकसी भाित लडकी को परारि लगाना था, उसे कुएं मे झोकना था। यह रूपरवती ह, गुणशीला ह, चतुरि ह, कुलीन ह, तो हुआ करे, दहेज नही तो उसके सारे गुण दोष ह, दहेज हो तो सारे दोष गुण ह। प्राणी का कोई मूलय नही, केवल देहज का मूल्य ह। िकतनी िवषम भगयलीला ह!

कलयाणी का दोष कुछ कम न था। अबला औरि िवधवा होना ही उसे दोषो से मुक्त नही करि सकता। उसे अपरने लडके अपरनी लिडकयो से कही ज्यादा प्यारे थ। लडके हल के बैल ह, भूसे खिली पररि परहला हक उनका ह,

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उनके खिाने से जो बचे वह गायो का! मकान था, कुछ नकद था, कई हजारि के गहने थ, लेकिकन उसे अभी दो लडको का परालन-परोषण करिना था, उनहे परढाना-िलखिाना था। एक कन्या औरि भी चारि-पराच साल मे िववाह करिने योगय हो जायेगी। इिसलए वह कोई बडी रिकम दहेज मे न दे सकती थी, आिखिरि लडकों को भी तो कुछ चािहए। वे क्या समझेगे िक हमारिा भी कोई बापर था।

परंिडत मोटेरिाम को लखिनऊ से लौटे परन्दह िदन बीत चुके थ। लौटने के बाद दूसरे ही िदन से वह वरि की खिोज मे िनकलेक थ। उनहोने प्रण िकया था िक मै लखिनऊ वालो को िदखिा दूंगा िक संसारि मे तुमही अकेलेक नही हो , तुमहारे ऐसे औरि भी िकतने परडे हुए ह। कलयाणी रिोज िदन िगना करिती थी। आज उसने उन्हे परत्र िलखिने का िनश्चय िकया औरि कलम-दवात लेककरि बैठी ही थी िक परंिडत मोटेरिाम ने परदापरर्मणरि िकया।

कल्याणी-आइये परंिडतजी, मै तो आपरको खित िलखिने जा रिही थी, कब लौटे?मोटेरिाम-लौटा तो प्रात:काल ही था, पररि इसी समय एक सेठ के यहा से िनमन्त्रण आ गया। कई िदन से तरि

माल न िमलेक थ। मैने कहा िक लगे हाथ यह भी काम िनपरटाता चलूं। अभी उधरि ही से लौटा आ रिहा हंू , कोई पराच सौ बहाणो को परंगत थी।

कल्याणी-कुछ कायर्म भी िसद्ध हुआ या रिास्ता ही नापरना परडा।मोटेरिाम- कायर्म क्यो न िसद्ध होगा? भला, यह भी कोई बात ह? परांच जगह बातचीत करि आया हंू। परांचो

की नकल लाया हंू। उनमे से आपर चाहे िजसे परसन्द करे। यह देिखिए इस लडके का बापर डाक के सीगे मे सौ रिपरये महीने का नौकरि ह। लडका अभी कालेकज मे परढ रिहा ह। मगरि नौकरिी का भरिोसा ह, घरि मे कोई जायदाद नही। लडका होनहारि मालूम होता ह। खिानदान भी अचछा ह दो हजारि मे बात तय हो जायेगी। मागते तो यह तीन हजारि ह।

कलयाणी- लडके के कोई भाई ह?मोटे-नही, मगरि तीन बहने ह औरि तीनो कुंवारिी। माता जीिवत ह। अच्छा अब दूसरिी नकल दीिजये। यह

लडका रेल के सीगे मे परचास रिपरये महीना पराता ह। मा-बापर नही ह। बहुत ही रूपरवान् सुशील औरि शरिीरि से खिूब हृष-परुष्टि कसरिती जवान ह। मगरि खिानदान अच्छा नही, कोई कहता ह, मा नाइन थी, कोई कहता ह, ठकुरिाइन थी। बापर िकसी िरियासत मे मुखितारि थ। घरि पररि थोडी सी जमीदारिी ह, मगरि उस पररि कई हजारि का कजर्म ह। वहा कुछ

लेकना-देना न परडेगा। उम कोई बीस साल होगी।कलयाणी-खिानदान मे दाग न होता, तो मंजूरि करि लेकती। देखिकरि तो मकखिी नही िनगली जाती।मोटे-तीसरिी नकल देिखिए। एक जमीदारि का लडका ह, कोई एक हजारि सालाना नफा ह। कुछ खेती-बारिी

भी होती ह। लडका परढ-िलखिा तो थोडा ही ह, कचहरिी-अदालत के काम मे चतुरि ह। दहाजू ह, परहली स्त्रिी को मरे दो साल हुए। उससे कोई संतान नही, लेकिकन रिहना-सहन, मोटा ह। परीसना-कूटना घरि ही मे होता ह।

कलयाणी- कुछ देहज मागते ह?मोटे-इसकी कुछ न परूिछए। चारि हजारि सुनाते ह। अच्छा यह चौथी नकल िदये।लडका वकील ह, उम कोई परैतीस साल होगी। तीन-चारि सौ की आमदनी ह। परहली स्त्रिी मरि चुकी ह उससे

तीन लडके भी ह। अपरना घरि बनवाया ह। कुछ जायदाद भी खिरिीदी ह। यहा भी लेकन-देन का झगडा नही ह।कलयाणी- खिानदान कैसा ह?मोटे-बहुत ही उतम, परुरिाने रिईस ह। अच्छा, यह पराचवी नकल िदए। बापर का छापराखिाना ह। लडका परढा

तो बी. ए. तक ह, पररि उस छापेखिाने मे काम करिता ह। उम अठारिह साल की होगी। घरि मे प्रैस के िसवाय कोई

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जायदाद नही ह, मगरि िकसी का कजर्म िसरि पररि नही। खिानदान न बहुत अच्छा ह, न बुरिा। लडका बहुत सुन्दरि औरि सच्चिरित ह। मगरि एक हजारि से कम मे मामला तय न होगा, मागते तो वह तीन हजारि ह। अब बताइए, आपर

कौन-सा वरि परसन्द करिती ह?कलयाणी-आपरको सबों मे कौन परसन्द ह?मोटे-मुझे तो दो वरि परसन्द ह। एक वह जो रेलवई मे ह औरि दूसरिा जो छापेखिाने मे काम करिता ह।कलयाणी-मगरि परहलेक के तो खिानदान मे आपर दोष बताते ह?मोटे-हा, यह दोष तो ह। छापेखिाने वालेक को ही रिहने दीिजये।कलयाणी-यहा एक हजारि देने को कहां से आयेगा? एक हजारि तो आपरका अनुमान ह, शायद वह औरि मुंह

फैलाये। आपर तो इस घरि की दशा देखि ही रिहे ह, भोजन िमलता जाये, यही गनीमत ह। रुपरये कहां से आयेगे? जमीदारि साहब चारि हजारि सुनाते ह, डाक बाबू भी दो हजारि का सवाल करिते ह। इनको जाने दीिजए। बस, वकील साहब ही बच सकते ह। परैतीस साल की उम्र भी कोई जयादा नही। इन्ही को क्यो न रििखिए।

मोटेरिाम-आपर खिूब सोच-िवचारि लेक। मै यो आपरकी मरिजी का ताबेदारि हंू। जहा किहएगा वहा जाकरि टीका करि आऊंगा। मगरि हजारि का मुंह न देिखिए, छापेखिाने वाला लडका रित्न ह। उसके साथ कन्या का जीवन सफल हो जाएगा। जैसी यह रूपर औरि गुण की परूरिी ह, वैसा ही लडका भी सुन्दरि औरि सुशील ह।

कलयाणी-परसन्द तो मुझे भी यही ह महारिाज, पररि रूपरये िकसके घरि से आये! कौन देने वाला ह! ह कोई दानी? खिानेवालेक खिा-परीकरि चंपरत हुए। अब िकसी की भी सूरित नही िदखिाई देती, बिल्क औरि मुझसे बुरिा मानते ह िक हमे िनकाल िदया। जो बात अपरने बस के बाहरि ह, उसके िलए हाथ ही क्यो फैलाऊं? सन्तान िकसको परयारिी नही होती? कौन उसे सुखिी नही देखिना चाहता? पररि जब अपरना काबू भी हो। आपर ईश्वरि का नाम लेककरि वकील साहब को टीका करि आइये। आयु कुछ अिधक ह, लेकिकन मरिना-जीना िविध के हाथ ह। परैतीस साल का आदमी बुढ्डा नही कहलाता। अगरि लडकी के भाग्य मे सुखि भोगना बदा ह, तो जहा जायेगी सुखिी रिहेगी, द:खि भोगना ह, तो जहा जायेगी द:खि झेलेकगी। हमारिी िनमर्मला को बच्चो से प्रेम ह। उनके बच्चो को अपरना समझेगी। आपर शुभ मुहूतर्म देखिकरि टीका करि आये।

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अध्याय-३िनिर्मर्मला का िववाह हो गया। ससुरिाल आ गयी। वकील साहब का नाम था मुंशी तोतारिाम। सांवलेक रंिग के

मोटे-ताजे आदमी थ। उम्र तो अभी चालीस से अिधक न थी, पररि वकालत के किठन परिरिश्रम ने िसरि के बाल परका िदये थ। व्यायाम करिने का उन्हें अवकाश न िमलता था। वहां तक िक कभी कही घूमने भी न जाते, इसिलए तोंद िनकल आई थी। देह के स्थून होते हुए भी आये िदन कोई-न-कोई िशकायत रिहती थी। मंदिग्न औरि बवासीरि से तो उनका िचरिस्थायी सम्बन्ध था। अतएव बहुत फूंक-फूंककरि कदम रिखिते थ। उनके तीन लड़के थ। बड़ा मंसारिाम सोहल वषर्म का था, मंझला िजयारिाम बारिह औरि िसयारिाम सात वषर्म का। तीनों अंग्रेजी परढ़ते थ। घरि में वकील साहब की िवधवा बिहन के िसवा औरि कोई औरित न थी। वही घरि की मालिकन थी। उनका नाम था रुकिमणी औरि अवस्था परचास के ऊपररि थी। ससुरिाल में कोई न था। स्थायी रिीित से यही रिहती थी।

तोतारिाम दम्परित-िवज्ञान में कुशल थ। िनमर्मला के प्रसन्न रिखिने के िलए उनमें जो स्वाभािवक कमी थी, उसे वह उपरहारिों से परूरिी करिना चाहते थ। यद्यिपर वह बहु ही िमतव्ययी परुरूष थ, पररि िनमर्मला के िलए कोई-न-कोई तोहफा रिोज लाया करिते। मौके पररि धन की पररिवाइ न करिते थ। लड़के के िलए थोड़ा दूध आता था, पररि िनमर्मला के िलए मेवे, मुरिब्बे, िमठाइयां-िकसी चीज की कमी न थी। अपरनी िजन्दगी में कभी सैरि-तमाशे देखिने न गये थ, पररि अब छुिट्टयों में िनमर्मला को िसनेमा, सरिकस, एटरि, िदखिाने लेक जाते थ। अपरने बहुमूल्य समय का थोडा-सा िहस्सा उसके साथ बैंठकरि ग्रामोफोन बजाने में व्यतीत िकया करिते थ।

लेकिकन िनमर्मला को न जाने क्यों तोतारिाम के परास बैठने औरि हंसने-बोलने में संकोच होता था। इसका कदािचत् यह कारिण था िक अब तक ऐसा ही एक आदमी उसका िपरता था, िजसके सामने वह िसरि-झुकाकरि, देह चुरिाकरि िनकलती थी, अब उनकी अवस्था का एक आदमी उसका परित था। वह उसे प्रेम की वस्तु नही सम्मान की वस्तु समझती थी। उनसे भागती िफरिती, उनको देखिते ही उसकी प्रफुल्लता परलायन करि जाती थी।

वकील साहब को नके दम्परित्त-िवज्ञान न िसखिाया था िक युवती के सामने खिूब प्रेम की बातें करिनी चािहये। िदल िनकालकरि रिखि देना चिहये, यही उसके वशीकरिण का मुख्य मंत्र ह। इसिलए वकील साहब अपरने प्रेम-प्रदशर्मन में कोई कसरि न रिखिते थ, लेकिकन िनमर्मला को इन बातों से घृषणा होती थी। वही बातें, िजन्हें िकसी युवक के मुखि से सुनकरि उनका हृदय प्रेम से उन्मत्त हो जाता, वकील साहब के मुंह से िनकलकरि उसके हृदय पररि शरि के समान आघात करिती थी। उनमें रिस न था उल्लास न था, उन्माद न था, हृदय न था, केवल बनावट थी, घोखिा था औरि शुष्क, नीरिस शब्दाडम्बरि। उसे इत्र औरि तेल बुरिा न लगता, सैरि-तमाशे बुरे न लगते, बनाव-िसगारि भी बुरिा न लगता था, बुरिा लगता था, तो केवल तोतारिाम के परास बैठना। वह अपरना रूपर औरि यौवन उन्हें न िदखिाना चाहती थी, क्योंिक वहां देखिने वाली आंखें न थी। वह उन्हें इन रिसों का आस्वादन लेकने योग्य न समझती थी। कली प्रभात-समीरि ही के सपरशर्म से िखिलती ह। दोनों में समान सारिस्य ह। िनमर्मला के िलए वह प्रभात समीरि कहां था?

परहला महीना गुजरिते ही तोतारिाम ने िनमर्मला को अपरना खिजांची बना िलया। कचहरिी से आकरि िदन-भरि की कमाई उसे दे देते। उनका ख्याल था िक िनमर्मला इन रूपरयों को देखिकरि फूली न समाएगी। िनमर्मला बड़े शौक से इस परद का काम अंजाम देती। एक-एक परैसे का िहसाब िलखिती, अगरि कभी रूपरये कम िमलते, तो परूछती आज कम क्यों हैं। गृषहस्थी के सम्बन्ध में उनसे खिूब बातें करिती। इन्ही बातों के लायक वह उनको समझती थी। ज्योंही कोई िवनोद की बात उनके मुंह से िनकल जाती, उसका मुखि िलन हो जाता था।

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िनमर्मला जब वस्त्रिाभूष्णों से अलंकृत होकरि आइने के सामने खिड़ी होती औरि उसमें अपरने सौंन्दयर्म की सुषमापरूणर्म आभा देखिती, तो उसका हृदय एक सतृषष्ण कामना से तड़पर उठता था। उस वक्त उसके हृदय में एक ज्वाला-सी उठती। मन में आता इस घरि में आग लगा दूं। अपरनी माता पररि क्रोध आता, पररि सबसे अिधक क्रोध बेचारे िनरिपररिाध तोतारिाम पररि आता। वह सदैव इस तापर से जला करिती। बांका सवारि लद्रदू-टटू्ट पररि सवारि होना कब परसन्द करेगा, चाहे उसे परैदल ही क्यों न चलना परड़े? िनमर्मला की दशा उसी बांके सवारि की-सी थी। वह उस पररि सवारि होकरि उड़ना चाहती थी, उस उल्लासमयी िवद्यत् गित का आनन्द उठाना चाहती थी, टटू्ट के िहनिहनाने औरि कनौितयां खिड़ी करिने से क्या आशा होती? संभव था िक बच्चों के साथ हंसने-खेलने से वह अपरनी दशा को थोड़ी देरि के िलए भूल जाती, कुछ मन हरिा हो जाता, लेकिकन रुकिमणी देवी लड़कों को उसके परास फटकने तक न देती, मानो वह कोई िपरशािचनी ह, जो उन्हें िनगल जाएेगी। रुकिमणी देवी का स्वभाव सारे संसारि से िनरिाला था, यह परता लगाना किठन था िक वह िकस बात से खिुश होती थी औरि िकस बात से नारिाज। एक बारि िजस बात से खिुश हो जाती थी, दूसरिी बारि उसी बात से जल जाती थी। अगरि िनमर्मला अपरने कमरे में बैठी रिहती, तो कहती िक न जाने कहां की मनहूिसन ह! अगरि वह कोठे पररि चढ़ जाती या महिरियों से बातें करिती, तो छाती परीटने लगती-न लाज ह, न शरिम, िनगोड़ी ने हया भून खिाई! अब क्या कुछ िदनों में बाजारि में नाचेगी! जब से वकील साहब ने िनमर्मला के हाथ में रुपरये-परैसे देने शुरू िकये, रुकिमणी उसकी आलोचना करिने पररि आरूढ़ हो गयी। उन्हें मालूम होता था। िक अब प्रलय होने में बहुत थोड़ी कसरि रिह गयी ह। लड़कों को बारि-बारि परैसों की जरूरित परड़ती। जब तक खिुद स्वािमनी थी, उन्हें बहला िदया करिती थी। अब सीधे िनमर्मला के परास भेज देती। िनमर्मला को लड़कों के चटोरिापरन अच्छा न लगता था। कभी-कभी परैसे देने से इन्कारि करि देती। रुकिमणी को अपरने वाग्बाण सरि करिने का अवसरि िमल जाता-अब तो मालिकन हुई ह, लड़के काहे को िजयंेगे। िबना मां के बच्चे को कौन परूछे? रूपरयों की िमठाइयां खिा जाते थ, अब धेलेक-धेलेक को तरिसते हैं। िनमर्मला अगरि िचढ़करि िकसी िदन िबना कुछ परूछे-ताछे परैसे दे देती, तो देवीजी उसकी दूसरिी ही आलोचना करिती-इन्हें क्या, लड़के मरे या िजयंे, इनकी बला से, मां के िबना कौन समझाये िक बेटा, बहुत िमठाइयां मत खिाओ। आयी-गयी तो मेरे िसरि जाएेगी, इन्हें क्या? यही तक होता, तो िनमर्मला शायद जब्त करि जाती, पररि देवीजी तो खिुिफया परुिलस से िसपराही की भांित िनमर्मला का परीछा करिती रिहती थी। अगरि वह कोठे पररि खिड़ी ह, तो अवश्य ही िकसी पररि िनगाह डाल रिही होगी, महरिी से बातें करिती ह, तो अवश्य ही उनकी िनन्दा करिती होगी। बाजारि से कुछ मंगवाती ह, तो अवश्य कोई िवलास वस्तु होगी। यह बरिाबरि उसके परत्र परढ़ने की चेष्टिा िकया करिती। िछपर-िछपरकरि बातें सुना करिती। िनमर्मला उनकी दोधरिी तलवारि से कांपरती रिहती थी। यहां तक िक उसने एक िदन परित से कहा-आपर जरिा जीजी को समझा दीिजए, क्यों मेरे परीछे परड़ रिहती हैं?

तोतारिाम ने तेज होकरि कह- तुम्हें कुछ कहा ह, क्या?

‘रिोज ही कहती हैं। बात मुंह से िनकालना मुिश्कल ह। अगरि उन्हें इस बात की जलन हो िक यह मालिकन क्यों बनी हुई ह, तो आपर उन्ही को रूपरये-परैसे दीिजये, मुझे न चािहये, यही मालिकन बनी रिहें। मैं तो केवल इतना चाहती हंू िक कोई मुझे ताने-मेहने न िदया करे।’

यह कहते-कहते िनमर्मला की आंखिों से आंसू बहने लगे। तोतारिाम को अपरना प्रेम िदखिाने का यह बहुत ही अच्छा मौका िमला। बोलेक-मैं आज ही उनकी खिबरि लूंगा। साफ कह दूंगा, मुंह बन्द करिके रिहना ह, तो रिहो, नही तो अपरनी रिाह लो। इस घरि की स्वािमनी वह नही ह, तुम हो। वह केवल तुम्हारिी सहायता के िलए हैं। अगरि सहायता करिने के बदलेक तुम्हें िदक करिती हैं, तो उनके यहां रिहने की जरूरित नही। मैंने सोचा था िक िवधवा हैं,

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अनाथ हैं, पराव भरि आटा खिायंेगी, परड़ी रिहेंगी। जब औरि नौकरि-चाकरि खिा रिहे हैं, तो वह तो अपरनी बिहन ही ह। लड़कों की देखिभाल के िलए एक औरित की जरूरित भी थी, रिखि िलया, लेकिकन इसके यह माने नही िक वह तुम्हारे ऊपररि शासन करें।

िनमर्मला ने िफरि कहा-लड़कों को िसखिा देती हैं िक जाकरि मां से परैसे मांगे, कभी कुछ-कभी कुछ। लड़के आकरि मेरिी जान खिाते हैं। घड़ी भरि लेकटना मुिश्कल हो जाता ह। डांटती हंू, तो वह आखें लाल-परीली करिके दौड़ती हैं। मुझे समझती हैं िक लड़कों को देखिकरि जलती ह। ईश्वरि जानते होंगे िक मैं बच्चों को िकतना प्यारि करिती हंू। आिखिरि मेरे ही बच्चे तो हैं। मुझे उनसे क्यों जलन होने लगी?

तोतारिाम क्रोध से कांपर उठे। बोल-तुम्हें जो लड़का िदक करे, उसे परीट िदया करिो। मैं भी देखिता हंू िक लौंडे शरिीरि हो गये हैं। मंसारिाम को तो में बोिडग हाउस में भेज दूंगा। बाकी दोनों को तो आज ही ठीक िकये देता हंू।

उस वक्त तोतारिाम कचहरिी जा रिहे थ, डांट-डपरट करिने का मौका न था, लेकिकन कचहरिी से लौटते ही उन्होंने घरि में रुिक्मणी से कहा-क्यों बिहन, तुम्हें इस घरि में रिहना ह या नही? अगरि रिहना ह, शान्त होकरि रिहो। यह क्या िक दूसरिों का रिहना मुिश्कल करि दो।

रुिक्मणी समझ गयी िक बहू ने अपरना वारि िकया, पररि वह दबने वाली औरित न थी। एक तो उम्र में बड़ी ितस पररि इसी घरि की सेवा में िजन्दगी काट दी थी। िकसकी मजाल थी िक उन्हें बेदखिल करि दे! उन्हें भाई की इस क्षुद्रता पररि आश्चयर्म हुआ। बोली-तो क्या लौंडी बनाकरि रिखेगे? लौंडी बनकरि रिहना ह, तो इस घरि की लौंडी न बनंूगी। अगरि तुम्हारिी यह इच्छा हो िक घरि में कोई आग लगा दे औरि मैं खिड़ी देखिा करूं , िकसी को बेरिाह चलते देखिूं; तो चुपर साध लूं, जो िजसके मन में आये करे, मैं िमट्टी की देवी बनी रिहंू, तो यह मुझसे न होगा। यह हुआ क्या, जो तुम इतना आपे से बाहरि हो रिहे हो? िनकल गयी सारिी बुिद्धमानी, कल की लौंिडया चोटी परकड़करि नचाने लगी? कुछ परूछना न ताछना, बस, उसने तारि खिीचा औरि तुम काठ के िसपराही की तरिह तलवारि िनकालकरि खिड़े हो गये।

तोता-सुनता हंू, िक तुम हमेशा खिुचरि िनकालती रिहती हो, बात-बात पररि ताने देती हो। अगरि कुछ सीखि देनी हो, तो उसे प्यारि से, मीठे शब्दों में देनी चािहये। तानों से सीखि िमलने के बदलेक उलटा औरि जी जलने लगता ह।

रुिक्मणी-तो तुम्हारिी यह मजी ह िक िकसी बात में न बोलूं , यही सही, िकन िफरि यह न कहना, िक तुम घरि में बैठी थी, क्यों नही सलाह दी। जब मेरिी बातें जहरि लगती हैं, तो मुझे क्या कुत्ते ने काटा ह, जो बोलूं? मसल ह- ‘नाटों खेती, बहुिरियों घरि।’ मैं भी देखिूं, बहुिरिया कैसे करि चलाती ह!

इतने में िसयारिाम औरि िजयारिाम स्कूल से आ गये। आते ही आते दोनों बुआजी के परास जाकरि खिाने को मांगने लगे।

रुिक्मणी ने कहा-जाकरि अपरनी नयी अम्मां से क्यों नही मांगते, मुझे बोलने का हुक्म नही ह।

तोता-अगरि तुम लोगों ने उस घरि में कदम रिखिा, तो टांग तोड़ दूंगा। बदमाशी पररि कमरि बांधी ह।

िजयारिाम जरिा शोखि था। बोला-उनको तो आपर कुछ नही कहते, हमी को धमकाते हैं। कभी परैसे नही देती।

िसयारिाम ने इस कथन का अनुमोदन िकया-कहती हैं, मुझे िदक करिोगे तो कान काट लूंगी। कहती ह िक

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नही िजया?

िनमर्मला अपरने कमरे से बोली-मैंने कब कहा था िक तुम्हारे कान काट लूंगी अभी से झूठ बोलने लगे?

इतना सुनना था िक तोतारिाम ने िसयारिाम के दोनों कान परकड़करि उठा िलया। लड़का जोरि से चीखि मारिकारि रिोने लगा।

रुिक्मणी ने दौड़करि बच्चे को मुंशीजी के हाथ से छुड़ा िलया औरि बोली- बस, रिहने भी दो, क्या बच्चे को मारि डालोगे? हाय-हाय! कान लाल हो गया। सच कहा ह, नयी बीवी पराकरि आदमी अन्धा हो जाता ह। अभी से यह हाल ह, तो इस घरि के भगवान ही मािलक हैं।

िनमर्मला अपरनी िवजय पररि मन-ही-मन प्रसन्न हो रिही थी, लेकिकन जब मुंशी जी ने बच्चे का कान परकड़करि उठा िलया, तो उससे न रिहा गया। छुड़ाने को दौड़ी, पररि रुिक्मणी परहलेक ही परहंुच गयी थी। बोली-परहलेक आग लगा दी, अब बुझाने दौड़ी हो। जब अपरने लड़के होंगे, तब आंखें खिुलेंगी। पररिाई परीरि क्या जानो?

िनमर्मला- खिड़े तो हैं, परूछ लो न, मैंने क्या आग लगा दी? मैंने इतना ही कहा था िक लड़के मुझे परैसों के िलए बारि-बारि िदक करिते हैं, इसके िसवाय जो मेरे मुंह से कुछ िनकला हो, तो मेरे आंखें फूट जाएं।

तोता-मैं खिुद इन लौंडों की शरिारित देखिा करिता हंू, अन्धा थोड़े ही हंू। तीनों िजद्दी औरि शरिीरि हो गये हैं। बड़े िमयां को तो मैं आज ही होस्टल में भेजता हंू।

रुिक्मणी-अब तक तुम्हें इनकी कोई शरिारित न सूझी थी, आज आंखें क्यों इतनी तेज हो गयी?

तोतारिाम- तुम्ही न इन्हें इतना शोखि करि रिखिा ह।

रुकिमणी- तो मैं ही िवष की गांठ हंू। मेरे ही कारिण तुम्हारिा घरि चौपरट हो रिहा ह। लो मैं जाती हंू , तुम्हारे लड़के हैं, मारिो चाहे काटो, न बोलूंगी।

यह कहकरि वह वहां से चली गयी। िनमर्मला बच्चे को रिोते देखिकरि िवहृल हो उठी। उसने उसे छाती से लगा िलया औरि गोद में िलए हुए अपरने कमरे में लाकरि उसे चुमकारिने लगी, लेकिकन बालक औरि भी िससक-िससक करि रिोने लगा। उसका अबोध हृदय इस प्यारि में वह मातृष-स्नेह न पराता था, िजससे दैव ने उसे वंिचत करि िदया था। यह वात्सल्य न था, केवल दया थी। यह वह वस्तु थी, िजस पररि उसका कोई अिधकारि न था, जो केवल िभक्षा के रूपर में उसे दी जा रिही थी। िपरता ने परहलेक भी दो-एक बारि मारिा था, जब उसकी मां जीिवत थी, लेकिकन तब उसकी मां उसे छाती से लगाकरि रिोती न थी। वह अप्रसन्न होकरि उससे बोलना छोड़ देती, यहां तक िक वह स्वयं थोड़ी ही देरि के बाद कुछ भूलकरि िफरि माता के परास दौड़ा जाता था। शरिारित के िलए सजा पराना तो उसकी समझ में आता था, लेकिकन मारि खिाने परारि चुमकारिा जाना उसकी समझ में न आता था। मातृष-प्रेम में कठोरिता होती थी, लेकिकन मृषदलता से िमली हुई। इस प्रेम में करूणा थी, पररि वह कठोरिता न थी, जो आत्मीयता का गुप्त संदेश ह। स्वस्थ अंग की परारिवाह कौन करिता ह? लेकिकन वही अंग जब िकसी वेदना से टपरकने लगता ह, तो उसे ठेस औरि घक्के से बचाने का यत्न िकया जाता ह। िनमर्मला का करूण रिोदन बालक को उसके अनाथ होने की सूचना दे रिहा था। वह बड़ी देरि तक िनमर्मला की गोद में बैठा रिोता रिहा औरि रिोते-रिोते सो गया। िनमर्मला ने उसे चारिपराई पररि सुलाना चाहा, तो बालक ने सुषुप्तावस्था में अपरनी दोनों कोमल बाहें उसकी गदर्मन में डाल दी औरि ऐसा िचपरट गया, मानो नीचे कोई गढ़ा हो। शंका औरि भय से उसका मुखि िवकृत हो गया। िनमर्मला ने िफरि बालक को गोद में उठा िलया, चारिपराई पररि न सुला सकी। इस समय बालक को गोद में िलये हुए उसे वह तुिष्टि हो रिही

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थी, जो अब तक कभी न हुई थी, आज परहली बारि उसे आत्मवेदना हुई, िजसके िबना आंखि नही खिुलती, अपरना कत्तर्मव्य-मागर्म नही समझता। वह मागर्म अब िदखिायी देने लगा।

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भाग २उस िदन अपरने प्रगाढ़ प्रणय का सबल प्रमाण देने के बाद मुंशी तोतारिाम को आशा हुई थी िक िनमर्मला के

ममर्म-स्थल पररि मेरिा िसक्का जम जाएेगा, लेकिकन उनकी यह आशा लेकशमात्र भी परूरिी न हुई बिल्क परहलेक तो वह कभी-कभी उनसे हंसकरि बोला भी करिती थी, अब बच्चों ही के लालन-परालन में व्यस्त रिहने लगी। जब घरि आते, बच्चों को उसके परास बैठे पराते। कभी देखिते िक उन्हें ला रिही ह, कभी कपरड़े परहना रिही ह, कभी कोई खेल, खेला रिही ह औरि कभी कोई कहानी कह रिही ह। िनमर्मला का तृषिषत हृदय प्रणय की ओरि से िनरिाश होकरि इस अवलम्ब ही को गनीमत समझने लगा, बच्चों के साथ हंसने-बोलने में उसकी मातृष-कल्परना तृषप्त होती थी। परित के साथ हंसने-बोलने में उसे जो संकोच, जो अरुिच तथा जो अिनच्छा होती थी, यहां तक िक वह उठकरि भाग जाना चाहती, उसके बदलेक बालकों के सच्चे, सरिल स्नेह से िचत्त प्रसन्न हो जाता था। परहलेक मंसारिाम उसके परास आते हुए िझझकता था, लेकिकन मानिसक िवकास में परांच साल छोटा। हॉकी औरि फुटबाल ही उसका संसारि, उसकी कल्परनाआं का मुक्त-क्षेत्र तथा उसकी कामनाआं का हरिा-भरिा बाग था। इकहरे बदन का छरिहरिा, सुन्दरि, हंसमुखि, लज्जशील बालक था, िजसका घरि से केवल भोजन का नाता था, बाकी सारे िदन न जाने कहां घूमा करिता। िनमर्मला उसके मुंह से खेल की बातें सुनकरि थोड़ी देरि के िलए अपरनी िचन्ताआं को भूल जाती औरि चाहती थी एक बारि िफरि वही िदन आ जाते, जब वह गुिड़या खेलती औरि उसके ब्याह रिचाया करिती थी औरि िजसे अभी थोड़े आह, बहुत ही थोड़े िदन गुजरे थ।

मुंशी तोतारिाम अन्य एकान्त-सेवी मनुष्यों की भांित िवषयी जीव थ। कुछ िदनों तो वह िनमर्मला को सैरि-तमाशे िदखिाते रिहे, लेकिकन जब देखिा िक इसका कुछ फल नही होता, तो िफरि एकान्त-सेवन करिने लगे। िदन-भरि के किठन मािसक परिरिश्रम के बाद उनका िचत्त आमोद-प्रमोद के िलए लालियत हो जाता, लेकिकन जब अपरनी िवनोद-वािटका में प्रवेश करिते औरि उसके फूलों को मुरिझाया, परौधों को सूखिा औरि क्यािरियों से धूल उड़ती हुई देखिते, तो उनका जी चाहता-क्यों न इस वािटका को उजाड़ दूं? िनमर्मला उनसे क्यों िवरिक्त रिहती ह, इसका रिहस्य उनकी समझ में न आता था। दम्परित शास्त्रि के सारे मन्त्रों की पररिीक्षा करि चुके, पररि मनोरिथ परूरिा न हुआ। अब क्या करिना चािहये, यह उनकी समझ में न आता था।

एक िदन वह इसी िचता में बैठे हुए थ िक उनके सहपराठी िमत्र नयनसुखिरिाम आकरि बैठ गये औरि सलाम-वलाम के बाद मुस्करिाकरि बोलेक-आजकल तो खिूब गहरिी छनती होगी। नयी बीवी का आिलगन करिके जवानी का मजा आ जाता होगा? बड़े भाग्यवान हो! भई रूठी हुई जवानी को मनाने का इससे अच्छा कोई उपराय नही िक नया िववाह हो जाएे। यहां तो िजन्दगी बवाल हो रिही ह। परत्नी जी इस बुरिी तरिह िचमटी हैं िक िकसी तरिह िपरण्ड ही नही छोड़ती। मैं तो दूसरिी शादी की िफक्र में हंू। कही डौल हो, तो ठीक-ठाक करि दो। दस्तूरिी में एक िदन तुम्हें उसके हाथ के बने हुए परान िखिला देंगे।

तोतारिाम ने गम्भीरि भाव से कहा-कही ऐसी िहमाकत न करि बैठना, नही तो परछताओगे। लौंिडयां तो लौंडों से ही खिुश रिहती हैं। हम तुम अब उस काम के नही रिहे। सच कहता हंू मैं तो शादी करिके परछता रिहा हंू , बुरिी बला गलेक परड़ी! सोचा था, दो-चारि साल औरि िजन्दगी का मजा उठा लूं, पररि उलटी आंतें गलेक परड़ी।

नयनसुखि-तुम क्या बातें करिते हो। लौंिडयों को परंजों में लाना क्या मुिश्कल बात ह, जरिा सैरि-तमाशे िदखिा दो, उनके रूपर-रंिग की तारिीफ करि दो, बस, रंिग जम गया।

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तोता-यह सब कुछ करि-धरिके हारि गया।

नयन-अच्छा, कुछ इत्र-तेल, फूल-परत्त,े चाट-वाट का भी मजा चखिाया?

तोता-अजी, यह सब करि चुका। दम्परित्त-शास्त्रि के सारे मन्त्रों का इम्तहान लेक चुका, सब कोरिी गप्पे हैं।

नयन-अच्छा, तो अब मेरिी एक सलाह मानो, जरिा अपरनी सूरित बनवा लो। आजकल यहां एक िबजली के डॉक्टरि आये हुए हैं, जो बुढ़ापे के सारे िनशान िमटा देते हैं। क्या मजाल िक चेहरे पररि एक झुरिीया या िसरि का बाल परका रिह जाएे। न जाने क्या जादू करि देते हैं िक आदमी का चोला ही बदल जाता ह।

तोता-फीस क्या लेकते हैं?

नयन-फीस तो सुना ह, शायद परांच सौ रूपरये!

तोता-अजी, कोई पराखिण्डी होगा, बेवकूफों को लूट रिहा होगा। कोई रिोगन लगाकरि दो-चारि िदन के िलए जरिा चेहरिा िचकना करि देता होगा। इश्तहारिी डॉक्टरिों पररि तो अपरना िवश्वास ही नही। दस-परांच की बात होती, तो कहता, जरिा िदल्लगी ही सही। परांच सौ रूपरये बड़ी रिकम ह।

नयन-तुम्हारे िलए परांच सौ रूपरये कौन बड़ी बात ह। एक महीने की आमदनी ह। मेरे परास तो भाई परांच सौ रूपरये होते, तो सबसे परहला काम यही करिता। जवानी के एक घण्टे की कीमत परांच सौ रूपरये से कही ज्यादा ह।

तोता-अजी, कोई सस्ता नुस्खिा बताओ, कोई फकीरिी जुड़ी-बूटी जो िक िबना हरिर्म-िफटकरिी के रंिग चीखिा हो जाएे। िबजली औरि रेिडयम बड़े आदिमयों के िलए रिहने दो। उन्ही को मुबारिक हो।

नयन-तो िफरि रंिगीलेकपरन का स्वांग रिचो। यह ढीला-ढाला कोट फेंकों, तंजेब की चुस्त अचकन हो, चुन्नटदारि पराजामा, गलेक में सोने की जंजीरि परड़ी हुई, िसरि पररि जयपरुरिी साफा बांधा हुआ, आंखिों में सुरिमा औरि बालों में िहना का तेल परड़ा हुआ। तोंद का िपरचकना भी जरूरिी ह। दोहरिा कमरिबन्द बांधे। जरिा तकलीफ तो होगी, परारि अचकन सज उठेगी। िखिजाब मैं ला दूंगा। सौ-परचास गजलें याद करि लो औरि मौके-मौके से शेरि परढ़ी। बातों में रिस भरिा हो। ऐसा मालूम हो िक तुम्हें दीन औरि दिनया की कोई िफक्र नही ह , बस, जो कुछ ह, िप्रयतमा ही ह। जवांमदी औरि साहस के काम करिने का मौका ढूंढते रिहो। रिात को झूठ-मूठ शोरि करिो-चोरि-चोरि औरि तलवारि लेककरि अकेलेक िपरल परड़ो। हां, जरिा मौका देखि लेकना, ऐसा न हो िक सचमुच कोई चोरि आ जाएे औरि तुम उसके परीछे दौड़ो, नही तो सारिी कलई खिुल जाएेगी औरि मुफ्त के उल्लू बनोगे। उस वक्त तो जवांमदी इसी में ह िक दम साधे खिड़े रिहो, िजससे वह समझे िक तुम्हें खिबरि ही नही हुई, लेकिकन ज्योंही चोरि भाग खिड़ा हो, तुम भी उछलकरि बाहरि िनकलो औरि तलवारि लेककरि ‘कहां? कहां?’ कहते दौड़ो। ज्यादा नही, एक महीना मेरिी बातों का इम्तहान करिके देखें। अगरि वह तुम्हारिी दम न भरिने लगे, तो जो जुमाना कहो, वह दूं।

तोतारिाम ने उस वक्त तो यह बातें हंसी में उड़ा दी, जैसा िक एक व्यवहारि कुशल मनुष्य को करिना चिहए था, लेकिकन इसमें की कुछ बातें उसके मन में बैठ गयी। उनका असरि परड़ने में कोई संदेह न था। धीरे-धीरे रंिग बदलने लगे, िजसमें लोग खिटक न जाएं। परहलेक बालों से शुरू िकया, िफरि सुरिमे की बारिी आयी, यहां तक िक एक-दो महीने में उनका कलेकवरि ही बदल गया। गजलें याद करिने का प्रस्ताव तो हास्यास्परद था, लेकिकन वीरिता की डीग मारिने में कोई हािन न थी।

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उस िदन से वह रिोज अपरनी जवांमदी का कोई-न-कोई प्रसंग अवश्य छेड़ देते। िनमर्मला को सन्देह होने लगा िक कही इन्हें उन्माद का रिोग तो नही हो रिहा ह। जो आदमी मूंग की दाल औरि मोटे आटे के दो फुलके खिाकरि भी नमक सुलेकमानी का मुहताज हो, उसके छैलेकपरन पररि उन्माद का सन्देह हो, तो आश्चयर्म ही क्या? िनमर्मला पररि इस परागलपरन का औरि क्या रंिग जमता? हों उसे उन परारि दया आजे लगी। क्रोध औरि घृषणा का भाव जाता रिहा। क्रोध औरि घृषणा उन पररि होती ह, जो अपरने होश में हो, परागल आदमी तो दया ही का परात्र ह। वह बात-बात में उनकी चुटिकयां लेकती, उनका मजाक उड़ाती, जैसे लोग परागलों के साथ िकया करिते हैं। हां, इसका ध्यान रिखिती थी िक वह समझ न जाएं। वह सोचती, बेचारिा अपरने परापर का प्रायिश्चत करि रिहा ह। यह सारिा स्वांग केवल इसिलए तो ह िक मैं अपरना द:खि भूल जाऊं। आिखिरि अब भाग्य तो बदल सकता नही, इस बेचारे को क्यों जलाऊं?

एक िदन रिात को नौ बजे तोतारिाम बांके बने हुए सैरि करिके लौटे औरि िनमर्मला से बोलेक-आज तीन चोरिों से सामना हो गया। जरिा िशवपरुरि की तरिफ चला गया था। अंधेरिा था ही। ज्योंही रेल की सड़क के परास परहंुचा, तो तीन आदमी तलवारि िलए हुए न जाने िकधरि से िनकल परड़े। यकीन मानो, तीनों कालेक देव थ। मैं िबल्कुल अकेला, परास में िसफर यह छड़ी थी। उधरि तीनों तलवारि बांधे हुए, होश उड़ गये। समझ गया िक िजन्दगी का यही तक साथ था, मगरि मैंने भी सोचा, मरिता ही हंू, तो वीरिों की मौत क्यों न मरुं। इतने में एक आदमी ने ललकारि करि कहा-रिखि दे तेरे परास जो कुछ हो औरि चुपरके से चला जा।

मैं छड़ी संभालकरि खिड़ा हो गया औरि बोला-मेरे परास तो िसफर यह छड़ी ह औरि इसका मूल्य एक आदमी का िसरि ह।

मेरे मुंह से इतना िनकलना था िक तीनों तलवारि खिीचकरि मुझ पररि झपरट परड़े औरि मैं उनके वारिों को छड़ी पररि रिोकने लगा। तीनों झल्ला-झल्लाकरि वारि करिते थ, खिटाके की आवाज होती थी औरि मैं िबजली की तरिह झपरटकरि उनके तारिों को काट देता था। कोई दस िमनट तक तीनों ने खिूब तलवारि के जौहरि िदखिाये, पररि मुझ पररि रेफ तक न आयी। मजबूरिी यही थी िक मेरे हाथ में तलवारि न थी। यिद कही तलवारि होती , तो एक को जीता न छोड़ता। खिैरि, कहां तक बयान करुं। उस वक्त मेरे हाथों की सफाई देखिने कािबल थी। मुझे खिुद आश्चयर्म हो रिहा था िक यह चपरलता मुझमें कहां से आ गयी। जब तीनों ने देखिा िक यहां दाल नही गलने की, तो तलवारि म्यान में रिखि ली औरि परीठ ठोककरि बोलेक-जवान, तुम-सा वीरि आज तक नही देखिा। हम तीनों तीन सौ पररि भारिी गांव-के-गांव ढोल बजाकरि लूटते हैं, पररि आज तुमने हमें नीचा िदखिा िदया। हम तुम्हारिा लोहा मान गए। यह कहकरि तीनों िफरि नजरिों से गायब हो गए।

िनमर्मला ने गम्भीरि भाव से मुस्करिाकरि कहा-इस छड़ी पररि तो तलवारि के बहुत से िनशान बने हुए होंगे?

मुंशीजी इस शंका के िलए तैयारि न थ, पररि कोई जवाब देना आवश्यक था, बोलेक-मैं वारिों को बरिाबरि खिाली करि देता। दो-चारि चोटंे छड़ी पररि परड़ी भी, तो उचटती हुई, िजनसे कोई िनशान नही परड़ सकता था।

अभी उनके मुंह से परूरिी बात भी न िनकली थी िक सहसा रुिक्मणी देवी बदहवास दौड़ती हुई आयी औरि हांफते हुए बोली-तोता ह िक नही? मेरे कमरे में सांपर िनकल आया ह। मेरिी चारिपराई के नीचे बैठा हुआ ह। मैं उठकरि भागी। मुआ कोई दो गज का होगा। फन िनकालेक फुफकारि रिहा ह, जरिा चलो तो। डंडा लेकते चलना।

तोतारिाम के चेहरे का रंिग उड़ गया, मुंह पररि हवाइयां छुटने लगी, मगरि मन के भावों को िछपराकरि बोलेक-सांपर यहां कहां? तुम्हें धोखिा हुआ होगा। कोई रिस्सी होगी।

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रुिक्मणी-अरे, मैंने अपरनी आंखिों देखिा ह। जरिा चलकरि देखि लो न। हैं, हैं। मदर्म होकरि डरिते हो?

मुंशीजी घरि से तो िनकलेक, लेकिकन बरिामदे में िफरि िठठक गये। उनके परांव ही न उठते थ कलेकजा धड़-धड़ करि रिहा था। सांपर बड़ा क्रोधी जानवरि ह। कही काट लेक तो मुफ्त में प्राण से हाथ धोना परड़े। बोलेक-डरिता नही हंू। सांपर ही तो ह, शेरि तो नही, मगरि सांपर पररि लाठी नही असरि करिती, जाकरि िकसी को भेजूं, िकसी के घरि से भाला लाये।

यह कहकरि मुंशीजी लपरके हुए बाहरि चलेक गये। मंसारिाम बैठा खिाना खिा रिहा था। मुंशीजी तो बाहरि चलेक गये, इधरि वह खिाना छोड़, अपरनी हॉकी का डंडा हाथ में लेक, कमरे में घुस ही तो परड़ा औरि तुरंित चारिपराई खिीच ली। सांपर मस्त था, भागने के बदलेक फन िनकालकरि खिड़ा हो गया। मंसारिाम ने चटपरट चारिपराई की चादरि उठाकरि सांपर के ऊपररि फेंक दी औरि ताबड़तोड़ तीन-चारि डंडे कसकरि जमाये। सांपर चादरि के अंदरि तड़पर करि रिह गया। तब उसे डंडे पररि उठाये हुए बाहरि चला। मुंशीजी कई आदिमयों को साथ िलये चलेक आ रिहे थ। मंसारिाम को सांपर लटकाये आते देखिा, तो सहसा उनके मुंह से चीखि िनकल परड़ी, मगरि िफरि संभल गये औरि बोलेक-मैं तो आ ही रिहा था, तुमने क्यों जल्दी की? दे दो, कोई फेंक आए।

यह कहकरि बहादरिी के साथ रुिक्मणी के कमरे के द्वारि पररि जाकरि खिड़े हो गये औरि कमरे को खिूब देखिभाल करि मूंछों पररि ताव देते हुए िनमर्मला के परास जाकरि बोलेक-मैं जब तक आऊं-जाऊ,ं मंसारिाम ने मारि डाला। बेसमझ् लड़का डंडा लेककरि दौड़ परड़ा। सांपर हमेशा भालेक से मारिना चािहए। यही तो लड़कों में ऐब ह। मैंने ऐसे-ऐसे िकतने सांपर मारे हैं। सांपर को िखिला-िखिलाकरि मारिता हंू। िकतनों ही को मुट्ठी से परकड़करि मसल िदया ह।

रुिक्मणी ने कहा-जाओ भी, देखि ली तुम्हारिी मदानगी।

मुंशीजी झंपरकरि बोलेक-अच्छा जाओ, मैं डरिपरोक ही सही, तुमसे कुछ इनाम तो नही मांग रिहा हंू। जाकरि महारिाज से कहा, खिाना िनकालेक।

मुंशीजी तो भोजन करिने गये औरि िनमर्मला द्वारि की चौखिट पररि खिड़ी सोच रिही थी-भगवान्। क्या इन्हें सचमुच कोई भीषण रिोग हो रिहा ह? क्या मेरिी दशा को औरि भी दारुण बनाना चाहते हो? मैं इनकी सेवा करि सकती हंू, सम्मान करि सकी हंू, अपरना जीवन इनके चरिणों पररि अपरर्मण करि सकती हंू, लेकिकन वह नही करि सकती, जो मेरे िकये नही हो सकता। अवस्था का भेद िमटाना मेरे वश की बात नही । आिखिरि यह मुझसे क्या चाहते हैं-समझ् गयी। आह यह बात परहलेक ही नही समझी थी, नही तो इनको क्यों इतनी तपरस्या करिनी परड़ती क्यों इतने स्वांग भरिने परड़ते।

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अध्याय-४उस िदन से िनमर्मला का रंिग-ढंग बदलने लगा। उसने अपरने को कत्तर्मव्य पररि िमटा देने का िनश्चय करि िदया।

अब तक नैरिाश्य के संतापर में उसने कत्तर्मव्य पररि ध्यान ही न िदया था उसके हृदय में िवपर्लव की ज्वाला-सी दहकती रिहती थी, िजसकी असह्य वेदना ने उसे संज्ञाहीन-सा करि रिखिा था। अब उस वेदना का वेग शांत होने लगा। उसे ज्ञात हुआ िक मेरे िलए जीवन का कोई आंनद नही। उसका स्वप्न देखिकरि क्यों इस जीवन को नष्टि करुं। संसारि में सब-के-सब प्राणी सुखि-सेज ही पररि तो नही सोते। मैं भी उन्ही अभागों में से हंू। मुझे भी िवधाता ने दखि की गठरिी ढोने के िलए चुना ह। वह बोझ िसरि से उतरि नही सकता। उसे फेंकना भी चाहंू, तो नही फेंक सकती। उस किठन भारि से चाहे आंखिों में अंधेरिा छा जाएे, चाहे गदर्मन टूटने लगे, चाहे परैरि उठाना दस्तरि हो जाऐ, लेकिकन वह गठरिी ढोनी ही परड़ेगी ? उम्र भरि का कैदी कहां तक रिोयेगा? रिोये भी तो कौन देखिता ह? िकसे उस पररि दया आती ह? रिोने से काम में हजर्म होने के कारिण उसे औरि यातनाएं ही तो सहनी परड़ती हैं।

दूसरे िदन वकील साहब कचहरिी से आये तो देखिा-िनमर्मला की सहास्य मूित अपरने कमरे के द्वारि पररि खिड़ी ह। वह अिनन्द्य छिव देखिकरि उनकी आंखें तृषप्त हा गयी। आज बहुत िदनों के बाद उन्हें यह कमल िखिला हुआ िदखिलाई िदया। कमरे में एक बड़ा-सा आईना दीवारि में लटका हुआ था। उस पररि एक पररिदा परड़ा रिहता था। आज उसका पररिदा उठा हुआ था। वकील साहब ने कमरे में कदम रिखिा, तो शीशे पररि िनगाह परड़ी। अपरनी सूरित साफ-साफ िदखिाई दी। उनके हृदय में चोट-सी लग गयी। िदन भरि के परिरिश्रम से मुखि की कांित मिलन हो गयी थी, भांित-भांित के परौिष्टिक परदाथर्म खिाने पररि भी गालों की झुिरियां साफ िदखिाई दे रिही थी। तोंद कसी होने पररि भी िकसी मुंहजोरि घोड़े की भांित बाहरि िनकली हुई थी। आईने के ही सामने िकन्तू दूसरिी ओरि ताकती हुई िनमर्मला भी खिड़ी हुई थी। दोनों सूरितों में िकतना अंतरि था। एक रित्न जिटत िवशाल भवन, दूसरिा टूटा-फूटा खिंडहरि। वह उस आईने की ओरि न देखि सके। अपरनी यह हीनावस्था उनके िलए असह्य थी। वह आईने के सामने से हट गये, उन्हें अपरनी ही सूरित से घृषणा होने लगी। िफरि इस रूपरवती कािमनी का उनसे घृषणा करिना कोई आश्चयर्म की बात न थी। िनमर्मला की ओरि ताकने का भी उन्हें साहस न हुआ। उसकी यह अनुपरम छिव उनके हृदय का शूल बन गयी।

िनमर्मला ने कहा-आज इतनी देरि कहां लगायी? िदन भरि रिाह देखिते-देखिते आंखे फूट जाती हैं।

तोतारिाम ने िखिड़की की ओरि ताकते हुए जवाब िदया-मुकदमों के मारे दम मारिने की छुट्टी नही िमलती। अभी एक मुकदमा औरि था, लेकिकन मैं िसरिददर्म का बहाना करिके भाग खिड़ा हुआ।

िनमर्मला-तो क्यों इतने मुकदमे लेकते हो? काम उतना ही करिना चािहए िजतना आरिाम से हो सके। प्राण देकरि थोड़े ही काम िकया जाता ह। मत िलया करिो, बहुत मुकदमे। मुझे रुपरयों का लालच नही। तुम आरिाम से रिहोगे, तो रुपरये बहुत िमलेंगे।

तोतारिाम-भई, आती हुई लक्ष्मी भी तो नही ठुकरिाई जाती।

िनमर्मला-लक्ष्मी अगरि रिक्त औरि मांस की भेंट लेककरि आती ह, तो उसका न आना ही अच्छा। मैं धन की भूखिी नही हंू।

इस वक्त मंसारिाम भी स्कूल से लौटा। धूपर में चलने के कारिण मुखि पररि परसीने की बूंदे आयी हुई थी, गोरे मुखिड़े पररि खिून की लाली दौड़ रिही थी, आंखिों से ज्योित-सी िनकलती मालूम होती थी। द्वारि पररि खिड़ा होकरि बोला-अम्मां जी, लाइए, कुछ खिाने का िनकािलए, जरिा खेलने जाना ह।

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िनमर्मला जाकरि िगलास में परानी लाई औरि एक तश्तरिी में कुछ मेवे रिखिकरि मंसारिाम को िदए। मंसारिाम जब खिाकरि चलने लगा, तो िनमर्मला ने परूछा-कब तक आओगे?

मंसारिाम-कह नही सकता, गोरिों के साथ हॉकी का मैच ह। बारिक यहां से बहुत दूरि ह।

िनमर्मला-भई, जल्द आना। खिाना ठण्डा हो जाएेगा, तो कहोगे मुझे भूखि नही ह।

मंसारिाम ने िनमर्मला की ओरि सरिल स्नेह भाव से देखिकरि कहा-मुझे देरि हो जाएे तो समझ लीिजएगा, वही खिा रिहा हंू। मेरे िलए बैठने की जरुरित नही।

वह चला गया, तो िनमर्मला बोली-परहलेक तो घरि में आते ही न थ, मुझसे बोलते शमाते थ। िकसी चीज की जरुरित होती, तो बाहरि से ही मंगवा भेजते। जब से मैंन बुलाकरि कहा, तब से आने लगे हैं।

तोतारिाम ने कुछ िचढ़करि कहा-यह तुम्हारे परास खिाने-परीने की चीजें मांगने क्यों आता ह? दीदी से क्यों नही कहता?

िनमर्मला ने यह बात प्रशंसा पराने के लोभ से कही थी। वह यह िदखिाना चाहती थी िक मैं तुम्हारे लड़कों को िकतना चाहती हंू। यह कोई बनावटी प्रेम न था। उसे लड़कों से सचमुच स्नेह था। उसके चिरित्र में अभी तक बाल-भाव ही प्रधान था, उसमें वही उत्सुकता, वही चंचलता, वही िवनोदिप्रयता िवद्यमान थी औरि बालकों के साथ उसकी ये बालवृषित्तयां प्रस्फुिटत होती थी। परत्नी-सुलभ ईष्या अभी तक उसके मन में उदय नही हुई थी, लेकिकन परित के प्रसन्न होने के बदलेक नाक-भौं िसकोड़ने का आशय न समझ्करि बोली-मैं क्या जानंू, उनसे क्यों नही मांगते? मेरे परास आते हैं, तो दत्कारि नही देती। अगरि ऐसा करुं, तो यही होगा िक यह लड़कों को देखिकरि जलती ह।

मुंशीजी ने इसका कुछ जवाब न िदया, लेकिकन आज उन्होंने मुविक्कलों से बातें नही की, सीधे मंसारिाम के परास गये औरि उसका इम्तहान लेकने लगे। यह जीवन में परहला ही अवसरि था िक इन्होंने मंसारिाम या िकसी लड़के की िशक्षोन्नित के िवषय में इतनी िदलचस्परी िदखिायी हो। उन्हें अपरने काम से िसरि उठाने की फुरिसत ही न िमलती थी। उन्हें इन िवषयों को परढ़े हुए चालीस वषर्म के लगभग हो गये थ। तब से उनकी ओरि आंखि तक न उठायी थी। वह कानूनी परुस्तकों औरि परत्रों के िसवा औरि कुछ परड़ते ही न थ। इसका समय ही न िमलता, पररि आज उन्ही िवषयों में मंसारिाम की पररिीक्षा लेकने लगे। मंसारिाम जहीन था औरि इसके साथ ही मेहनती भी था। खेल में भी टीम का कैप्टन होने पररि भी वह क्लास में प्रथम रिहता था। िजस पराठ को एक बारि देखि लेकता, परत्थरि की लकीरि हो जाती थी। मुंशीजी को उतावली में ऐसे मािमक प्रश्न तो सूझे नही, िजनके उत्तरि देने में चतुरि लड़के को भी कुछ सोचना परड़ता औरि ऊपररिी प्रश्नों को मंसारिाम से चुटिकयों में उड़ा िदया। कोई िसपराही अपरने शत्रु पररि वारि खिाली जाते देखिकरि जैसे झल्ला-झल्लाकरि औरि भी तेजी से वारि करिता ह, उसी भांित मंसारिाम के जवाबों को सुन-सुनकरि वकील साहब भी झल्लाते थ। वह कोई ऐसा प्रश्न करिना चाहते थ, िजसका जवाब मंसारिाम से न बन परड़े। देखिना चाहते थ िक इसका कमजोरि परहलू कहां ह। यह देखिकरि अब उन्हें संतोष न हो सकता था िक वह क्या करिता ह। वह यह देखिना चाहते थ िक यह क्या नही करि सकता। कोई अभ्यस्त पररिीक्षक मंसारिाम की कमजोिरियों को आसानी से िदखिा देता, पररि वकील साहब अपरनी आधी शताब्दी की भूली हुई िशक्षा के आधारि पररि इतने सफल कैसे होते? अंत में उन्हें अपरना गुस्सा उतारिने के िलए कोई बहाना न िमला तो बोलेक-मैं देखिता हंू, तुम सारे िदन इधरि-उधरि मटरिगश्ती िकया करिते हो, मैं तुम्हारे चिरित्र को तुम्हारिी बुिद्ध से बढ़करि समझता हंू औरि तुम्हारिा यों आवारिा घूमना मुझे कभी गवारिा नही हो सकता।

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मंसारिाम ने िनभीकता से कहा-मैं शाम को एक घण्टा खेलने के िलए जाने के िसवा िदन भरि कही नही जाता। आपर अम्मां या बुआजी से परूछ लें। मुझे खिुद इस तरिह घूमना परसंद नही। हां, खेलने के िलए हेड मास्टरि साहब से आग्रह करिके बुलाते हैं, तो मजबूरिन जाना परड़ता ह। अगरि आपरको मेरिा खेलने जाना परसंद नही ह, तो कल से न जाऊंगा।

मुंशीजी ने देखिा िक बातें दूसरिी ही रुखि पररि जा रिही हैं, तो तीव्र स्वरि में बोलेक-मुझे इस बात का इतमीनान क्योंकरि हो िक खेलने के िसवा कही नही घूमने जाते? मैं बरिाबरि िशकायतें सुनता हंू।

मंसारिाम ने उत्तेिजत होकरि कहा-िकन महाशय ने आपरसे यह िशकायत की ह, जरिा मैं भी तो सुनंू?

वकील-कोई हो, इससे तुमसे कोई मतलब नही। तुम्हें इतना िवश्वास होना चािहए िक मैं झूठा आक्षेपर नही करिता।

मंसारिाम-अगरि मेरे सामने कोई आकरि कह दे िक मैंने इन्हें कही घूमते देखिा ह, तो मुंह न िदखिाऊं।

वकील-िकसी को ऐसी क्या गरिज परड़ी ह िक तुम्हारिी मुंह पररि तुम्हारिी िशकायत करे औरि तुमसे बैरि मोल लेक? तुम अपरने दो-चारि सािथयों को लेककरि उसके घरि की खिपररैिल फोड़ते िफरिो। मुझसे इस िकस्म की िशकायत एक आदमी ने नही, कई आदिमयों ने की ह औरि कोई वजह नही ह िक मैं अपरने दोस्तों की बात पररि िवश्वास न करुं। मैं चाहता हंू िक तुम स्कूल ही में रिहा करिो।

मंसारिाम ने मुंह िगरिाकरि कहा-मुझे वहां रिहने में कोई आपरित्त नही ह, जब से किहये, चला जाऊं।

वकील- तुमने मुंह क्यों लटका िलया? क्या वहां रिहना अच्छा नही लगता? ऐसा मालूम होता ह, मानों वहां जाने के भय से तुम्हारिी नानी मरिी जा रिही ह। आिखिरि बात क्या ह, वहां तुम्हें क्या तकलीफ होगी?

मंसारिाम छात्रालय में रिहने के िलए उत्सुक नही था, लेकिकन जब मुंशीजी ने यही बात कह दी औरि इसका कारिण परूछा, सो वह अपरनी झंपर िमटाने के िलए प्रसन्निचत्त होकरि बोला-मुंह क्यों लटकाऊं? मेरे िलए जैसे बोिडग हाउस। तकलीफ भी कोई नही, औरि हो भी तो उसे सह सकता हंू। मैं कल से चला जाऊंगा। हां अगरि जगह न खिाली हुई तो मजबूरिी ह।

मुंशीजी वकील थ। समझ गये िक यह लौंडा कोई ऐसा बहाना ढूंढ रिहा ह, िजसमें मुझे वहां जाना भी न परड़े औरि कोई इल्जाम भी िसरि पररि न आये। बोलेक-सब लड़कों के िलए जगह ह, तुम्हारे ही िलये जगह न होगी?

मंसारिाम- िकतने ही लड़कों को जगह नही िमली औरि वे बाहरि िकरिाये के मकानों में परड़े हुए हैं। अभी बोिडग हाउस में एक लड़के का नाम कट गया था, तो परचास अिजयां उस जगह के िलए आयी थी।

वकील साहब ने ज्यादा तकर-िवतकर करिना उिचत नही समझा। मंसारिाम को कल तैयारि रिहने की आज्ञा देकरि अपरनी बग्घी तैयारि करिायी औरि सैरि करिने चल गये। इधरि कुछ िदनों से वह शाम को प्राय: सैरि करिने चलेक जाएा करिते थ। िकसी अनुभवी प्राणी ने बतलाया था िक दीघर्म जीवन के िलए इससे बढ़करि कोई मंत्र नही ह। उनके जाने के बाद मंसारिाम आकरि रुिक्मणी से बोला बुआजी, बाबूजी ने मुझे कल से स्कूल में रिहने को कहा ह।

रुिक्मणी ने िविस्मत होकरि परूछा-क्यों?

मंसारिाम-मैं क्या जानू? कहने लगे िक तुम यहां आवारिों की तरिह इधरि-उधरि िफरिा करिते हो।

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रुिक्मणी-तूने कहा नही िक मैं कही नही जाता।

मंसारिाम-कहा क्यों नही, मगरि वह जब मान भी।

रुिक्मणी-तुम्हारिी नयी अम्मा जी की कृपरा होगी औरि क्या?

मंसारिाम-नही, बुआजी, मुझे उन पररि संदेह नही ह, वह बेचारिी भूल से कभी कुछ नही कहती। कोई चीज मांगने जाता हंू, तो तुरिन्त उठाकरि दे देती हैं।

रुिक्मणी-तू यह ित्रया-चिरित्र क्या जाने, यह उन्ही की लगाई हुई आग ह। देखि, मैं जाकरि परूछती हंू।

रुिक्मणी झल्लाई हुई िनमर्मला के परास जा परहंुची। उसे आड़े हाथों लेकने का, कांटों में घसीटने का, तानों से छेदने का, रुलाने का सुअवसरि वह हाथ से न जाने देती थी। िनमर्मला उनका आदरि करिती थी, उनसे दबती थी, उनकी बातों का जवाब तक न देती थी। वह चाहती थी िक यह िसखिावन की बातें कहें, जहां मैं भूलूं वहां सुधारें, सब कामों की देखि-रेखि करिती रिहें, पररि रुिक्मणी उससे तनी ही रिहती थी।

िनमर्मला चारिपराई से उठकरि बोली-आइए दीदी, बैिठए।

रुिक्मणी ने खिड़े-खिड़े कहा-मैं परूछती हंू क्या तुम सबको घरि से िनकालकरि अकेलेक ही रिहना चाहती हो?

िनमर्मला ने कातरि भाव से कहा-क्या हुआ दीदी जी? मैंने तो िकसी से कुछ नही कहा।

रुिक्मणी-मंसारिाम को घरि से िनकालेक देती हो, ितस पररि कहती हो, मैंने तो िकसी से कुछ नही कहा। क्या तुमसे इतना भी देखिा नही जाता?

िनमर्मला-दीदी जी, तुम्हारे चरिणों को छूकरि कहती हंू, मुझे कुछ नही मालूम। मेरिी आंखे फूट जाएं, अगरि उसके िवषय में मुंह तक खिोला हो।

रुिक्मणी-क्यों व्यथर्म कसमें खिाती हो। अब तक तोतारिाम कभी लड़के से नही बोलते थ। एक हफ्ते के िलए मंसारिाम निनहाल चला गया था, तो इतने घबरिाए िक खिुद जाकरि िलवा लाए। अब इसी मंसारिाम को घरि से िनकालकरि स्कूल में रिखे देते हैं। अगरि लड़के का बाल भी बांका हुआ, तो तुम जानोगी। वह कभी बाहरि नही रिहा, उसे न खिाने की सुध रिहती ह, न परहनने की-जहां बैठता, वही सो जाता ह। कहने को तो जवान हो गया, पररि स्वभाव बालकों-सा ह। स्कूल में उसकी मरिन हो जाएेगी। वहां िकसे िफक्र ह िक इसने खिोया या नही, कहां कपरड़े उतारे, कहां सो रिहा ह। जब घरि में कोई परूछने वाला नही, तो बाहरि कौन परूछेगा मैंने तुम्हें चेता िदया, आगे तुम जानो, तुम्हारिा काम जाने।

यह कहकरि रुिक्मणी वहां से चली गयी।

वकील साहब सैरि करिके लौटे, तो िनमर्मला न तुरंित यह िवषय छेड़ िदया-मंसारिाम से वह आजकल थोड़ी अंग्रेजी परढ़ती थी। उसके चलेक जाने पररि िफरि उसके परढ़ने का हरिज न होगा? दूसरिा कौन परढ़ायेगा? वकील साहब को अब तक यह बात न मालूम थी। िनमर्मला ने सोचा था िक जब कुछ अभ्यास हो जाएेगा, तो वकील साहब को एक िदन अंग्रेजी में बातें करिके चिकत करि दूंगी। कुछ थोड़ा-सा ज्ञान तो उसे अपरने भाइयों से ही हो गया था। अब वह िनयिमत रूपर से परढ़ रिही थी। वकील साहब की छाती पररि सांपर-सा लोट गया, त्योिरियां बदलकरि बोलेक-वे कब से परढ़ा रिहा ह, तुम्हें। मुझसे तुमने कभी नही कहा।

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िनमर्मला ने उनका यह रूपर केवल एक बारि देखिा था, जब उन्होने िसयारिाम को मारिते-मारिते बेदम करि िदया था। वही रूपर औरि भी िवकरिाल बनकरि आज उसे िफरि िदखिाई िदया। सहमती हुई बोली-उनके परढ़ने में तो इससे कोई हरिज नही होता, मैं उसी वक्त उनसे परढ़ती हंू जब उन्हें फुरिसत रिहती ह। परूछ लेकती हंू िक तुम्हारिा हरिज होता हो, तो जाओ। बहुधा जब वह खेलने जाने लगते हैं, तो दस िमनट के िलए रिोक लेकती हंू। मैं खिुद चाहती हंू िक उनका नुकसान न हो।

बात कुछ न थी, मगरि वकील साहब हताश से होकरि चारिपराई पररि िगरि परड़े औरि माथ पररि हाथ रिखिकरि िचता में मग्न हो गये। उन्होंनं िजतना समझा था, बात उससे कही अिधक बढ़ गयी थी। उन्हें अपरने ऊपररि क्रोध आया िक मैंने परहलेक ही क्यों न इस लौंडे को बाहरि रिखिने का प्रबंध िकया। आजकल जो यह महारिानी इतनी खिुश िदखिाई देती हैं, इसका रिहस्य अब समझ में आया। परहलेक कभी कमरिा इतना सजा-सजाया न रिहता था, बनाव-चुनाव भी न करिती थी, पररि अब देखिता हंू कायापरलट-सी हो गयी ह। जी में तो आया िक इसी वक्त चलकरि मंसारिाम को िनकाल दें, लेकिकन प्रौढ़ बुिद्ध ने समझाया िक इस अवसरि पररि क्रोध की जरूरित नही। कही इसने भांपर िलया, तो गजब ही हो जाएेगा। हां, जरिा इसके मनोभावों को टटोलना चािहए। बोलेक-यह तो मैं जानता हंू िक तुम्हें दो-चारि िमनट परढ़ाने से उसका हरिज नही होता, लेकिकन आवारिा लड़का ह, अपरना काम न करिने का उसे एक बहाना तो िमल जाता ह। कल अगरि फेल हो गया, तो साफ कह देगा-मैं तो िदन भरि परढ़ाता रिहता था। मैं तुम्हारे िलए कोई िमस नौकरि रिखि दूंगा। कुछ ज्यादा खिचर्म न होगा। तुमने मुझसे परहलेक कहा ही नही। यह तुम्हें भला क्या परढ़ाता होगा, दो-चारि शब्द बताकरि भाग जाता होगा। इस तरिह तो तुम्हें कुछ भी न आयेगा।

िनमर्मला ने तुरिन्त इस आक्षेपर का खिण्डन िकया-नही, यह बात तो नही। वह मुझे िदल लगा करि परढ़ाते हैं औरि उनकी शैली भी कुछ ऐसी ह िक परढ़ने में मन लगता ह। आपर एक िदन जरिा उनका समझाना देिखिए। मैं तो समझती हंू िक िमस इतने ध्यान से न परढ़ायेगी।

मुंशीजी अपरनी प्रश्न-कुशलता पररि मूंछों पररि ताव देते हुए बोलेक-िदन में एक ही बारि परढ़ाता ह या कई बारि?

िनमर्मला अब भी इन प्रश्नों का आशय न समझी। बोली-परहलेक तो शाम ही को परढ़ा देते थ, अब कई िदनों से एक बारि आकरि िलखिना भी देखि लेकते हैं। वह तो कहते हैं िक मैं अपरने क्लास में सबसे अच्छा हंू। अभी पररिीक्षा में इन्ही को प्रथम स्थान िमला था, िफरि आपर कैसे समझते हैं िक उनका परढ़ने में जी नही लगता? मैं इसिलए औरि भी कहती हंू िक दीदी समझंगी, इसी ने यह आग लगाई ह। मुफ्त में मुझे ताने सुनने परड़ंगे। अभी जरिा ही देरि हुई, धमकाकरि गयी हैं।

मुंशीजी ने िदल में कहा-खिूब समझता हंू। तुम कल की छोकरिी होकरि मुझे चरिाने चली। दीदी का सहारिा लेककरि अपरना मतलब परूरिा करिना चाहती हैं। बोलेक-मैं नही समझता, बोिडग का नाम सुनकरि क्यों लौंडे की नानी मरिती ह। औरि लड़के खिुश होते हैं िक अब अपरने दोस्तों में रिहेंगे, यह उलटे रिो रिहा ह। अभी कुछ िदन परहलेक तक यह िदल लगाकरि परढ़ता था, यह उसी मेहनत का नतीजा ह िक अपरने क्लास में सबसे अच्छा ह, लेकिकन इधरि कुछ िदनों से इसे सैरि-सपराटे का चस्का परड़ चला ह। अगरि अभी से रिोकथाम न की गयी, तो परीछे करिते-धरिते न बन परड़ेगा। तुम्हारे िलए मैं एक िमस रिखि दूंगा।

दूसरे िदन मुंशीजी प्रात:काल कपरड़े-लत्ते परहनकरि बाहरि िनकलेक। दीवानखिाने में कई मुविक्कल बैठे हुए थ। इनमें एक रिाजा साहब भी थ, िजनसे मुंशीजी को कई हजारि सालाना मेहनताना िमलता था, मगरि मुंशीजी उन्हें वही बैठे छोड़ दस िमनट में आने का वादा करिके बग्घी पररि बैठकरि स्कूल के हेडमास्टरि के यहां जा परहँुचे।

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हेडमास्टरि साहब बड़े सज्जन परुरुष थ। वकील साहब का बहुत आदरि-सत्कारि िकया, पररि उनके यहा एक लड़के की भी जगह खिाली न थी। सभी कमरे भरे हुए थ। इंस्पेक्टरि साहब की कड़ी ताकीद थी िक मुफिस्सल के लड़कों को जगह देकरि तब शहरि के लड़कों को िदया जाएे। इसीिलए यिद कोई जगह खिाली भी हुई, तो भी मंसारिाम को जगह न िमल सकेगी, क्योंिक िकतने ही बाहरिी लड़कों के प्राथर्मना-परत्र रिखे हुए थ। मुंशीजी वकील थ, रिात िदन ऐसे प्रािणयों से सािबका रिहता था, जो लोभवश असंभव का भी संभव, असाध्य को भी साध्य बना सकते हैं। समझे शायद कुछ दे-िदलाकरि काम िनकल जाएे, दफ्तरि क्लकर से ढंग की कुछ बातचीत करिनी चािहए, पररि उसने हंसकरि कहा- मुंशीजी यह कचहरिी नही, स्कूल ह, हडमास्टरि साहब के कानों में इसकी भनक भी परड़ गयी, तो जामे से बाहरि हो जाएंगे औरि मंसारिाम को खिड़े-खिड़े िनकाल देंगे। संभव ह, अफसरिों से िशकायत करि दें। बेचारे मुंशीजी अपरना-सा मुंह लेककरि रिह गये। दस बजते-बजते झंुझलाये हुए घरि लौटे। मंसारिाम उसी वक्त घरि से स्कूल जाने को िनकला मुंशीजी ने कठोरि नेत्रों से उसे देखिा, मानो वह उनका शत्रु हो औरि घरि में चलेक गये।

इसके बाद दस-बारिह िदनों तक वकील साहब का यही िनयम रिहा िक कभी सुबह कभी शाम, िकसी-न-िकसी स्कूल के हेडमास्टरि से िमलते औरि मंसारिाम को बोिडग हाउस में दािखिल करिने कल चेष्टिा करिते, पररि िकसी स्कूल में जगह न थी। सभी जगहों से कोरिा जवाब िमल गया। अब दो ही उपराय थ-या तो मंसारिाम को अलग िकरिाये के मकान में रिखि िदया जाएे या िकसी दूसरे स्कूल में भती करिा िदया जाएे। ये दोनों बातें आसान थी। मुफिस्सल के स्कूलों में जगह अक्सरि खिाली रिहेती थी, लेकिकन अब मुंशीजी का शंिकत हृदय कुछ शांत हो गया था। उस िदन से उन्होंने मंसारिाम को कभी घरि में जाते न देखिा। यहां तक िक अब वह खेलने भी न जाता था। स्कूल जाने के परहलेक औरि आने के बाद, बरिाबरि अपरने कमरे में बैठा रिहता। गमी के िदन थ, खिुलेक हुए मैदान में भी देह से परसीने की धारें िनकलती थी, लेकिकन मंसारिाम अपरने कमरे से बाहरि न िनकलता। उसका आत्मािभमान आवारिापरन के आक्षेपर से मुक्त होने के िलए िवकल हो रिहा था। वह अपरने आचरिण से इस कलंक को िमटा देना चाहता था।

एक िदन मुंशीजी बैठे भोजन करि रिहे थ, िक मंसारिाम भी नहाकरि खिाने आया, मुंशीजी ने इधरि उसे महीनों से नंगे बदन न देखिा था। आज उस पररि िनगाह परड़ी, तो होश उड़ गये। हिड्डयों का ढांचा सामने खिड़ा था। मुखि पररि अब भी ब्रह्राचयर्म का तेज था, पररि देह घुलकरि कांटा हो गयी थी। परूछा-आजकल तुम्हारिी तबीयत अच्छी नही ह, क्या? इतने दबर्मल क्यों हो?

मंसारिाम ने धोती ओढ़करि कहा-तबीयत तो िबल्कुल अच्छी ह।

मुंशीजी-िफरि इतने दबर्मल क्यों हो?

मंसारिाम- दबर्मल तो नही हंू। मैं इससे ज्यादा मोटा कब था?

मुंशीजी-वाह, आधी देह भी नही रिही औरि कहते हो, मैं दबर्मल नही हंू? क्यों दीदी, यह ऐसा ही था?

रुिक्मणी आंगन में खिड़ी तुलसी को जल चढ़ा रिही थी, बोली-दबला क्यों होगा, अब तो बहुत अच्छी तरिह लालन-परालन हो रिहा ह। मैं गंवािरिन थी, लडकों को िखिलाना-िपरलाना नही जानती थी। खिोमचा िखिला-िखिलाकरि इनकी आदत िबगाड़ देते थी। अब तो एक परढ़ी-िलखिी, गृषहस्थी के कामों में चतुरि औरित परान की तरिह फेरि रिही ह न। दबला हो उसका दश्मन।

मुंशीजी-दीदी, तुम बड़ा अन्याय करिती हो। तुमसे िकसने कहा िक लड़कों को िबगाड़ रिही हो। जो काम दूसरिों के िकये न हो सके, वह तुम्हें खिुद करिने चािहए। यह नही िक घरि से कोई नाता न रिखिो। जो अभी खिुद

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लड़की ह, वह लड़कों की देखि-रेखि क्या करेगी? यह तुम्हारिा काम ह।

रुिक्मणी-जब तक अपरना समझती थी, करिती थी। जब तुमने गैरि समझ िलया, तो मुझे क्या परड़ी ह िक मैं तुम्हारे गलेक से िचपरटंू? परूछो, कै िदन से दूध नही िपरया? जाके कमरे में देखि आओ, नाश्ते के िलए जो िमठाई भेजी गयी थी, वह परड़ी सड़ रिही ह। मालिकन समझती हैं, मैंने तो खिाने का सामान रिखि िदया, कोई न खिाये तो क्या मैं मुंह में डाल दूं? तो भैया, इस तरिह वे लड़के परलते होंगे, िजन्होंने कभी लाड़-प्यारि का सुखि नही देखिा। तुम्हारे लड़के बरिाबरि परान की तरिह फेरे जाते रिहे हैं, अब अनाथों की तरिह रिहकरि सुखिी नही रिह सकते। मैं तो बात साफ कहती हंू। बुरिा मानकरि ही कोई क्या करि लेकगा? उस पररि सुनती हंू िक लड़के को स्कूल में रिखिने का प्रबंध करि रिहे हो। बेचारे को घरि में आने तक की मनाही ह। मेरे परास आते भी डरिता ह, औरि िफरि मेरे परास रिखिा ही क्या रिहता ह, जो जाकरि िखिलाऊंगी।

इतने में मंसारिाम दो फुलके खिाकरि उठ खिड़ा हुआ। मुंशीजी ने परूछा-क्या दो ही फुलके तो िलये थ। अभी बैठे एक िमनट से ज्यादा नही हुआ। तुमने खिाया क्या, दो ही फुलके तो िलये थ।

मंसारिाम ने सकुचाते हुए कहा-दाल औरि तरिकारिी भी तो थी। ज्यादा खिा जाता हंू, तो गला जलने लगता ह, खिट्टी डकारें आने लगती हैं।

मुंशीजी भोजन करिके उठे तो बहुत िचितत थ। अगरि यों ही दबला होता गया, तो उसे कोई भंयकरि रिोग परकड़ लेकगा। उन्हें रुिक्मणी पररि इस समय बहुत क्रोध आ रिहा था। उन्हें यही जलन ह िक मैं घरि की मालिकन नही हंू। यह नही समझती िक मुझे घरि की मालिकन बनने का क्या अिधकारि ह? िजसे रुपरया का िहसाब तक नही अता, वह घरि की स्वािमनी कैसे हो सकती ह? बनी तो थी साल भरि तक मालिकन, एक पराई की बचत न होती थी। इस आमदनी में रूपरकला दो-ढाई सौ रुपरये बचा लेकती थी। इनके रिाज में वही आमदनी खिचर्म को भी परूरिी न परड़ती थी। कोई बात नही, लाड़-प्यारि ने इन लड़कों को चौपरट करि िदया। इतने बड़े-बड़े लड़कों को इसकी क्या जरूरित िक जब कोई िखिलाये तो खिायंे। इन्हें तो खिुद अपरनी िफक्र करिनी चािहए। मुंशी जी िदनभरि उसी उधेड़-बुन में परड़े रिहे। दो-चारि िमत्रों से भी िजक्र िकया। लोगों ने कहा-उसके खेल-कूद में बाधा न डािलए, अभी से उसे कैद न कीिजए, खिुली हवा में चिरित्र के भ्रष्टि होने की उससे कम संभावना ह, िजतना बन्द कमरे में। कुसंगत से जरूरि बचाइए, मगरि यह नही िक उसे घरि से िनकलने ही न दीिजए। युवावस्था में एकान्तवास चिरित्र के िलए बहुत ही हािनकारिक ह। मुंशीजी को अब अपरनी गलती मालूम हुई। घरि लौटकरि मंसारिाम के परास गये। वह अभी स्कूल से आया था औरि िबना कपरड़े उतारे, एक िकताब सामने खिोलकरि, सामने िखिड़की की ओरि ताक रिहा था। उसकी दृषिष्टि एक िभखिािरिन पररि लगी हुई थी, जो अपरने बालक को गोद में िलए िभक्षा मांग रिही थी। बालक माता की गोद में बैठा ऐसा प्रसन्न था, मानो वह िकसी रिाजिसहासन पररि बैठा हो। मंसारिाम उस बालक को देखिकरि रिो परड़ा। यह बालक क्या मुझसे अिधक सुखिी नही ह? इस अन्नत िवश्व में ऐसी कौन-सी वस्तु ह, िजसे वह इस गोद के बदलेक पराकरि प्रसन्न हो? ईश्वरि भी ऐसी वस्तु की सृषिष्टि नही करि सकते। ईश्वरि ऐसे बालकों को जन्म ही क्यों देते हो, िजनके भाग्य में मातृष-िवयोग का दखि भोगना बडा? आज मुझ-सा अभागा संसारि में औरि कौन ह? िकसे मेरे खिाने-परीने की, मरिने-जीने की सुध ह। अगरि मैं आज मरि भी जाऊं, तो िकसके िदल को चोट लगेगी। िपरता को अब मुझे रुलाने में मजा आता ह, वह मेरिी सूरित भी नही देखिना चाहते, मुझे घरि से िनकाल देने की तैयािरियां हो रिही हैं। आह माता। तुम्हारिा लाड़ला बेटा आज आवारिा कहां जा रिहा ह। वही िपरताजी, िजनके हाथ में तुमने हम तीनों भाइयों के हाथ परकड़ाये थ, आज मुझे आवारिा औरि बदमाश कह रिहे हैं। मैं इस योग्य भी नही िक इस घरि में रिह सकूं। यह सोचते-सोचते मंसारिाम अपरारि वेदना से फूट-फूटकरि रिोने लगा।

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उसी समय तोतारिाम कमरे में आकरि खिड़े हो गये। मंसारिाम ने चटपरट आंसू परोंछ डालेक औरि िसरि झुकाकरि खिड़ा हो गया। मुंशीजी ने शायद यह परहली बारि उसके कमरे में कदम रिखिा था। मंसारिाम का िदल धड़धड़ करिने लगा िक देखें आज क्या आफत आती ह। मुंशीजी ने उसे रिोते देखिा, तो एक क्षण के िलए उनका वात्सल्य घेरि िनद्रा से चौंक परड़ा घबरिाकरि बोलेक-क्यों, रिोते क्यों हो बेटा। िकसी ने कुछ कहा ह?

मंसारिाम ने बड़ी मुिश्कल से उमड़ते हुए आंसुआं को रिोककरि कहा- जी नही, रिोता तो नही हंू।

मुंशीजी-तुम्हारिी अम्मां ने तो कुछ नही कहा?

मंसारिाम-जी नही, वह तो मुझसे बोलती ही नही।

मुंशीजी-क्या करुं बेटा, शादी तो इसिलए की थी िक बच्चों को मां िमल जाएेगी, लेकिकन वह आशा परूरिी नही हुई, तो क्या िबल्कुल नही बोलती?

मंसारिाम-जी नही, इधरि महीनों से नही बोली।

मुंशीजी-िविचत्र स्वभाव की औरित ह, मालूम ही नही होता िक क्या चाहती ह? मैं जानता िक उसका ऐसा िमजाज होगा, तो कभी शादी न करिता रिोज एक-न-एक बात लेककरि उठ खिड़ी होती ह। उसी ने मुझसे कहा था िक यह िदन भरि न जाने कहां गायब रिहता ह। मैं उसके िदल की बात क्या जानता था? समझा, तुम कुसंगत में परड़करि शायद िदनभरि घूमा करिते हो। कौन ऐसा िपरता ह, िजसे अपरने प्यारे परुत्र को आवारिा िफरिते देखिकरि रंिज न हो? इसीिलए मैंने तुम्हें बोिडग हाउस में रिखिने का िनश्चय िकया था। बस, औरि कोई बात नही थी, बेटा। मैं तुम्हारिा खेलन-कूदना बंद नही करिना चाहता था। तुम्हारिी यह दशा देखिकरि मेरे िदल के टुकड़े हुए जाते हैं। कल मुझे मालूम हुआ मैं भ्रम में था। तुम शौक से खेलो, सुबह-शाम मैदान में िनकल जाएा करिो। ताजी हवा से तुम्हें लाभ होगा। िजस चीज की जरूरित हो मुझसे कहो, उनसे कहने की जरूरित नही। समझ लो िक वह घरि में ह ही नही। तुम्हारिी माता छोड़करि चली गयी तो मैं तो हंू।

बालक का सरिल िनष्कपरट हृदय िपरतृष-प्रेम से परुलिकत हो उठा। मालूम हुआ िक साक्षात् भगवान् खिड़े हैं। नैरिाश्य औरि क्षोभ से िवकल होकरि उसने मन में अपरने िपरता का िनष्ठुरि औरि न जाने क्या-क्या समझ रिखिा। िवमाता से उसे कोई िगला न था। अब उसे ज्ञात हुआ िक मैंने अपरने देवतुल्य िपरता के साथ िकतना अन्याय िकया ह। िपरतृष-भिक्त की एक तरंिग-सी हृदय में उठी, औरि वह िपरता के चरिणों पररि िसरि रिखिकरि रिोने लगा। मुंशीजी करुणा से िवह्वल हो गये। िजस परुत्र को क्षण भरि आंखिों से दूरि देखिकरि उनका हृदय व्यग्र हो उठता था, िजसके शील, बुिद्ध औरि चिरित्र का अपरने-पररिाये सभी बखिान करिते थ, उसी के प्रित उनका हृदय इतना कठोरि क्यों हो गया? वह अपरने ही िप्रय परुत्र को शत्रु समझने लगे, उसको िनवासन देने को तैयारि हो गये। िनमर्मला परुत्र औरि िपरता के बी में दीवारि बनकरि खिड़ी थी। िनमर्मला को अपरनी ओरि खिीचने के िलए परीछे हटना परड़ता था, औरि िपरता तथा परुत्र में अंतरि बढ़ता जाता था। फलत: आज यह दशा हो गयी ह िक अपरने अिभन्न परुत्र उन्हें इतना छल करिना परड़ रिहा ह। आज बहुत सोचने के बाद उन्हें एक एक ऐसी युिक्त सूझी ह, िजससे आशा हो रिही ह िक वह िनमर्मला को बीच से िनकालकरि अपरने दूसरे बाजू को अपरनी तरिफ खिीच लेंगे। उन्होंने उस युिक्त का आरंिभ भी करि िदया ह, लेकिकन इसमें अभीष्टि िसद्ध होगा या नही, इसे कौन जानता ह।

िजस िदन से तोतोरिाम ने िनमर्मला के बहुत िमन्नत-समाजत करिने पररि भी मंसारिाम को बोिडग हाउस में भेजने का िनश्चय िकया था, उसी िदन से उसने मंसारिाम से परढ़ना छोड़ िदया। यहां तक िक बोलती भी न थी।

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उसे स्वामी की इस अिवश्वासपरूणर्म तत्पररिता का कुछ-कुछ आभास हो गया था। ओफ्फोह। इतना शक्की िमजाज। ईश्वरि ही इस घरि की लाज रिखें। इनके मन में ऐसी-ऐसी दभावनाएं भरिी हुई हैं। मुझे यह इतनी गयी-गुजरिी समझते हैं। ये बातें सोच-सोचकरि वह कई िदन रिोती रिही। तब उसने सोचना शूरू िकया, इन्हें क्या ऐसा संदेह हो रिहा ह? मुझ में ऐसी कौन-सी बात ह, जो इनकी आंखिों में खिटकती ह। बहुत सोचने पररि भी उसे अपरने में कोई ऐसी बात नजरि न आयी। तो क्या उसका मंसारिाम से परढ़ना, उससे हंसना-बोलना ही इनके संदेह का कारिण ह, तो िफरि मैं परढ़ना छोड़ दूंगी, भूलकरि भी मंसारिाम से न बोलूंगी, उसकी सूरित न दखिूंगी।

लेकिकन यह तपरस्या उसे असाध्य जान परड़ती थी। मंसारिाम से हंसने-बोलने में उसकी िवलािसनी कल्परना उत्तेिजत भी होती थी औरि तृषप्त भी। उसे बातें करिते हुए उसे अपरारि सुखि का अनुभव होता था, िजसे वह शब्दों में प्रकट न करि सकती थी। कुवासना की उसके मन में छाया भी न थी। वह स्वप्न में भी मंसारिाम से कलुिषत प्रेम करिने की बात न सोच सकती थी। प्रत्येक प्राणी को अपरने हमजोिलयों के साथ, हंसने-बोलने की जो एक नैसिगक तृषष्णा होती ह, उसी की तृषिप्त का यह एक अज्ञात साधन था। अब वह अतृषप्त तृषष्णा िनमर्मला के हृदय में दीपरक की भांित जलने लगी। रिह-रिहकरि उसका मन िकसी अज्ञात वेदना से िवकल हो जाता। खिोयी हुई िकसी अज्ञात वस्तु की खिोज में इधरि-उधरि घूमती-िफरिती, जहां बैठती, वहां बैठी ही रिह जाती, िकसी काम में जी न लगता। हां, जब मुंशीजी आ जाते, वह अपरनी सारिी तृषष्णाआं को नैरिाश्य में डुबाकरि, उनसे मुस्करिाकरि इधरि-उधरि की बातें करिने लगती।

कल जब मुंशीजी भोजन करिके कचहरिी चलेक गये, तो रुिक्मणी ने िनमर्मला को खिुब तानों से छेदा-जानती तो थी िक यहां बच्चों का परालन-परोषण करिना परड़ेगा, तो क्यों घरिवालों से नही कह िदया िक वहां मेरिा िववाह न करिो? वहां जाती जहां परुरुष के िसवा औरि कोई न होता। वही यह बनाव-चुनाव औरि छिव देखिकरि खिुश होता, अपरने भाग्य को सरिाहता। यहां बुड्ढा आदमी तुम्हारे रंिग-रूपर, हाव-भाव पररि क्या लटू्ट होगा? इसने इन्ही बालकों की सेवा करिने के िलए तुमसे िववाह िकया ह, भोग-िवलास के िलए नही वह बड़ी देरि तक घाव पररि नमक िछड़कती रिही, पररि िनमर्मला ने चूं तक न की। वह अपरनी सफाई तो पेश करिना चाहती थी, पररि न करि सकती थी। अगरि कहे िक मैं वही करि रिही हंू, जो मेरे स्वामी की इच्छा ह तो घरि का भण्डा फूटता ह। अगरि वह अपरनी भूल स्वीकारि करिके उसका सुधारि करिती ह, तो भय ह िक उसका न जाने क्या परिरिणाम हो? वह यों बड़ी स्परष्टिवािदनी थी, सत्य कहने में उसे संकोच या भय न होता था, लेकिकन इस नाजुक मौके पररि उसे चुप्परी साधनी परड़ी। इसके िसवा दूसरिा उपराय न था। वह देखिती थी मंसारिाम बहुत िवरिक्त औरि उदास रिहता ह, यह भी देखिती थी िक वह िदन-िदन दबर्मल होता जाता ह, लेकिकन उसकी वाणी औरि कमर्म दोनों ही पररि मोहरि लगी हुई थी। चोरि के घरि चोरिी हो जाने से उसकी जो दशा होती ह, वही दशा इस समय िनमर्मला की हो रिही थी।

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भाग २जब कोई बात हमारिी आशा के िवरुद्ध होती ह, तभी दखि होता ह। मंसारिाम को िनमर्मला से कभी इस बात

की आशा न थी िक वे उसकी िशकायत करेंगी। इसिलए उसे घोरि वेदना हो रिही थी। वह क्यों मेरिी िशकायत करिती ह? क्या चाहती ह? यही न िक वह मेरे परित की कमाई खिाता ह, इसके परढ़ान-िलखिाने में रुपरये खिचर्म होते हैं, कपरड़ा परहनता ह। उनकी यही इच्छा होगी िक यह घरि में न रिहे। मेरे न रिहने से उनके रुपरये बच जाएंगे। वह मुझसे बहुत प्रसन्निचत्त रिहती हैं। कभी मैंने उनके मुंह से कटु शब्द नही सुने। क्या यह सब कौशल ह? हो सकता ह? िचिड़या को जाल में फंसाने के परहलेक िशकारिी दाने िबखेरिता ह। आह। मैं नही जानता था िक दाने के नीचे जाल ह, यह मातृष-स्नेह केवल मेरे िनवासन की भूिमका ह।

अच्छा, मेरिा यहां रिहना क्यों बुरिा लगता ह? जो उनका परित ह, क्या वह मेरिा िपरता नही ह? क्या िपरता-परुत्र का संबंध स्त्रिी-परुरुष के संबंध से कुछ कम घिनष्टि ह? अगरि मुझे उनके संपरूणर्म आिधपरत्य से ईष्या नही होती, वह जो चाहे करें, मैं मुंह नही खिोल सकता, तो वह मुझे एक अगुंल भरि भूिम भी देना नही चाहती। आपर परक्के महल में रिहकरि क्यों मुझे वृषक्ष की छाया में बैठा नही देखि सकती।

हां, वह समझती होंगी िक वह बड़ा होकरि मेरे परित की सम्परित्त का स्वामी हो जाएेगा, इसिलए अभी से िनकाल देना अच्छा ह। उनको कैसे िवश्वास िदलाऊं िक मेरिी ओरि से यह शंका न करें। उन्हें क्योंकरि बताऊं िक मंसारिाम िवष खिाकरि प्राण दे देगा, इसके परहलेक िक उनका अिहत करि। उसे चाहे िकतनी ही किठनाइयां सहनी परडं वह उनके हृदय का शूल न बनेगा। यों तो िपरताजी ने मुझे जन्म िदया ह औरि अब भी मुझ पररि उनका स्नेह कम नही ह, लेकिकन क्या मैं इतना भी नही जानता िक िजस िदन िपरताजी ने उनसे िववाह िकया, उसी िदन उन्होंने हमें अपरने हृदय से बाहरि िनकाल िदया? अब हम अनाथों की भांित यहां परड़े रिह सकते हैं, इस घरि पररि हमारिा कोई अिधकारि नही ह। कदािचत् परूवर्म संस्कारिों के कारिण यहां अन्य अनाथों से हमारिी दशा कुछ अच्छी ह, पररि हैं अनाथ ही। हम उसी िदन अनाथ हुए, िजस िदन अम्मां जी पररिलोक िसधारिी। जो कुछ कसरि रिह गयी थी, वह इस िववाह ने परूरिी करि दी। मैं तो खिुद परहलेक इनसे िवशेष संबंध न रिखिता था। अगरि, उन्ही िदनों िपरताजी से मेरिी िशकायत की होती, तो शायद मुझे इतना दखि न होता। मैं तो उसे आघात के िलए तैयारि बैठा था। संसारि में क्या मैं मजदूरिी भी नही करि सकता? लेकिकन बुरे वक्त में इन्होंने चोट की। िहसक परशु भी आदमी को गािफल पराकरि ही चोट करिते हैं। इसीिलए मेरिी आवभगत होती थी, खिाना खिाने के िलए उठने में जरिा भी देरि हो जाती थी, तो बुलावे पररि बुलावे आते थ, जलपरान के िलए प्रात: हलुआ बनाया जाता था, बारि-बारि परूछा जाता था-रुपरयों की जरूरित तो नही ह? इसीिलए वह सौ रुपरयों की घड़ी मंगवाई थी।

मगरि क्या इन्हें क्या दूसरिी िशकायत न सूझी, जो मुझे आवारिा कहा? आिखिरि उन्होंने मेरिी क्या आवारिगी देखिी? यह कह सकती थी िक इसका मन परढ़ने-िलखिने में नही लगता, एक-न-एक चीज के िलए िनत्य रुपरये मांगता रिहता ह। यही एक बात उन्हें क्यों सूझी? शायद इसीिलए िक यही सबसे कठोरि आघात ह, जो वह मुझ पररि करि सकती हैं। परहली ही बारि इन्होंने मुझे पररि अिग्न–बाण चला िदया, िजससे कही शरिण नही। इसीिलए न िक वह िपरता की नजरिों से िगरि जाएे? मुझे बोिडग-हाउस में रिखिने का तो एक बहाना था। उद्देश्य यह था िक इसे दूध की मक्खिी की तरिह िनकाल िदया जाएे। दो-चारि महीने के बाद खिचर्म-वचर्म देना बंद करि िदया जाएे, िफरि चाहे मरे या िजये। अगरि मैं जानता िक यह प्रेरिणा इनकी ओरि से हुई ह, तो कही जगह न रिहने पररि भी जगह िनकाल लेकता। नौकरिों की कोठिरियों में तो जगह िमल जाती, बरिामदे में परड़े रिहने के िलए बहुत जगह िमल जाती।

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खिैरि, अब सबेरिा ह। जब स्नेह नही रिहा, तो केवल पेट भरिने के िलए यहां परड़े रिहना बेहयाई ह, यह अब मेरिा घरि नही। इसी घरि में परैदा हुआ हंू, यही खेला हंू, पररि यह अब मेरिा नही। िपरताजी भी मेरे िपरता नही हैं। मैं उनका परुत्र हंू, पररि वह मेरे िपरता नही हैं। संसारि के सारे नाते स्नेह के नाते हैं। जहां स्नेह नही, वहां कुछ नही। हाय, अम्मांजी, तुम कहां हो?

यह सोचकरि मंसारिाम रिोने लगा। ज्यों-ज्यों मातृष स्नेह की परूवर्म-स्मृषितयां जागृषत होती थी, उसके आंसू उमड़ते आते थ। वह कई बारि अम्मां-अम्मां परुकारि उठा, मानो वह खिड़ी सुन रिही हैं। मातृष-हीनता के द:खि का आज उसे परहली बारि अनुभव हुआ। वह आत्मािभमानी था, साहसी था, पररि अब तक सुखि की गोद में लालन-परालन होने के कारिण वह इस समय अपरने आपर को िनरिाधारि समझ रिहा था।

रिात के दस बज गये थ। मुंशीजी आज कही दावत खिाने गये हुए थ। दो बारि महरिी मंसारिाम को भोजन करिने के िलए बुलाने आ चुकी थी। मंसारिाम ने िपरछली बारि उससे झंुझलाकरि कह िदया था-मुझे भूखि नही ह, कुछ न खिाऊंगा। बारि-बारि आकरि िसरि पररि सवारि हो जाती ह। इसीिलए जब िनमर्मला ने उसे िफरि उसी काम के िलए भेजना चाहा, तो वह न गयी।

बोली-बहूजी, वह मेरे बुलाने से न आवेंगे।

िनमर्मला-आयंेगे क्यों नही? जाकरि कह दे खिाना ठण्डा हुआ जाता ह। दो चारि कौरि खिा लें।

महरिी-मैं यह सब कह के हारि गयी, नही आते।

िनमर्मला-तूने यह कहा था िक वह बैठी हुई हैं।

महरिी-नही बहूजी, यह तो मैंने नही कहा, झूठ क्यों बोलूं।

िनमर्मला-अच्छा, तो जाकरि यह कह देना, वह बैठी तुम्हारिी रिाह देखि रिही हैं। तुम न खिाओगे तो वह रिसोई उठाकरि सो रिहेंगी। मेरिी भूंगी, सुन, अबकी औरि चली जा। (हंसकरि) न आवें, तो गोद में उठा लाना।

भूंगी नाक-भौं िसकोड़ते गयी, पररि एक ही क्षण में आकरि बोली-अरे बहूजी, वह तो रिो रिहे हैं। िकसी ने कुछ कहा ह क्या?

िनमर्मला इस तरिह चौककरि उठी औरि दो-तीन परग आगे चली, मानो िकसी माता ने अपरने बेटे के कुएं में िगरि परड़ने की खिबरि परायी हो, िफरि वह िठठक गयी औरि भूंगी से बोली-रिो रिहे हैं? तूने परूछा नही क्यों रिो रिहे हैं?

भूंगी- नही बहूजी, यह तो मैंने नही परूछा। झूठ क्यों बोलूं?

वह रिो रिहे हैं। इस िनस्तबध रिाित्र में अकेलेक बैठै हुए वह रिो रिहे हैं। माता की याद आयी होगी? कैसे जाकरि उन्हें समझाऊं? हाय, कैसे समझाऊ?ं यहां तो छीकते नाक कटती ह। ईश्वरि, तुम साक्षी हो अगरि मैंने उन्हें भूल से भी कुछ कहा हो, तो वह मेरे गे आये। मैं क्या करुं? वह िदल में समझते होंगे िक इसी ने िपरताजी से मेरिी िशकायत की होगी। कैसे िवश्वास िदलाऊं िक मैंने कभी तुम्हारे िवरुद्ध एक शब्द भी मुंह से नही िनकाला? अगरि मैं ऐसे देवकुमारि के-से चिरित्र रिखिने वालेक युवक का बुरिा चेतंू, तो मुझसे बढ़करि रिाक्षसी संसारि में न होगी।

िनमर्मला देखिती थी िक मंसारिाम का स्वास्थ्य िदन-िदन िबगड़ता जाता ह, वह िदन-िदन दबर्मल होता जाता ह, उसके मुखि की िनमर्मल कांित िदन-िदन मिलन होती जाती ह, उसका सहास बदन संकुिचत होता जाता ह। इसका कारिण भी उससे िछपरा न था, पररि वह इस िवषय में अपरने स्वामी से कुछ न कह सकती थी। यह सब देखि-

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देखिकरि उसका हृदय िवदीणर्म होता रिहता था, पररि उसकी जबान न खिुल सकती थी। वह कभी-कभी मन में झंुझलाती िक मंसारिाम क्यों जरिा-सी बात पररि इतना क्षोभ करिता ह? क्या इनके आवारिा कहने से वह आवारिा हो गया? मेरिी औरि बात ह, एक जरिा-सा शक मेरिा सवर्मनाश करि सकता ह, पररि उसे ऐसी बातों की इतनी क्या पररिवाह?

उसके जी में प्रबल इच्छा हुई िक चलकरि उन्हें चुपर करिाऊं औरि लाकरि खिाना िखिला दूं। बेचारे रिात-भरि भूखे परड़े रिहेंगे। हाय। मैं इस उपरद्रव की जड़ हंू। मेरे आने के परहलेक इस घरि में शांित का रिाज्य था। िपरता बालकों पररि जान देता था, बालक िपरता को प्यारि करिते थ। मेरे आते ही सारिी बाधाएं आ खिड़ी हुइं। इनका अंत क्या होगा? भगवान् ही जाने। भगवान् मुझे मौत भी नही देते। बेचारिा अकेलेक भूखिों परड़ा ह। उस वक्त भी मुंह जुठा करिके उठ गया था। औरि उसका आहारि ही क्या ह, िजतना वह खिाता ह, उतना तो साल-दो-साल के बच्चे खिा जाते हैं।

िनमर्मला चली। परित की इच्छा के िवरुद्ध चली। जो नाते में उसका परुत्र होता था, उसी को मनाने जाते उसका हृदय कांपर रिहा था। उसने परहलेक रुिक्मणी के कमरे की ओरि देखिा, वह भोजन करिके बेखिबरि सो रिही थी, िफरि बाहरि कमरे की ओरि गयी। वहां सन्नाटा था। मुंशी अभी न आये थ। यह सब देखि-भालकरि वह मंसारिाम के कमरे के सामने जा परहंुची। कमरिा खिुला हुआ था, मंसारिाम एक परुस्तक सामने रिखे मेज पररि िसरि झुकाये बैठा हुआ था, मानो शोक औरि िचन्ता की सजीव मूित हो। िनमर्मला ने परुकारिना चाहा पररि उसके कंठ से आवाज न िनकली।

सहसा मंसारिाम ने िसरि उठाकरि द्वारि की ओरि देखिा। िनमर्मला को देखिकरि अंधेरे में परहचान न सका। चौंककरि बोला-कौन?

िनमर्मला ने कांपरते हुए स्वरि में कहा-मैं तो हंू। भोजन करिने क्यों नही चल रिहे हो? िकतनी रिात गयी।

मंसारिाम ने मुंह फेरिकरि कहा-मुझे भूखि नही ह।

िनमर्मला-यह तो मैं तीन बारि भूंगी से सुन चुकी हंू।

मंसारिाम-तो चौथी बारि मेरे मुंह से सुन लीिजए।

िनमर्मला-शाम को भी तो कुछ नही खिाया था, भूखि क्यों नही लगी?

मंसारिाम ने व्यंग्य की हंसी हंसकरि कहा-बहुत भूखि लगेगी, तो आयेग कहां से?

यह कहते-कहते मंसारिाम ने कमरे का द्वारि बंद करिना चाहा, लेकिकन िनमर्मला िकवाड़ों को हटाकरि कमरे में चली आयी औरि मंसारिाम का हाथ परकड़ सजल नेत्रों से िवनय-मधुरि स्वरि में बोली-मेरे कहने से चलकरि थोड़ा-सा खिा लो। तुम न खिाओगे, तो मैं भी जाकरि सो रिहंूगी। दो ही कौरि खिा लेकना। क्या मुझे रिात-भरि भूखिों मारिना चाहते हो?

मंसारिाम सोच में परड़ गया। अभी भोजन नही िकया, मेरे ही इंतजारि में बैठी रिही। यह स्नेह, वात्सल्य औरि िवनय की देवी हैं या ईष्या औरि अमंगल की मायािवनी मूित? उसे अपरनी माता का स्मरिण हो आया। जब वह रुठ जाता था, तो वे भी इसी तरिह मनाने आ करिती थी औरि जब तक वह न जाता था, वहां से न उठती थी। वह इस िवनय को अस्वीकारि न करि सका। बोला-मेरे िलए आपरको इतना कष्टि हुआ, इसका मुझे खेद ह। मैं जानता िक आपर मेरे इंतजारि में भूखिी बैठी हैं, तो तभी खिा आया होता।

िनमर्मला ने ितरिस्कारि-भाव से कहा-यह तुम कैसे समझ सकते थ िक तुम भूखे रिहोगे औरि मैं खिाकरि सो

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रिहंूगी? क्या िवमाता का नाता होने से ही मैं ऐसी स्वािथनी हो जाऊंगी?

सहसा मदाने कमरे में मुंशीजी के खिांसने की आवाज आयी। ऐसा मालूम हुआ िक वह मंसारिाम के कमरे की ओरि आ रिहे हैं। िनमर्मला के चेहरे का रंिग उड़ गया। वह तुरंित कमरे से िनकल गयी औरि भीतरि जाने का मौका न पराकरि कठोरि स्वरि में बोली-मैं लौंडी नही हंू िक इतनी रिात तक िकसी के िलए रिसोई के द्वारि पररि बैठी रिहंू। िजसे न खिाना हो, वह परहलेक ही कह िदया करे।

मुंशीजी ने िनमर्मला को वहां खिड़े देखिा। यह अनथर्म। यह यहां क्या करिने आ गयी? बोलेक-यहां क्या करि रिही हो?

िनमर्मला ने ककरश स्वरि में कहा-करि क्या रिही हंू, अपरने भाग्य को रिो रिही हंू। बस, सारिी बुरिाइयों की जड़ मैं ही हंू। कोई इधरि रुठा ह, कोई उधरि मुंह फुलाये खिड़ा ह। िकस-िकस को मनाऊं औरि कहां तक मनाऊं।

मुंशीजी कुछ चिकत होकरि बोलेक-बात क्या ह?

िनमर्मला-भोजन करिने नही जाते औरि क्या बात ह? दस दफे महरिी को भेजा, आिखिरि आपर दौड़ी आयी। इन्हें तो इतना कह देना आसान ह, मुझे भूखि नही ह, यहां तो घरि भरि की लौंडी हंू, सारिी दिनया मुंह में कािलखि परोतने को तैयारि। िकसी को भूखि न हो, पररि कहने वालों को यह कहने से कौन रिोकेगा िक िपरशािचनी िकसी को खिाना नही देती।

मुंशीजी ने मंसारिाम से कहा-खिाना क्यों नही खिा लेकते जी? जानते हो क्या वक्त ह?

मंसारिाम िस्त्म्भत-सा खिड़ा था। उसके सामने एक ऐसा रिहस्य हो रिहा था, िजसका ममर्म वह कुछ भी न समझ सकताथा। िजन नेत्रों में एक क्षण परहलेक िवनय के आंसू भरे हुए थ, उनमें अकस्मात् ईष्या की ज्वाला कहां से आ गयी? िजन अधरिों से एक क्षण परहलेक सुधा-वृषिष्टि हो रिही थी, उनमें से िवष प्रवाह क्यों होने लगा? उसी अधर्म चेतना की दशा में बोला-मुझे भूखि नही ह।

मुंशीजी ने घुड़ककरि कहा-क्यों भूखि नही ह? भूखि नही थी, तो शाम को क्यों न कहला िदया? तुम्हारिी भूखि के इंतजारि में कौन सारिी रिात बैठा रिहे? तुममें परहलेक तो यह आदत न थी। रुठना कब से सीखि िलया? जाकरि खिा लो।

मंसारिाम-जी नही, मुझे जरिा भी भूखि नही ह।

तोतारिाम-ने दांत परीसकरि कहा-अच्छी बात ह, जब भूखि लगे तब खिाना। यह कहते हुए एवह अंदरि चलेक गये। िनमर्मला भी उनके परीछे ही चली गयी। मुंशीजी तो लेकटने चलेक गये, उसने जाकरि रिसोई उठा दी औरि कुल्लाकरि, परान खिा मुस्करिाती हुई आ परहंुची। मुंशीजी ने परूछा-खिाना खिा िलया न?

िनमर्मला-क्या करिती, िकसी के िलए अन्न-जल छोड़ दूंगी?

मुंशीजी-इसे न जाने क्या हो गया ह, कुछ समझ में नही आता? िदन-िदन घुलता चला जाता ह, िदन भरि उसी कमरे में परड़ा रिहता ह।

िनमर्मला कुछ न बोली। वह िचता के अपरारि सागरि में डुबिकयां खिा रिही थी। मंसारिाम ने मेरे भाव-परिरिवतर्मन को देखिकरि िदल में क्या-क्या समझा होगा? क्या उसके मन में यह प्रश्न उठा होगा िक िपरताजी को देखिते ही इसकी त्योिरियं क्यों बदल गयी? इसका कारिण भी क्या उसकी समझ में आ गया होगा? बेचारिा खिाने आ रिहा था,

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तब तक यह महाशय न जाने कहां से फट परड़े? इस रिहस्य को उसे कैसे समझाऊं समझाना संभव भी ह? मैं िकस िवपरित्त में फंस गयी?

सवेरे वह उठकरि घरि के काम-धंधे में लगी। सहसा नौ बजे भूंगी ने आकरि कहा-मंसा बाबू तो अपरने कागज-परत्तरि सब इक्के पररि लाद रिहे हैं।

भूंगी-मैंने परूछा तो बोलेक, अब स्कूल में ही रिहंूगा।

मंसारिाम प्रात:काल उठकरि अपरने स्कूल के हेडमास्टरि साहब के परास गया था औरि अपरने रिहने का प्रबंध करि आया था। हेडमास्टरि साहब ने परहलेक तो कहा-यहां जगह नही ह, तुमसे परहलेक के िकतने ही लड़कों के प्राथर्मना-परत्र परडे हुए हैं, लेकिकन जब मंसारिाम ने कहा-मुझे जगह न िमलेकगी, तो कदािचत् मेरिा परढ़ना न हो सके औरि मैं इम्तहान में शरिीक न हो सकूं, तो हेडमास्टरि साहब को हारि माननी परड़ी। मंसारिाम के प्रथम श्रेणी में परास होने की आशा थी। अध्यापरकों को िवश्वास था िक वह उस शाला की कीित को उज्जवल करेगा। हेडमास्टरि साहब ऐसे लड़कों को कैसे छोड़ सकते थ? उन्होने अपरने दफ्तरि का कमरिा खिाली करिा िदया। इसीिलए मंसारिाम वहां से आते ही अपरना सामान इक्के पररि लादने लगा।

मुंशीजी ने कहा-अभी ऐसी क्या जल्दी ह? दो-चारि िदन में चलेक जाना। मैं चाहता हंू, तुम्हारे िलए कोई अच्छा सा रिसोइया ठीक करि दूं।

मंसारिाम-वहां का रिसोइया बहुत अच्छा भोजन परकाता ह।

मुंशीजी-अपरने स्वास्थ्य का ध्यान रिखिना। ऐसा न हो िक परढ़ने के परीछे स्वास्थ्य खिो बैठो।

मंसारिाम-वहां नौ बजे के बाद कोई परढ़ने नही पराता औरि सबको िनयम के साथ खेलना परड़ता ह।

मुंशी जी-िबस्तरि क्यों छोड़ देते हो? सोओगे िकस पररि?

मंसारिाम-कंबल िलए जाता हंू। िबस्तरि जरुरित नही।

मुंशी जी-कहारि जब तक तुम्हारिा सामान रिखि रिहा ह, जाकरि कुछ खिा लो। रिात भी तो कुछ नही खिाया था।

मंसारिाम-वही खिा लूंगा। रिसोइये से भोजन बनाने को कह आया हंू यहां खिाने लगूंगा तो देरि होगी।

घरि में िजयारिाम औरि िसयारिाम भी भाई के साथ जाने के िजद करि रिहे थ िनमर्मला उन दोनों के बहला रिही थी-बेटा, वहां छोटे नही रिहते, सब काम अपरने ही हाथ से करिना परड़ता ह।

एकाएक रुिक्मणी ने आकरि कहा-तुम्हारिा वज्र का हृदय ह, महारिान। लड़के ने रिात भी कुछ नही खिाया, इस वक्त भी िबना खिाय-परीये चला जा रिहा ह औरि तुम लड़को के िलए बातें करि रिही हो? उसको तुम जानती नही हो। यह समझ लो िक वह स्कूल नही जा रिहा ह, बनवास लेक रिहा ह, लौटकरि िफरि न आयेगा। यह उन लड़कों में नही ह, जो खेल में मारि भूल जाते हैं। बात उसके िदल पररि परत्थरि की लकीरि हो जाती ह।

िनमर्मला ने कातरि स्वरि में कहा-क्या करुं, दीदीजी? वह िकसी की सुनते ही नही। आपर जरिा जाकरि बुला लें। आपरके बुलाने से आ जाएंगे।

रुिक्मणी- आिखिरि हुआ क्या, िजस पररि भागा जाता ह? घरि से उसका जी कभ उचाट न होता था। उसे तो अपरने घरि के िसवा औरि कही अच्छा ही न लगता था। तुम्ही ने उसे कुछ कहा होगा, या उसकी कुछ िशकायत की

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होगी। क्यों अपरने िलए कांटे बो रिही हो? रिानी, घरि को िमट्टी में िमलाकरि चैन से न बैठने पराओगी।

िनमर्मला ने रिोकरि कहा-मैंने उन्हें कुछ कहा हो, तो मेरिी जबान कट जाऐ। हां, सौतेली मां होने के कारिण बदनाम तो हंू ही। आपरके हाथ जोड़ती हंू जरिा जाकरि उन्हें बुला लाइये।

रुिक्मणी ने तीव्र स्वरि में कहा- तुम क्यों नही बुला लाती? क्या छोटी हो जाओगी? अपरना होता, तो क्या इसी तरिह बैठी रिहती?

िनमर्मला की दशा उस परंखिहीन परक्षी की तरिह हो रिही थी, जो सपरर्म को अपरनी ओरि आते देखि करि उड़ना चाहता ह, पररि उड़ नही सकता, उछलता ह औरि िगरि परड़ता ह, परंखि फड़फड़ाकरि रिह जाता ह। उसका हृदय अंदरि ही अंदरि तड़पर रिहा था, पररि बाहरि न जा सकती थी।

इतने में दोनों लड़के आकरि बोलेक-भैयाजी चलेक गये।

िनमर्मला मूितवत् खिड़ी रिही, मानो संज्ञाहीन हो गयी हो। चलेक गये? घरि में आये तक नही, मुझसे िमलेक तक नही चलेक गये। मुझसे इतनी घृषणा। मैं उनकी कोई न सही, उनकी बुआ तो थी। उनसे तो िमलने आना चािहए था? मैं यहां थी न। अंदरि कैसे कदम रिखिते? मैं देखि लेकती न। इसीिलए चलेक गये।

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अध्याय-५मंलसारिाम के जाने से घरि सूना हो गया। दोनों छोटे लड़के उसी स्कूल में परढ़ते थ। िनमर्मला रिोज उनसे

मंसारिाम का हाल परूछती। आशा थी िक छुट्टी के िदन वह आयेगा, लेकिकन जब छुट्टी के िदन गुजरि गये औरि वह न आया, तो िनमर्मला की तबीयत घबरिाने लगी। उसने उसके िलए मूंग के लड्डू बना रिखे थ। सोमवारि को प्रात: भूंगी का लड्डू देकरि मदरिसे भेजा। नौ बजे भूंगी लौट आयी। मंसारिाम ने लड्डू ज्यों-के-त्यों लौटा िदये थ।

िनमर्मला ने परूछा-परहलेक से कुछ हरे हुए हैं, रे?

भूंगी-हरे-वरे तो नही हुए, औरि सूखि गये हैं।

िनमर्मला- क्या जी अच्छा नही ह?

भूंगी-यह तो मैंने नही परूछा बहूजी, झूठ क्यों बोलूं? हां, वहां का कहारि मेरिा देवरि लगता ह । वह कहता था िक तुम्हारे बाबूजी की खिुरिाक कुछ नही ह। दो फुलिकयां खिाकरि उठ जाते हैं, िफरि िदन भरि कुछ नही खिाते। हरिदम परढ़ते रिहते हैं।

िनमर्मला-तूने परूछा नही, लड्डू क्यों लौटाये देते हो?

भूंगी- बहूजी, झूठ क्यों बोलूं? यह परूछने की तो मुझे सुध ही न रिही। हां, यह कहते थ िक अब तू यहां कभी न आना, न मेरे िलए कोई चीज लाना औरि अपरनी बहूजी से कह देना िक मेरे परास कोई िचट्ठी-परत्तरिी न भेजें। लड़कों से भी मेरे परास कोई संदेशा न भेजें औरि एक ऐसी बात कही िक मेरे मुंह से िनकल नही सकती, िफरि रिोने लगे।

िनमर्मला-कौन बात थी कह तो?

भूंगी-क्या कहंू कहते थ मेरे जीने को धीक्कारि ह? यही कहकरि रिोने लगे।

िनमर्मला के मुंह से एक ठंडी सांस िनकल गयी। ऐसा मालूम हुआ, मानो कलेकजा बैठा जाता ह। उसका रिोम-रिोम आतर्मनाद करिने लगा। वह वहां बैठी न रिह सकी। जाकरि िबस्तरि पररि मुंह ढांपरकरि लेकट रिही औरि फूट-फूटकरि रिोने लगी। ‘वह भी जान गये’। उसके अन्त:करिण में बारि-बारि यही आवाज गूंजने लगी-‘वह भी जान गये’। भगवान् अब क्या होगा? िजस संदेह की आग में वह भस्म हो रिही थी, अब शतगुण वेग से धधकने लगी। उसे अपरनी कोई िचता न थी। जीवन में अब सुखि की क्या आशा थी, िजसकी उसे लालसा होती? उसने अपरने मन को इस िवचारि से समझाया था िक यह मेरे परूवर्म कमों का प्रायिश्चत ह। कौन प्राणी ऐसा िनलर्मज्ज होगा, जो इस दशा में बहुत िदन जी सके? कत्तर्मव्य की वेदी पररि उसने अपरना जीवन औरि उसकी सारिी कामनाएं होम करि दी थी। हृदय रिोता रिहता था, पररि मुखि पररि हंसी का रंिग भरिना परड़ता था। िजसका मुंह देखिने को जी न चाहता था, उसके सामने हंस-हंसकरि बातें करिनी परड़ती थी। िजस देह का स्परशर्म उसे सपरर्म के शीतल स्परशर्म के समान लगता था, उससे आिलिगत होकरि उसे िजतनी घृषणा, िजतनी ममर्मवेदना होती थी, उसे कौन जान सकता ह? उस समय उसकी यही इच्छा थी िक धरिती फट जाएे औरि मैं उसमें समा जाऊं। लेकिकन सारिी िवडम्बना अब तक अपरने ही तक थी। अपरनी िचता उसन छोड़ दी थी, लेकिकन वह समस्या अब अत्यंत भयंकरि हो गयी थी। वह अपरनी आंखिों से मंसारिाम की आत्मपरीड़ा नही देखि सकती थी। मंसारिाम जैसे मनस्वी, साहसी युवक पररि इस आक्षेपर का जो असरि परड़ सकता था, उसकी कल्परना ही से उसके प्राण कांपर उठते थ। अब चाहे उस पररि िकतने ही संदेह क्यों न हों, चाहे उसे

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आत्महत्या ही क्यों न करिनी परड़े, पररि वह चुपर नही बैठ सकती। मंसारिाम की रिक्षा करिने के िलए वह िवकल हो गयी। उसने संकोच औरि लज्जा की चादरि उतारिकरि फेंक देने का िनश्चय करि िलया।

वकील साहब भोजन करिके कचहरिी जाने के परहलेक एक बारि उससे अवश्य िमल िलया करिते थ। उनके आने का समय हो गया था। आ ही रिहे होंगे, यह सोचकरि िनमर्मला द्वारि पररि खिड़ी हो गयी औरि उनका इंतजारि करिने लगी लेकिकन यह क्या? वह तो बाहरि चलेक जा रिहे ह। गाड़ी जुतकरि आ गयी, यह हुक्म वह यही से िदया करिते थ। तो क्या आज वह न आयंेगे, बाहरि-ही-बाहरि चलेक जाएंगे। नही, ऐसा नही होने परायेगा। उसने भूंगी से कहा-जाकरि बाबूजी को बुला ला। कहना, एक जरुरिी काम ह, सुन लीिजए।

मुंशीजी जाने को तैयारि ही थ। यह संदेशा पराकरि अंदरि आये, पररि कमरे में न आकरि दूरि से ही परूछा-क्या बात ह भाई? जल्दी कह दो, मुझे एक जरुरिी काम से जाना ह। अभी थोड़ी देरि हुई, हेडमास्टरि साहब का एक परत्र आया ह िक मंसारिाम को ज्वरि आ गया ह, बेहतरि हो िक आपर घरि ही पररि उसका इलाज करें। इसिलए उधरि ही से हाता हुआ कचहरिी जाऊंगा। तुम्हें कोई खिास बात तो नही कहनी ह।

िनमर्मला पररि मानो वज्र िगरि परड़ा। आंसुआं के आवेग औरि कंठ-स्वरि में घोरि संग्राम होने लगा। दोनों परहलेक िनकलने पररि तुलेक हुए थ। दो में से कोई एक कदम भी परीछे हटना नही चाहता था। कंठ-स्वरि की दबर्मलता औरि आंसुआं की सबलता देखिकरि यह िनश्चय करिना किठन नही था िक एक क्षण यही संग्राम होता रिहा तो मैदान िकसके हाथ रिहेगा। अखिीरि दोनों साथ-साथ िनकलेक, लेकिकन बाहरि आते ही बलवान ने िनबर्मल को दबा िलया। केवल इतना मुंह से िनकला-कोई खिास बात नही थी। आपर तो उधरि जा ही रिहे हैं।

मुंशीजी- मैंने लड़कों परूछा था, तो वे कहते थ, कल बैठे परढ़ रिहे थ, आज न जाने क्या हो गया।

िनमर्मला ने आवेश से कांपरते हुए कहा-यह सब आपर करि रिहे हैं

मुंशीजी ने त्योिरियां बदलकरि कहा-मैं करि रिहा हंू? मैं क्या करि रिहा हंू?

िनमर्मला-अपरने िदल से परूिछए।

मुंशीजी-मैंने तो यही सोचा था िक यहां उसका परढ़ने में जी नही लगता, वहां औरि लड़कों के साथ खिामाख्वह परढ़ेगा ही। यह तो बुरिी बात न थी औरि मैंने क्या िकया?

िनमर्मला-खिूब सोिचए, इसीिलए आपरने उन्हें वहां भेजा था? आपरके मन में औरि कोई बात न थी।

मुंशीजी जरिा िहचिकचाए औरि अपरनी दबर्मलता को िछपराने के िलए मुस्करिाने की चेष्टिा करिके बोलेक-औरि क्या बात हो सकती थी? भला तुम्ही सोचो।

िनमर्मला-खिैरि, यही सही। अब आपर कृपरा करिके उन्हें आज ही लेकते आइयेगा, वहां रिहने से उनकी बीमारिी बढ़ जाने का भय ह। यहां दीदीजी िजतनी तीमारिदारिी करि सकती हैं, दूसरिा नही करि सकता।

एक क्षण के बाद उसने िसरि नीचा करिके कहा-मेरे कारिण न लाना चाहते हों, तो मुझे घरि भेज दीिजए। मैं वहां आरिाम से रिहंूगी।

मुंशीजी ने इसका कुछ जवाब न िदया। बाहरि चलेक गये, औरि एक क्षण में गाड़ी स्कूल की ओरि चली।

मन। तेरिी गित िकतनी िविचत्र ह, िकतनी रिहस्य से भरिी हुई, िकतनी दभर्तेद्य। तू िकतनी जल्द रंिग बदलता

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ह? इस कला में तू िनपरुण ह। आितशबाजी की चखिी को भी रंिग बदलते कुछ देरिी लगती ह, पररि तुझे रंिग बदलने में उसका लक्षांश समय भी नही लगता। जहां अभी वात्सल्य था, वहां िफरि संदेह ने आसन जमा िलया।

वह सोचते थ-कही उसने बहाना तो नही िकया ह?

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भाग २मंलसारिाम दो िदन तक गहरिी िचता में डूबा रिहा। बारि-बारि अपरनी माता की याद आती, न खिाना अच्छा

लगता, न परढ़ने ही में जी लगता। उसकी कायापरलट-सी हो गई। दो िदन गुजरि गये औरि छात्रालय में रिहते हुए भी उसने वह काम न िकया, जो स्कूल के मास्टरिों ने घरि से करि लाने को िदया था। परिरिणाम स्वरुपर उसे बेंच पररि खिड़ा रिहना परड़ा। जो बात कभी न हुई थी, वह आज हो गई। यह असह्य अपरमान भी उसे सहना परड़ा।

तीसरे िदन वह इन्ही िचताआं में मग्न हुआ अपरने मन को समझा रिहा था-कहा संसारि में अकेलेक मेरिी ही माता मरिी ह? िवमाताएं तो सभी इसी प्रकारि की होती हैं। मेरे साथ कोई नई बात नही हो रिही ह। अब मुझे परुरुषों की भांित िद्वगुण परिरिश्रम से अपरना म करिना चािहए, जैसे माता-िपरता रिाजी रिहें, वैसे उन्हें रिाजी रिखिना चािहए। इस साल अगरि छात्रवृषित िमल गई, तो मुझे घरि से कुछ लेकने की जरुरित ही न रिहेगी। िकतने ही लड़के अपरने ही बल पररि बड़ी-बड़ी उपरािधयां प्राप्त करि लेकते हैं। भागय के नाम को रिोने-कोसने से क्या होगा।

इतने में िजयारिाम आकरि खिड़ा हो गया।

मंसारिाम ने परूछा-घरि का क्या हाल ह िजया? नई अम्मांजी तो बहुत प्रसन्न होंगी?

िजयारिाम-उनके मन का हाल तो मैं नही जानता, लेकिकन जब से तुम आये हो, उन्होने एक जून भी खिाना नही खिाया। जब देखिो, तब रिोया करिती हैं। जब बाबूजी आते हैं, तब अलबत्ता हंसने लगती हैं। तुम चलेक आये तो मैंने भी शाम को अपरनी िकताबें संभाली। यही तुम्हारे साथ रिहना चाहता था। भूंगी चुड़ैल ने जाकरि अम्मांजी से कह िदया। बाबूजी बैठे थ, उनके सामने ही अम्मांजी ने आकरि मेरिी िकताबें छीन ली औरि रिोकरि बोली, तुम भी चलेक जाओगे, तो इस घरि में कौन रिहेगा? अगरि मेरे कारिण तुम लोग घरि छोड़-छोड़करि भागे जा रिहे तो लो, मैं ही कही चली जाती हंू। मैं तो झल्लाया हुआ था ही, वहां अब बाबूजी भी न थ, िबगड़करि बोला, आपर क्यों कही चली जाएंगी? आपरका तो घरि ह, आपर आरिाम से रििहए। गैरि तो हमी लोग हैं, हम न रिहेंगे, तब तो आपरको आरिाम-आरिाम ही होग।

मंसारिाम-तुमने खिूब कहा, बहुत ही अच्छा कहा। इस पररि औरि भी झल्लाई होंगी औरि जाकरि बाबूजी से िशकायत की होगी।

िजयारिाम-नही, यह कुछ नही हुआ। बेचारिी जमीन पररि बैठकरि रिोने लगी। मुझे भी करुणा आ गयी। मैं भी रिो परड़ा। उन्होने आंचल से मेरे आंसू परोंछे औरि बोली, िजया। मैं ईश्वरि को साक्षी देकरि कहती हंू िक मैंने तुम्हारे भैया केइिवषय में तुम्हारे बाबूजी से एक शब्द भी नही कहा। मेरे भाग में कलंक िलखिा हुआ ह, वही भाग रिही हंू। िफरि औरि न जाने क्या-क्या कहा, जा मेरिी समझ में नही आया। कुछ बाबुजी की बात थी।

मंसारिाम ने उिद्वग्नता से परूछा-बाबूजी के िवषय में क्या कहा? कुछ याद ह?

िजयारिाम-बातें तो भई, मुझे याद नही आती। मेरिी ‘मेमोरिी’ कौन बड़ी ते ह, लेकिकन उनकी बातों का मतलब कुछ ऐसा मालूम होता था िक उन्हें बाबूजी को प्रसन्न रिखिने के िलए यह स्वांग भरिना परड़ रिहा ह। न जाने धमर्म-अधमर्म की कैसी बातें करिती थी जो मैं िबल्कुल न समझ सका। मुझे तो अब इसका िवश्वास आ गया ह िक उनकी इच्छा तुम्हें यहां भेजन की न थी।

मंसारिाम- तुम इन चालों का मतलब नही समझ सकते। ये बड़ी गहरिी चालें हैं।

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िजयारिाम- तुम्हारिी समझ में होंगी, मेरिी समझ में नही हैं।

मंसारिाम- जब तुम ज्योमेट्री नही समझ सकते, तो इन बातों को क्या समझ सकोगे? उस रिात को जब मुझे खिाना खिाने के िलए बुलाने आयी थी औरिउनके आग्रह पररि मैं जाने को तैयारि भी हो गया था, उस वक्त बाबूजी को देखिते ही उन्होने जो कैंडा बदला, वह क्या मैं कभी भी भूल सकता हंू?

िजयारिाम-यही बात मेरिी समझ में नही आती। अभी कल ही मैं यहां से गया, तो लगी तुम्हारिा हाल परूछने। मैंने कहा, वह तो कहते थ िक अब कभी इस घरि में कदम न रिखिूंगा। मैंने कुछ झूठ तो कहा नही, तुमने मुझसे कहा ही था। इतना सुनना था िक फूट-फूटकरि रिोने लगी मैं िदल में बहुत परछताया िक कहां-से-कहां मैंने यह बात कह दी। बारि-बारि यही कहती थी, क्या वह मेरे कारिण घरि छोड़ देंगे? मुझसे इतने नारिाज ह।? चलेक गये औरि मझसे िमलेक तक नही। खिाना तैयारि था, खिाने तक नही आये। हाय। मैं क्या बताऊं, िकस िवपरित्त में हंू। इतने में बाबूजी आ गये। बस तुरिन्त आंखें परोंछकरि मुस्कुरिाती हुई उनके परास चली गई। यह बात मेरिी समझ में नही आती। आज मुझे बड़ी िमन्नत की िक उनको साथ लेकते आना। आज मैं तुम्हें खिीच लेक चलूंगा। दो िदन में वह िकतनी दबली हो गयी हैं, तुम्हें यह देखिकरि उन पररि दया आयी। तो चलोगे न?

मंसारिाम ने कुछ जवाब न िदया। उसके परैरि कांपर रिहे थ। िजयारिाम तो हािजरिी की घंटी सुनकरि भागा, पररि वह बेंच पररि लेकट गया औरि इतनी लम्बी सांस ली, मानो बहुत देरि से उसने सांस ही नही ली ह। उसके मुखि से दस्सह वेदना में डूबे हुए शब्द िनकलेक-हाय ईश्वरि। इस नाम के िसवा उसे अपरना जीवन िनरिाधारि मालूम होता था। इस एक उच्छवास में िकतना नैरिाश्य था, िकतनी संवेदना, िकतनी करुणा, िकतनी दीन-प्राथर्मना भरिी हुई थी, इसका कौन अनुमान करि सकता ह। अब सारिा रिहस्य उसकी समझ में आ रिहा था औरि बारि-बारि उसका परीिड़त हृदय आतर्मनाद करि रिहा था-हाय ईश्वरि। इतना घोरि कलंक।

क्या जीवन में इससे बड़ी िवपरित्त की कल्परना की जा सकती ह? क्या संसारि में इससे घोरितम नीचता की कल्परना हो सकती ह? आज तक िकसी िपरता ने अपरने परुत्र पररि इतना िनदर्मय कलंक न लगाया होगा। िजसके चिरित्र की सभी प्रशंसा करिते थ, जो अन्य युवकों के िलए आदशर्म समझा जाता था, िजसने कभी अपरिवत्र िवचारिों को अपरने परास नही फटकने िदया, उसी पररि यह घोरितम कलंक। मंसारिाम को ऐसा मालूम हुआ, मानों उसका िदल फटा जाता ह।

दूसरिी घंटी भी बज गई। लड़के अपरने-अपरने कमरे में गए, पररि मंसारिाम हथली पररि गाल रिखे अिनमेष नेत्रों से भूिम की ओरि देखि रिहा था, मानो उसका सवर्मस्व जलमग्न हो गया हो, मानो वह िकसी को मुंह न िदखिा सकता हो। स्कूल में गैरिहािजरिी हो जाएेगी, जुमाना हो जाएेगा, इसकी उसे िचता नही, जब उसका सवर्मस्व लुट गया, तो अब इन छोटी-छोटी बातों का क्या भय? इतना बड़ा कलंक लगने पररि भी अगरि जीता रिहंू, तो मेरे जीने को िधक्कारि ह।

उसी शोकाितरेक दशा में वह िचल्ला परड़ा-माताजी। तुम कहां हो? तुम्हारिा बेटा, िजस पररि तुम प्राण देती थी, िजसे तुम अपरने जीवन का आधारि समझती थी, आज घोरि संकट में ह। उसी का िपरता उसकी गदर्मन पररि छुरिी फेरि रिहा ह। हाय, तुम हो?

मंसारिाम िफरि शांतिचत्त से सोचने लगा-मुझ पररि यह संदेह क्यों हो रिहा ह? इसका क्या कारिण ह? मुझमें ऐसी कौन-सी बात उन्होंने देखिी, िजससे उन्हें यह संदेह हुआ? वह हमारे िपरता हैं, मेरे शत्रु नही ह, जो अनायास ही मझ पररि यह अपररिाध लगाने बैठ जाएं। जरुरि उन्होन कोई-कोई बात देखिी या सुनी ह। उनका मुझ पररि िकतना

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स्नेह था। मेरे बगैरि भोजन न करिते थ, वही मेरे शत्रु हो जाएं, यह बात अकारिण नही हो सकती।

अच्छा, इस संदेह का बीजारिोपरण िकस िदन हुआ? मुझे बोिडग हाउस में ठहरिाने की बात तो परीछे की ह। उस िदन रिात को वह मेरे कमरे में आकरि मेरिी पररिीक्षा लेकने लगे थ, उसी िदन उनकी त्योिरियां बदली हुइं थी। उस िदन ऐसी कौन-सी बात हुई, जो अिप्रय लगी हो। मैं नई अम्मां से कुछ खिाने को मांगने गया था। बाबूजी उस समय वहां बैठे थ। हां, अब याद आती ह, उसी वक्त उनका चेहरिा तमतमा गया था। उसी िदन से नई अम्मां ने मुझसे परढ़ना छोड़ िदया। अगरि मैं जानता िक मेरिा घरि में आना-जाना, अम्मांजी से कुछ कहना-सुनना औरि उन्हें परढ़ाना-िलखिाना िपरताजी को बुरिा लगता ह, तो आज क्यों यह नौबत आती? औरि नई अम्मां। उन पररि क्या बीत रिही होगी?

मंसारिाम ने अब तक िनमर्मला की ओरि ध्यान नही िदया था। िनमर्मला का ध्यान आते ही उसके रिोंये खिड़े हो गये। हाय उनका सरिल स्नेहशील हृदय यह आघात कैसे सह सकेगा? आह। मैं िकतने भ्रम में था। मैं उनके स्नेह को कौशल समझता था। मुझे क्या मालूम था िक उन्हें िपरताजी का भ्रम शांत करिने के िलए मेरे प्रित इतना कटु व्यवहारि करिना परड़ता ह। आह। मैंने उन पररि िकतना अन्याय िकया ह। उनकी दशा तो मुझसे भी खिरिाब हो रिही होगी। मैं तो यहां चला आय, मगरि वह कहां जाएंगी? िजया कहता था, उन्होंने दो िदन से भोजन नही िकया। हरिदम रिोया करिती हैं। कैसे जाकरि समझाऊं। वह इस अभागे के परीछे क्यों अपरने िसरि यह िवपरित्त लेक रिही हैं? वह बारि-बारि मेरिा हाल परूछती हैं? क्यों बारि-बारि मुझे बुलाती हैं? कैसे कह दूं िक माता मुझे तुमसे जरिा भी िशकायत नही, मेरिा िदल तुम्हारिी तरिफ से साफ ह।

वह अब भी बैठी रिो रिही होंगी। िकतना बड़ा अनथर्म ह। बाबूजी को यह क्या हो रिहा ह? क्या इसीिलए िववाह िकया था? एक बािलका की हत्या करिने के िलए ही उसे लाये थ? इस कोमल परुष्पर को मसल डालने के िलए ही तोड़ा था।

उनका उद्वारि कैसे होगा। उस िनरिपररिािधनी का मुखि कैस उज्जवल होगा? उन्हें केवल मेरे साथ स्नेह का व्यवहारि करिने के िलए यह दंड िदया जा रिहा ह। उनकी सज्जनता का उन्हें यह उपरहारि िमल रिहा ह। मैं उन्हें इस प्रकारि िनदर्मय आघात सहते देखिकरि बैठा रिहंूगा? अपरनी मान-रिक्षा के िलए न सही, उनकी आत्म-रिक्षा के िलए इन प्राणों का बिलदान करिना परड़ेगा। इसके िसवाय उद्धारि का काई उपराय नही। आह। िदल में कैसे-कैसे अरिमान थ। वे सब खिाक में िमला देने होंगे। एक सती पररि संदेह िकया जा रिहा ह औरि मेरे कारिण। मुझे अपरनी प्राणों से उनकी रिक्षा करिनी होगी, यही मेरिा कत्तर्मव्य ह। इसी में सच्ची वीरिता ह। माता, मैं अपरने रिक्त से इस कािलमा को धो दूंगा। इसी में मेरिा औरि तुम्हारिा दोनों का कल्याण ह।

वह िदन भरि इन्ही िवचारिों मे डूबा रिहा। शाम को उसके दोनों भाई आकरि घरि चलने के िलए आग्रह करिने लगे।

िसयारिाम-चलते क्यां नही? मेरे भैयाजी, चलेक चलो न।

मंसारिाम-मुझे फुरिसत नही ह िक तुम्हारे कहने से चला चलूं।

िजयारिाम-आिखिरि कल तो इतवारि ह ही।

मंसारिाम-इतवारि को भी काम ह।

िजयारिाम-अच्छा, कल आआगे न?

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मंसारिाम-नही, कल मुझे एक मैच में जाना ह।

िसयारिाम-अम्मांजी मूंग के लड्डू बना रिही हैं। न चलोगे तो एक भी पराआगे। हम तुम िमल के खिा जाएंगे, िजया इन्हें न देंगे।

िजयारिाम-भैया, अगरि तुम कल न गये तो शायद अम्मांजी यही चली आयंे।

मंसारिाम-सच। नही ऐसा क्यों करेंगी। यहां आयी, तो बड़ी पररेशानी होगी। तुम कह देना, वह कही मैच देखिने गये हैं।

िजयारिाम-मैं झूठ क्यों बोलने लगा। मैं कह दूंगा, वह मुंह फुलाये बैठे थ। देखि लेक उन्हें साथ लाता हंू िक नही।

िसयारिाम-हम कह देंगे िक आज परढ़ने नही गये। परड़े-परड़े सोते रिहे।

मंसारिाम ने इन दूतों से कल आने का वादा करिके गला छुड़ाया। जब दोनों चलेक गये, तो िफरि िचता में डूबा। रिात-भरि उसे करिवटंे बदलते गुजरिी। छुट्टी का िदन भी बैठे-बैठे कट गया, उसे िदन भरि शंका होती रिहती िक कही अम्मांजी सचमुच न चली आयंे। िकसी गाड़ी की खिड़खिड़ाहट सुनता, तो उसका कलेकजा धकधक करिने लगता। कही आ तो नही गयी?

छात्रालय में एक छोटा-सा औषधालय था। एक डांक्टरि साहब संध्या समय एक घण्टे के िलए आ जाएा करिते थ। अगरि कोई लड़का बीमारि होता तो उसे दवा देते। आज वह आये तो मंसारिाम कुछ सोचता हुआ उनके परास जाकरि खिड़ा हो गया। वह मंसारिाम को अच्छी तरिह जानते थ। उसे देखिकरि आश्चयर्म से बोलेक-यह तुम्हारिी क्या हालत ह जी? तुम तो मानो गलेक जा रिहे हो। कही बाजारि का का चस्का तो नही परड़ गया? आिखिरि तुम्हें हुआ क्या? जरिा यहां तो आओ।

मंसारिाम ने मुस्करिाकरि कहा-मुझे िजन्दगी का रिोग ह। आपरके परास इसकी भी तो कोई दवा ह?

डाक्टरि-मैं तुम्हारिी पररिीक्षा करिना चाहता हंू। तुम्हारिी सूरित ही बदल गयी ह, परहचाने भी नही जाते।

यह कहकरि, उन्होने मंसारिाम का हाथ परकड़ िलया औरि छाती, परीठ, आंखें, जीभ सब बारिी-बारिी से देखिी। तब िचितत होकरि बोलेक-वकील साहब से मैं आज ही िमलूंगा। तुम्हें थाइिसस हो रिहा ह। सारे लक्षण उसी के हैं।

मंसारिाम ने बड़ी उत्सुकता से परूछा-िकतने िदनों में काम तमाम हो जाएेगा, डक्टरि साहब?

डाक्टरि-कैसी बात करिते हो जी। मैं वकील साहब से िमलकरि तुम्हें िकसी परहाड़ी जगह भेजने की सलाह दूंगा। ईश्वरि ने चाहा, तो बहुत जल्द अच्छे हो जाओगे। बीमारिी अभी परहलेक स्टेज में ह।

मंसारिाम-तब तो अभी साल दो साल की देरि मालूम होती ह। मैं तो इतना इंतजारि नही करि सकता। सुिनए, मुझे थायिसस-वायिसस कुछ नही ह, न कोई दूसरिी िशकायत ही ह, आपर बाबूजी को नाहक तरिद्रदद में न डािलएगा। इस वक्त मेरे िसरि में ददर्म ह, कोई दवा दीिजए। कोई ऐसी दवा हो, िजससे नीद भी आ जाएे। मुझे दो रिात से नीद नही आती।

डॉक्टरि ने जहरिीली दवाइयों की आलमारिी खिोली औरि शीशी से थोड़ी सी दवा िनकालकरि मंसारिाम को दी। मंसारिाम ने परूछा-यह तो कोई जहरि ह भला इस कोई परी लेक तो मरि जाऐ?

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डॉक्टरि-नही, मरि तो नही जाऐ, पररि िसरि में चक्करि जरूरि आ जाऐ।

मंसारिाम-कोई ऐसी दवा भी इसमें ह, िजसे परीते ही प्राण िनकल जाएं?

डॉक्टरि-ऐसी एक-दो नही िकतनी ही दवाएं हैं। यह जो शीशी देखि रिहे हो, इसकी एक बूंद भी पेट में चली जाएे, तो जान न बचे। आनन-फानन में मौत हो जाएे।

मंसारिाम-क्यों डॉक्टरि साहब, जो लोग जहरि खिा लेकते हैं, उन्हें बड़ी तकलीफ होती होगी?

डॉक्टरि-सभी जहरिों में तकलीफ नही होती। बाज तो ऐसे हैं िक परीते ही आदमी ठंडा हो जाता ह। यह शीशी इसी िकस्म की ह, इस परीते ही आदमी बेहोश हो जाता ह, िफरि उसे होश नही आता।

मंसारिाम ने सोचा-तब तो प्राण देना बहुत आसान ह, िफरि क्यों लोग इतना डरिते हैं? यह शीशी कैसे िमलेकगी? अगरि दवा का नाम परूछकरि शहरि के िकसी दवा-फरिोश से लेकना चाहंू, तो वह कभी न देगा। ऊंह, इसे िमलने में कोई िदक्कत नही। यह तो मालूम हो गया िक प्राणों का अन्त बड़ी आसानी से िकया जा सकता ह। मंसारिाम इतना प्रसन्न हुआ, मानो कोई इनाम परा गया हो। उसके िदल पररि से बोझ-सा हट गया। िचता की मेघ-रिािश जो िसरि पररि मंडरिा रिही थी, िछन्न-िभन्न् हो गयी। महीनों बाद आज उसे मन में एक स्फूित का अनुभव हुआ। लड़के िथयेटरि देखिने जा रिहे थ, िनरिीक्षक से आज्ञा लेक ली थी। मंसारिाम भी उनके साथ िथयेटरि देखिने चला गया। ऐसा खिुश था, मानो उससे ज्यादा सुखिी जीव संसारि में कोई नही ह। िथयेटरि में नकल देखिकरि तो वह हंसते-हंसते लोट गया। बारि-बारि तािलयां बजाने औरि ‘वन्स मोरि’ की हांक लगाने में परहला नम्बरि उसी का था। गाना सुनकरि वह मस्त हो जाता था, औरि ‘ओहो हो। करिके िचल्ला उठता था। दशर्मकों की िनगाहें बारि-बारि उसकी तरिफ उठ जाती थी। िथयेटरि के परात्र भी उसी की ओरि ताकते थ औरि यह जानने को उत्सुक थ िक कौन महाशय इतने रििसक औरि भावुक हैं। उसके िमत्रों को उसकी उच्छृषंखिलता पररि आश्चयर्म हो रिहा था। वह बहुत ही शांतिचत्त, गम्भीरि स्वभाव का युवक था। आज वह क्यों इतना हास्यशील हो गया ह, क्यों उसके िवनोद का परारिावारि नही ह।

दो बजे रिात को िथयेटरि से लौटने पररि भी उसका हास्योन्माद कम नही हुआ। उसने एक लड़के की चारिपराई उलट दी, कई लड़कों के कमरे के द्वारि बाहरि से बंद करि िदये औरि उन्हें भीतरि से खिट-खिट करिते सुनकरि हंसता रिहा। यहां तक िक छात्रालय के अध्यक्ष महोदय करिी नीद में भी शोरिगुल सुनकरि खिुल गयी औरि उन्होंने मंसारिाम की शरिारित पररि खेद प्रकट िकया। कौन जानता ह िक उसके अन्त:स्थल में िकतनी भीषण क्रांित हो रिही ह? संदेह के िनदर्मय आघात ने उसकी लज्जा औरि आत्मसम्मान को कुचल डाला ह। उसे अपरमान औरि ितरिस्कारि का लेकशमात्र भी भय नही ह। यह िवनोद नही, उसकी आत्मा का करुण िवलापर ह। जब औरि सब लड़के सो गये, तो वह भी चारिपराई पररि लेकटा, लेकिकन उसे नीद नही आयी। एक क्षण के बाद वह बैठा औरि अपरनी सारिी परुस्तकें बांधकरि संदूक में रिखि दी। जब मरिना ही ह, तो परढ़करि क्या होगा? िजस जीवन में ऐसी-एसी बाधाएं हैं, ऐसी-ऐसी यातनाएं हैं, उससे मृषत्यु कही अच्छी।

यह सोचते-सोचते तड़का हो गया। तीन रिात से वह एक क्षण भी न सोया था। इस वक्त वह उठा तो उसके परैरि थरि-थरि कांपर रिहे थ औरि िसरि में चक्करि सा आ रिहा था। आंखें जल रिही थी औरि शरिीरि के सारे अंग िशिथल हो रिहे थ। िदन चढ़ता जाता था औरि उसमें इतनी शिक्त िदन चढ़ता जाता था औरि उसमें इतनी शिक्त भी न थी िक उठकरि मुंह हाथ धो डालेक। एकाएक उसने भूंगी को रूमाल में कुछ िलए हुए एक कहारि के साथ आते देखिा। उसका कलेकजा सन्न रिह गया। हाय। ईश्वरि वे आ गयी। अब क्या होगा? भूंगी अकेलेक नही आयी होगी? बग्घी जरूरि बाहरि खिड़ी होगी? कहां तो उससे उठा प्रश्न जाता था, कहां भूंगी को देखिते ही दौड़ा औरि घबरिाई हुई आवाज में

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बोला-अम्मांजी भी आयी हैं, क्या रे? जब मालूम हुआ िक अम्मांजी नही आयी, तब उसका िचत्त शांत हुआ।

भूंगी ने कहा-भैया। तुम कल गये नही, बहूजी तुम्हारिी रिाह देखिती रिह गयी। उनसे क्यों रुठे हो भैया? कहती हैं, मैंने उनकी कुछ भी िशकायत नही की ह। मुझसे आज रिोकरि कहने लगी-उनके परास यह िमठाई लेकती जा औरि कहना, मेरे कारिण क्यों घरि छोड़ िदया ह? कहां रिखि दूं यह थाली?

मंसारिाम ने रुखिाई से कहा-यह थाली अपरने िसरि पररि परटक दे चुड़ैल। वहां से चली ह िमठाई लेककरि। खिबरिदारि, जो िफरि कभी इधरि आयी। सौगात लेककरि चली ह। जाकरि कह देना, मुझे उनकी िमठाई नही चािहए। जाकरि कह देना, तुम्हारिा घरि ह तुम रिहो, वहां वे बड़े आरिाम से हैं। खिूब खिाते औरि मौज करिते हैं। सुनती ह, बाबूजी की मुंह पररि कहना, समझ गयी? मुझे िकसी का डरि नही ह, औरि जो करिना चाहें, करि डालें, िजससे िदल में कोई अरिमान न रिह जाएे। कहें तो इलाहाबाद, लखिनऊ, कलकत्ता चला जाऊं। मेरे िलए जैसे बनारिस वैसे दूसरिा शहरि। यहां क्या रिखिा ह?

भूंगी-भैया, िमठाई रिखि लो, नही रिो-रिोकरि मरि जाएंगी। सच मानो रिो-रिोकरि मरि जाएंगी।

मंसारिाम ने आंसुआं के उठते हुए वेग को दबाकरि कहा-मरि जाएंगी, मेरिी बला से। कौन मुझे बड़ा सुखि दे िदया ह, िजसके िलए परछताऊं। मेरिा तो उन्होंने सवर्मनाश करि िदया। कह देना, मेरे परास कोई संदेशा न भेजें, कुछ जरूरित नही।

भूंगी- भैया, तुम तो कहते हो यहां खिूब खिाता हंू औरि मौज करिता हंू, मगरि देह तो आधी भी न रिही। जैसे आये थ, उससे आधे भी न रिहे।

मंसारिाम-यह तेरिी आंखिों का फेरि ह। देखिना, दो-चारि िदन में मुटाकरि कोल्हू हो जाता हंू िक नही। उनसे यह भी कह देना िक रिोना-धोना बंद करें। जो मैंने सुना िक रिोती हैं औरि खिाना नही खिाती, मुझसे बुरिा कोई नही। मुझे घरि से िनकाला ह, तो आपर न से रिहें। चली हैं, प्रेम िदखिाने। मैं ऐसे ित्रया-चिरित्र बहुत परढ़े बैठा हंू।

भूंगी चली गयी। मंसारिाम को उससे बातें करिते ही कुछ ठण्ड मालूम होने लगी थी। यह अिभनय करिने के िलए उसे अपरने मनोभावों को िजतना दबाना परड़ा था, वह उसके िलए असाध्य था। उसका आत्म-सम्मान उसे इस कुिटल व्यवहारि का जल्द-से-जल्द अंत करि देने के िलए बाध्य करि रिहा था, पररि इसका परिरिणाम क्या होगा? िनमर्मला क्या यह आघात सह सकेगी? अब तक वह मृषत्यु की कल्परना करिते समय िकसी अन्य प्राणी का िवचारि न करिता था, पररि आज एकाएक ज्ञान हुआ िक मेरे जीवन के साथ एक औरि प्राणी का जीवन-सूत्र भी बंधा हुआ ह। िनमर्मला यह समझेगी िक मेरिी िनष्ठुरिता ही ने इनकी जान ली। यह समझकरि उसका कोमल हृदय फट न जाएेगा? उसका जीवन तो अब भी संकट में ह। संदेह के कठोरि परंजे में फंसी हुई अबला क्या अपरने का हत्यािरिणी समझकरि बहुत िदन जीिवत रिह सकती ह?

मंसारिाम ने चारिपराई पररि लेकटकरि िलहाफ ओढ़ िलया, िफरि भी सदी से कलेकजा कांपर रिहा था। थोड़ी ही देरि में उसे जोरि से ज्वरि चढ़ आया, वह बेहोश हो गया। इस अचेत दशा में उसे भांित-भांित के स्वप्न िदखिाई देने लगे। थोड़ी-थोड़ी देरि के बाद चौंक परड़ता, आंखें खिुल जाती, िफरि बेहोश हो जाता।

सहसा वकील साहब की आवाज सुनकरि वह चौंक परड़ा। हां, वकील साहब की आवाज थी। उसने िलहाफ फेंक िदया औरि चारिपराई से उतरिकरि नीचे खिड़ा हो गया। उसके मन में एक आवेग हुआ िक इस वक्त इनके सामने प्राण दे दूं। उसे ऐसा मालूम हुआ िक मैं मरि जाऊं, तो इन्हें सच्ची खिुशी होगी। शायद इसीिलए वह देखिने आये हैं

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िक मेरे मरिने में िकतनी देरि ह। वकील साहब ने उसका हाथ परकड़ िलया, िजससे वह िगरि न परड़े औरि परूछा-कैसी तबीयत ह लल्लू। लेकटे क्यों न रिहे? लेकट न जाओ, तुम खिड़े क्यों हो गये?

मंसारिाम-मेरिी तबीयत तो बहुत अच्छी ह। आपरको व्यथर्म ही कष्टि हुआ। मुंशी जी ने कुछ जवाब न िदया। लड़के की दशा देखिकरि उनकी आंखिों से आंसू िनकल आये। वह हृष्टि-परुष्टि बालक, िजसे देखिकरि िचत्त प्रसन्न हो जाता था, अब सूखिकरि कांटा हो गया था। परांच-छ: िदन में ही वह इतना दबला हो गया था िक उसे परहचानना किठन था। मुंशीजी ने उसे आिहस्ता से चारिपराई पररि िलटा िदया औरि िलहाफ अच्छी तरिह उसे उढ़ाकरि सोचने लगे िक अब क्या करिना चािहए। कही लड़का हाथ से तो नही जाएगा। यह ख्याल करिके वह शोक िवह्ववल हो गये औरि स्टूल पररि बैठकरि फूट-फूटकरि रिोने लगे। मंसारिाम भी िलहाफ में मुंह लपेटे रिो रिहा था। अभी थोड़े ही िदनों परहलेक उसे देखिकरि िपरता का हृदय गवर्म से फूल उठता था, लेकिकन आज उसे इस दारुण दशा में देखिकरि भी वह सोच रिहे हैं िक इसे घरि लेक चलूं या नही। क्या यहां दवा नही हो सकती? मैं यहां चौबीसों घण्टे बैठा रिहंूगा। डॉक्टरि साहब यहां हैं ही। कोई िदक्कत न होगी। घरि लेक चलने से में उन्हें बाधाएं-ही-बाधाएं िदखिाई देती थी, सबसे बड़ा भय यह था िक वहां िनमर्मला इसके परास हरिदम बैठी रिहेगी औरि मैं मना न करि सकूंगा, यह उनके िलए असह्य था।

इतने में अध्यक्ष ने आकरि कहा-मैं तो समझता हंू िक आपर इन्हें अपरने साथ लेक जाएं। गाड़ी ह ही, कोई तकलीफ न होगी। यहां अच्छी तरिह देखिभाल न हो सकेगी।

मुंशीजी-हां, आया तो मैं इसी खियाल से था, लेकिकन इनकी हालत बहुत ही नाजुक मालूम होती ह। जरिा-सी असावधानी होने से सरिसाम हो जाने का भय ह।

अध्यक्ष-यहां से इन्हें लेक जाने में थोड़ी-सी िदक्कत जरुरि ह, लेकिकन यह तो आपर खिुद सोच सकते हैं िक घरि पररि जो आरिाम िमल सकता ह, वह यहां िकसी तरिह नही िमल सकता। इसके अितिरिक्त िकसी बीमारि लड़के को यहां रिखिना िनयम-िवरुद्ध भी ह।

मुंशीजी- किहए तो मैं हेडमास्टरि से आज्ञा लेक लूं। मुझे इनका यहां से इस हालत में लेक जाना िकसी तरिह मुनािसब नही मालूम होता।

अध्यक्ष ने हेडमास्टरि का नाम सुना, तो समझे िक यह महाशय धमकी दे रिहे हैं। जरिा ितनककरि बोलेक-हेडमास्टरि िनयम-िवरुद्व कोई बात नही करि सकते। मैं इतनी बड़ी िजम्मेदारिी कैसे लेक सकता हंू?

अब क्या हो? क्या घरि लेक जाना ही परड़ेगा? यहां रिखिने का तो यह बहाना था िक लेक जाने से बीमारिी बढ़ जाने की शंका ह। यहां से लेक जाकरि हस्परताल में ठहरिाने का कोई बहाना नही ह। जो सुनेगा, वह यही कहेगा िक डाक्टरि की फीस बचाने के िलए लड़के को अस्परताल फेंक आये, पररि अब लेक जाने के िसवा औरि कोई उपराय न था। अगरि अध्यक्ष महोदय इस वक्त िरिश्वत लेकने पररि तैयारि हो जाते, तो शायद दो-चारि साल का वेतन लेक लेकते, लेकिकन कायदे के पराबंद लोगों में इतनी बुिद्व, इतनी चतुरिाई कहां। अगरि इस वक्त मुंशीजी को कोई आदमी ऐसा उज्र सुझा देता, िजसमें उनहें मंसारिाम को घरि न लेक जाना परड़े, तो वह आजीवन असका एहसान मानते। सोचने का समय भी न था। अध्यक्ष महोदय शैतान की तरिह िसरि पररि सवारि था। िववश होकरि मुंशीजी ने दोनों साईसों को बुलाया औरि मंसारिाम को उठाने लगे। मंसारिाम अधर्मचेतना की दशा में था, चौककरि बोला, क्या ह? कोन ह?

मुंशीजी-कोई नही ह बेटा, मैं तुम्हें घरि लेक चलना चाहता हंू, आओ, गोद में उठा लूं।

मंसारिाम- मुझे क्यों घरि लेक चलते हैं? मैं वहां नही जाऊंगा।

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मुंशीजी- यहां तो रिह नही सकते, िनयम ही ऐसा ह।

मंसारिाम- कुछ भी हो, वहां न जाऊंगा। मुझे औरि कही लेक चिलए, िकसी पेड़ के नीचे, िकसी झोंपरड़े में, जहां चाहे रििखिए, पररि घरि पररि न लेक चिलए।

अध्यक्ष ने मुंशीजी से कहा-आपर इन बातों का ख्याल न करें, यह तो होश में नही ह।

मंसारिाम- कौन होश में नही ह? मैं होश में नही हंू? िकसी को गािलयां देता हू? दांत काटता हंू? क्यों होश में नही हंू? मुझे यही परड़ा रिहने दीिजए, जो कुछ होना होगा, अगरि ऐसा ह, तो मुझे अस्परताल लेक चिलए, मैं वहां परड़ा रिहंूगा। जीना होगा, जीऊगा, मरिना होगा मरुंगा, लेकिकन घरि िकसी तरिह भी न जाऊंगा।

यह जोरि पराकरि मुंशीजी िफरिा अध्यक्ष की िमन्नतें करिने लगे, लेकिकन वह कायदे का पराबंदी आदमी कुछ सुनता ही न था। अगरि छूत की बीमारिी हुई औरि िकसी दूसरे लड़के को छूत लग गयी, तो कौन उसका जवाबदेह होगा। इस तकर के सामने मुंशीजी की कानूनी दलीलें भी मात हो गयी।

आिखिरि मुंशीजी ने मंसारिाम से कहा-बेटा, तुम्हें घरि चलने से क्यों इंकारि हो रिहा ह? वहां तो सभी तरिह का आरिाम रिहेगा। मुंशीजी ने कहने को तो यह बात कह दी, लेकिकन डरि रिहे थ िक कही सचमुच मंसारिाम चलने पररि रिाजी न हो जाएे। मंसारिाम को अस्परताल में रिखिने का कोई बहाना खिोज रिहे थ औरि उसकी िजम्मेदारिी मंसारिाम ही के िसरि डालना चाहते थ। यह अध्यक्ष के सामने की बात थी, वह इस बात की साक्षी दे सकते थ िक मंसारिाम अपरनी िजद से अस्परताल जा रिहा ह। मुंशीजी का इसमे लेकशमात्र भी दोष नही ह।

मंसारिाम ने झल्लाकरि हा-नही, नही सौ बारि नही, मैं घरि नही जाऊंगा। मुझे अस्परताल लेक चिलए औरि घरि के सब आदिमयों को मना करि दीिजए िक मुझे देखिने न आये। मुझे कुछ नही हुआ ह, िबल्कुल बीमारि नही हू। आपर मुझे छोड़ दीिजए, मैं अपरने परांव से चल सकता हंू।

वह उठ खिड़ा हुआ औरि उन्मत्त की भांित द्वारि की ओरि चला, लेकिकन परैरि लड़खिडा गये। यिद मुंशीजी ने संभाल न िलया होता, तो उसे बड़ी चोट आती। दोनों नौकरिों की मदद से मुंशीजी उसे बग्घी के परास लाये औरि अंदरि बैठा िदया।

गाड़ी अस्परताल की ओरि चली। वही हुआ जो मुंशीजी चाहते थ। इस शोक में भी उनका िचत्त संतुष्टि था। लड़का अपरनी इच्छा से अस्परताल जा रिहा था क्या यह इस बात का प्रमाण नही था िक घरि में इसे कोई स्नेह नही ह? क्या इससे यह िसद्ध नही होता िक मंसारिाम िनदोष ह ? वह उसक पररि अकारिण ही भ्रम करि रिहे थ।

लेकिकन जरिा ही देरि में इस तुिष्टि की जगह उनके मन में ग्लािन का भाव जाग्रत हुआ। वह अपरने प्राण-िप्रय परुत्र को घरि न लेक जाकरि अस्परताल िलये जा रिहे थ। उनके िवशाल भवन में उनके परुत्र के िलए जगह न थी, इस दशा में भी जबिक उसकी जीवल संकट में परड़ा हुआ था। िकतनी िवडम्बना ह!

एक क्षण के बाद एकाएक मुंशीजी के मन में प्रश्न उठा-कही मंसारिाम उनके भावों को ताड़ तो नही गया? इसीिलए तो उसे घरि से घृषणा नही हो गेयी ह? अगरि ऐसा ह, तो गजब हो जाएेगा।

उस अनथर्म की कल्परना ही से मुंशीजी के रिोंए खिड़े हो गये औरि कलेकजा धक्धक करिने लगा। हृदय में एक धक्का-सा लगा। अगरि इस ज्वरि का यही कारिण ह, तो ईश्वरि ही मािलक ह। इस समय उनकी दशा अत्यन्त दयनीय थी। वह आग जो उन्होंने अपरने िठठुरे हुए हाथों को सेंकने के िलए जलाई थी, अब उनके घरि में लगी जा

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रिही थी। इस करुणा, शोक, परश्चात्तापर औरि शंका से उनका िचत्त घबरिा उठा। उनके गुप्त रिोदन की ध्विन बाहरि िनकल सकती, तो सुनने वालेक रिो परड़ते। उनके आंसू बाहरि िनकल सकते, तो उनका तारि बंध जाता। उन्होंने परुत्र के वणर्म-हीन मुखि की ओरि एक वात्सल्यूपरणर्म नेत्रों से देखिा, वेदना से िवकल होकरि उसे छाती से लगा िलया औरि इतना रिोये िक िहचकी बंच गयी।

सामने अस्परताल का फाटक िदखिाई दे रिहा था।

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अध्याय-६मंुलशी तोतारिाम संध्या समय कचहरिी से घरि परहँुचे, तो िनमर्मला ने परूछा- उन्हें देखिा, क्या हाल ह? मुंशीजी

ने देखिा िक िनमर्मला के मुखि पररि नाममात्र को भी शोक यािचनता का िचन्ह नही ह। उसका बनाव-िसगारि औरि िदनों से भी कुछ गाढ़ा हुआ ह। मसलन वह गलेक का हारि न परहनती थी, पररि आजा वह भी गलेक मे शोभ दे रिहा था। झूमरि से भी उसे बहुत प्रेम था, वह आज वह भी महीन रेशमी साड़ी के नीचे, कालेक-कालेक केशों के ऊपररि, फानुस के दीपरक की भांित चमक रिहा था।

मुंशीजी ने मुंह फेरिकरि कहा- बीमारि ह औरि क्या हाल बताऊं?

िनमर्मला- तुम तो उन्हें यहां लाने गये थ?

मुंशीजी ने झंुझलाकरि कहा- वह नही आता, तो क्या मैं जबरिदस्ती उठा लाता? िकतना समझाया िक बेटा घरि चलो, वहां तुम्हें कोई तकलीफ न होने परावेगी, लेकिकन घरि का नाम सुनकरि उसे जैसे दूना ज्वरि हो जाता था। कहने लगा- मैं यहां मरि जाऊंगा, लेकिकन घरि न जाऊंगा। आिखिरि मजबूरि होकरि अस्परताल परहंुचा आया औरि क्या करिता?

रुिक्मणी भी आकरि बरिामदे में खिड़ी हो गई थी। बोली- वह जन्म का हठी ह, यहां िकसी तरिह न आयेगा औरि यह भी देखि लेकना, वहां अच्छा भी न होगा?

मुंशीजी ने कातरि स्वरि में कहा- तुम दो-चारि िदन के िलए वहां चली जाओ, तो बड़ा अच्छा हो बहन, तुम्हारे रिहने से उसे तस्कीन होती रिहेगी। मेरिी बहन, मेरिी यह िवनय मान लो। अकेलेक वह रिो-रिोकरि प्राण दे देगा। बस हाय अम्मां! हाय अम्मां! की रिट लगाकरि रिोया करिता ह। मैं वही जा रिहा हंू, मेरे साथ ही चलो। उसकी दशा अच्छी नही। बहन, वह सूरित ही नही रिही। देखें ईश्वरि क्या करिते हैं?

यह कहते-कहते मुंशीजी की आंखिों से आंसू बहने लगे, लेकिकन रुिक्मणी अिवचिलत भाव से बोली- मैं जाने को तैयारि हंू। मेरे वहां रिहने से अगरि मेरे लाल के प्राण बच जाएं, तो मैं िसरि के बल दौड़ी जाऊं, लेकिकन मेरिा कहना िगरिह में बांध लो भैया, वहां वह अच्छा न होगा। मैं उसे खिूब परहचानती हंू। उसे कोई बीमारिी नही ह, केवल घरि से िनकालेक जाने का शोक ह। यही द:खि ज्वरि के रुपर में प्रकट हुआ ह। तुम एक नही, लाखि दवा करिो, िसिवल सजर्मन को ही क्यों न िदखिाओ, उसे कोई दवा असारि न करेगी।

मुंशीजी- बहन, उसे घरि से िनकाला िकसने ह? मैंने तो केवल उसकी परढ़ाई के खियाल से उसे वहां भेजा था।

रुिक्मणी- तुमने चाहे िजस खियाल से भेजा हो, लेकिकन यह बात उसे लग गयी। मैं तो अब िकसी िगनती में नही हंू, मुझे िकसी बात में बोलने का कोई अिधकारि नही। मािलक तुम, मालिकन तुम्हारिी स्त्रिी। मैं तो केवल तुम्हारिी रिोिटयों पररि परड़ी हुई अभिगनी िवधवा हंू। मेरिी कौन सुनेगा औरि कौन पररिवाह करेगा? लेकिकन िबना बोलेक रिही नही जाता। मंसा तभी अच्छा होगा: जब घरि आयेगा, जब तुम्हारिा हृदय वही हो जाएेगा, जो परहलेक था।

यह कहकरि रुिक्मणी वहां से चली गयी, उनकी ज्योितहीन, पररि अनुभवपरूणर्म आंखिों के सामने जो चिरित्र हो रिहे थ, उनका रिहस्य वह खिूब समझती थी औरि उनका सारिा क्रोध िनरिपररिािधनी िनमर्मला ही पररि उतरिता था। इस समय भी वह कहते-कहते रुग गयी, िक जब तक यह लक्ष्मी इस घरि में रिहेंगी, इस घरि की दशा िबगड़ती हो

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जाऐगी। उसको प्रगट रुपर से न कहने पररि भी उसका आशय मुंशीजी से िछपरा नही रिहा। उनके चलेक जाने पररि मुंशीजी ने िसरि झुका िलया औरि सोचने लगे। उन्हें अपरने ऊपररि इस समय इतना क्रोध आ रिहा था िक दीवारि से िसरि परटककरि प्राणों का अन्त करि दें। उन्होंने क्यों िववाह िकया था? िववाह करेन की क्या जरुरित थी? ईश्वरि ने उन्हें एक नही, तीन-तीन परुत्र िदये थ? उनकी अवस्था भी परचास के लगभग परहंुच गेयी थी िफरि उन्होंने क्यों िववाह िकया? क्या इसी बहाने ईश्वरि को उनका सवर्मनाश करिना मंजूरि था? उन्होंने िसरि उठाकरि एक बारि िनमर्मला को सहास, पररि िनश्चल मूित देखिी औरि अस्परताल चलेक गये। िनमर्मला की सहास, छिव ने उनका िचत्त शान्त करि िदया था। आज कई िदनों के बाद उन्हें शािन्त मयसरि हुई थी। प्रेम-परीिड़त हृदय इस दशा में क्या इतना शान्त औरि अिवचिलत रिह सकता ह? नही, कभी नही। हृदय की चोट भाव-कौशल से नही िछपराई जा सकती। अपरने िचत्त की दबर्मनजा पररि इस समय उन्हें अत्यन्त क्षोभ हुआ। उन्होंने अकारिण ही सन्देह को हृदय में स्थान देकरि इतना अनथर्म िकया। मंसारिाम की ओरि से भी उनका मन िन:शंक हो गया। हां उसकी जगह अब एक नयी शंका उत्परन्न हो गयी। क्या मंसारिाम भांपर तो नही गया? क्या भांपरकरि ही तो घरि आने से इन्कारि नही करि रिहा ह? अगरि वह भांपर गया ह, तो महान् अनथर्म हो जाएेगा। उसकी कल्परना ही से उनका मन दहल उठा। उनकी देह की सारिी हिड्डयां मानों इस हाहाकारि पररि परानी डालने के िलए व्याकुल हो उठी। उन्होंने कोचवान से घोड़े को तेज चलाने को कहा। आज कई िदनों के बाद उनके हृदय मंडल पररि छाया हुआ सघन फट गया था औरि प्रकाश की लहरें अन्दरि से िनकलने के िलए व्यग्र हो रिही थी। उन्होंने बाहरि िसरि िनकाल करि देखिा, कोचवान सो तो नही रिहा ह। घोड़े की चाल उन्हें इतनी मन्द कभी न मालूम हुई थी।

अस्परताल परहंुचकरि वह लपरके हुए मंसारिाम के परास गये। देखिा तो डॉक्टरि साहब उसके सामने िचन्ता में मग्न खिड़े थ। मुंशीजी के हाथ-परांव फूल गये। मुंह से शब्द न िनकल सका। भरिभरिाई हुई आवाज में बड़ी मुिश्कल से बोलेक- क्या हाल ह, डॉक्टरि साहब? यह कहते-कहते वह रिो परड़े औरि जब डॉक्टरि साहब को उनके प्रश्न का उत्तरि देने में एक क्षण का िवलम्बा हुआ, तब तो उनके प्राण नहों में समा गये। उन्होंने परलंग पररि बैठकरि अचेत बालक को गोद में उठा िलया औरि बालक की भांित िससक-िससककरि रिोने लगे। मंसारिाम की देह तवे की तरिह जल रिही थी। मंसारिाम ने एक बारि आंखें खिोली। आह, िकतनी भयंकरि औरि उसके साथ ही िकतनी दी दृषिष्टि थी। मुंशीजी ने बालक को कण्ठ से लगाकरि डॉक्टरि से परूछा-क्या हाल ह, साहब! आपर चुपर क्यों हैं?

डॉक्टरि ने संिदग्ध स्वरि से कहा- हाल जो कुछ ह, वह आपे देखि ही रिहे हैं। 106 िडग्री का ज्वरि ह औरि मैं क्या बताऊं? अभी ज्वरि का प्रकोपर बढ़ता ही जाता ह। मेरे िकये जो कुद हो सकता ह, करि रिहा हंू। ईश्वरि मािलक ह। जबसे आपर गये हैं, मैं एक िमनट के िलए भी यहां से नही िहला। भोजन तक नही करि सका। हालत इतनी नाजुक ह िक एक िमनट में क्या हो जाएेगा, नही कहा जा सकता? यह महाज्वरि ह, िबलकुल होश नही ह। रिह-रिहकरि ‘िडलीिरियम’ का दौरिा-सा हो जाता ह। क्या घरि में इन्हें िकसी ने कुछ कहा ह! बारि-बारि, अम्मांजी, तुम कहां हो! यही आवाज मुंह से िनकली ह।

डॉक्टरि साहब यह कह ही रिहे थ िक सहसा मंसारिाम उठकरि बैठ गया औरि धक्के से मुंशीज को चारिपराई के नीचे ढकेलकरि उन्मत्त स्वरि से बोला- क्यों धमकाते हैं, आपर! मारि डािलए, मारि डािल, अभी मारि डािलए। तलवारि नही िमलती! रिस्सी का फन्दा ह या वह भी नही। मैं अपरने गलेक में लगा लूंगा। हाय अम्मांजी, तुम कहां हो! यह कहते-कहते वह िफरि अचेते होकरि िगरि परड़ा।

मुंशीजी एक क्षण तक मंसारिाम की िशिथल मुद्रा की ओरि व्यिथत नेत्रों से ताकते रिहे, िफरि सहस उन्होंने डॉक्टरि साहब का हाथ परकड़ िलया औरि अत्यन्त दीनतापरूणर्म आग्रह से बोलेक-डॉक्टरि साहब, इस लड़के को बचा

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लीिजए, ईश्वरि के िलए बचा लीिजए, नही मेरिा सवर्मनाश हो जाएेगा। मैं अमीरि नही हंू लेकिकन आपर जो कुछ कहेंगे, वह हािजरि करुंगा, इसे बचा लीिजए। आपर बड़े-से-बड़े डॉक्टरि को बुलाइए औरि उनकी रिाय लीिजएक , मैं सब खिचर्म दूंगा। इसीक अब नही देखिी जाती। हाय, मेरिा होनहारि बेटा!

डॉक्टरि साहब ने करुण स्वरि में कहा- बाबू साहब, मैं आपरसे सत्य कह रिहा हंू िक मैं इनके िलए अपरनी तरिफ से कोई बात उठा नही रिखि रिहा हंू। अब आपर दूसरे डॉक्टरिों से सलाह लेकने को कहते हैं। अभी डॉक्टरि लािहरिी , डॉक्टरि भािटया औरि डॉक्टरि माथुरि को बुलाता हंू। िवनायक शास्त्रिी को भी बुलाये लेकता हंू , लेकिकन मैं आपरको व्यथर्म का आश्वासन नही देना चाहता, हालत नाजुक ह।

मंशीजी ने रिोते हुए कहा- नही, डॉक्टरि साहब, यह शब्द मुंह से न िनकािलए। हाल इसके दश्मनों की नाजुक हो। ईश्वरि मुझ पररि इतना कोपर न करेंगे। आपर कलकत्ता औरि बम्बई के डॉक्टरिों को तारिा दीिजए, मैं िजन्दगी भरि आपरकी गुलामी करुंगा। यही मेरे कुल का दीपरक ह। यही मेरे जीवन का आधारि ह। मेरिा हृदय फटा जा रिहा ह। कोई ऐसी दवा दीिजए, िजससे इसे होश आ जाएे। मैं जरिा अपरने कानों से उसकी बाते सुनंू जानंू िक उसे क्या कष्टि हो रिहा ह? हाय, मेरिा बच्चा!

डॉक्टरि- आपर जरिा िदल को तस्कीन दीिजए। आपर बुजुगर्म आदमी हैं, यों हाय-हाय करिने औरि डॉक्टरिों की फौज जमा करिने से कोई नतीजा न िनकलेकगा। शान्त होकरि बैिठए, मैं शहरि के लोगों को बुला रिहा हंू, देिखिए क्या कहते हैं? आपर तो खिुद ही बदहवास हुए जाते हैं।

मुंशीजी- अच्छा, डॉक्टरि साहब! मैं अब न बोलूंग, जबान तब तक न खिोलूंगा, आपर जो चाहे करें, बच्चा अब हाथ में ह। आपर ही उसकी रिक्षा करि सकते हैं। मैं इतना ही चाहता हंू िक जरिा इसे होश आ जाएे , मुझे परहचान लेक, मेरिी बातें समझने लगे। क्या कोई ऐसी संजीवनी बूटी नही? मैं इससे दो-चारि बातें करि लेकता।

यह कहते-कहते मुंशीजी आवेश में आकरि मंसारिाम से बोलेक- बेटा, जरिा आंखें खिोलो, कैसा जी ह? मैं तुम्हारे परास बैठा रिो रिहा हंू, मुझे तुमसे कोई िशकायत नही ह, मेरिा िदल तुम्हारिी ओरि से साफ ह।

डॉक्टरि- िफरि आपरने अनगर्मला बातें करिनी शुरु की। अरे साहब, आपर बच्चे नही हैं, बुजुगर्म ह, जरिा धैयर्म से काम लीिजए।

मुंशीजी- अच्छा, डॉक्टरि साहब, अब न बोलूंगा, खिता हुई। आपर जो चाहें कीिजए। मैंने सब कुछ आपर पररि छोड़ िदया। कोई ऐसा उपराय नही, िजससे मैं इसे इतना समझा सकूं िक मेरिा िदल साफ ह? आपर ही कह दीिजए डॉक्टरि साहब, कह दीिजए, तुम्हारिा अभागा िपरता बैठा रिो रिहा ह। उसका िदल तुम्हारिी तरिफ से िबलकुल साफ ह। उसे कुछ भ्रम हुआ था। वब अब दूरि हो गया। बस, इतना ही करि दीिजए। मैं औरि कुछ नही चाहता। मैं चुपरचापर बैठा हंू। जबान को नही खिोलता, लेकिकन आपर इतना जरुरि कह दीिजए।

डॉक्टरि- ईश्वरि के िलए बाबू साहब, जरिा सब्र कीिजए, वरिना मुझे मजबूरि होकरि आपरसे कहना परड़ेगा िक घरि जाइए। मैं जरिा दफ्तरि में जाकरि डॉक्टरिों को खित िलखि रिहा हंू। आपर चुपरचापर बैठे रििहएगा।

िनदर्मयी डॉक्टरि! जवान बेटे की यहा दशा देखिकरि कौन िपरता ह, जो धैयर्म से कामे लेकगा? मुंशीजी बहुत गम्भीरि स्वभाव के मनुष्य थ। यह भी जानते थ िक इस वक्त हाय-हाय मचाने से कोई नतीजा नही, लेकिकन िफरिी भी इस समय शान्त बैठना उनके िलए असम्भव था। अगरि दैव-गित से यह बीमारिी होती, तो वह शान्त हो सकते थ, दूसरिों को समझा सकते थ, खिुद डॉक्टरिों का बुला सकते थ, लेकिकन क्यायह जानकरि भी धैयर्म रिखि सकते थ िक

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यह सब आग मेरिी ही लगाई हुई ह? कोई िपरता इतना वज्र-हृदय हो सकता ह? उनका रिोम-रिोम इस समय उन्हें िधक्कारि रिहा था। उन्होंने सोचा, मुझे यह दभावना उत्परन्न ही क्यों हुई? मैंने क्यां िबना िकसी प्रत्यक्ष प्रमाण के ऐसी भीषण कल्परना करि डाली? अच्दा मुझे उसक दशा में क्या करिना चािहए था। जो कुछ उन्होंने िकया उसके िसवा वह औरि क्या करिते, इसका वह िनश्चय न करि सके। वास्तव में िववाह के बन्धन में परड़ना ही अपरने परैरिों में कुल्हाड़ी मारिाना था। हां, यही सारे उपरद्रव की जड़ ह।

मगरि मैंने यह कोई अनोखिी बात नही की। सभी स्त्रिी-परुरुष का िववाह करिते हैं। उनका जीवन आनन्द से कटता ह। आनन्द की अच्दा से ही तो हम िववाह करिते हैं। मुहल्लेक में सैकड़ों आदिमयों ने दूसरिी , तीसरिी, चौथी यहां तक िक सातवी शिदयां की हैं औरि मुझसे भी कही अिधक अवस्था में। वह जब तक िजये आरिाम ही से िजये। यह भी नही हआ िक सभी स्त्रिी से परहलेक मरि गये हों। दहाज-ितहाज होने पररि भी िकतने ही िफरि रंिडुए हो गये। अगरि मेरिी-जैसी दशा सबकी होती, तो िववाह का नाम ही कौन लेकता? मेरे िपरताजी ने परचपरनवें वषर्म में िववाह िकया था औरि मेरे जन्म के समय उनकी अवस्था साठ से कम न थी। हां, इतनी बात जरुरि ह िक तब औरि अब में कुछ अंतरि हो गया ह। परहलेक स्त्रिीयां परढ़ी-िलखिी न होती थी। परित चाहे कैसा ही हो, उसे परूज्य समझती थी, यह बात हो िक परुरुष सब कुछ देखिकरि भी बेहयाई से काम लेकता हो, अवश्य यही बात ह। जब युवक वृषद्धा के साथ प्रसन्न नही रिह सकता, तो युवती क्यों िकसी वृषद्ध के साथ प्रसन्न रिहने लगी? लेकिकन मैं तो कुछ ऐसा बुड्ढ़ा न था। मुझे देखिकरि कोई चालीस से अिधक नही बता सकता। कुछ भी हो, जवानी ढल जाने पररि जवान औरित से िववाह करिके कुछ-न-कुछ बेहयाई जरुरि करिनी परड़ती ह, इसमें सन्देह नही। स्त्रिी स्वभाव से लज्जाशील होती ह। कुलटाआं की बात तो दूसरिी ह, पररि साधारिणत: स्त्रिी परुरुष से कही ज्यादा संयमशील होती ह। जोड़ का परित पराकरि वह चाहे पररि-परुरुष से हंसी-िदल्लगी करि लेक, पररि उसका मन शुद्ध रिहता ह। बेजोड़े िववाह हो जाने से वह चाहे िकसी की ओरि आंखे उठाकरि न देखे, पररि उसका िचत्त दखिी रिहता ह। वह परक्की दीवारि ह, उसमें सबरिी का असरि नही होता, यह कच्ची दीवारि ह औरि उसी वक्त तक खिड़ी रिहती ह, जब तक इस पररि सबरिी न चलाई जाएे।

इन्ही िवचारिां में परड़े-परड़े मुंशीजी का एक झपरकी आ गयी। मने के भावों ने तत्काल स्वप्न का रुपर धारिण करि िलया। क्या देखिते हैं िक उनकी परहली स्त्रिी मंसारिाम के सामने खिड़ी कह रिही ह- ‘स्वामी, यह तुमने क्या िकया? िजस बालक को मैंने अपरना रिक्त िपरला-िपरलाकरि पराला, उसको तुमने इतनी िनदर्मयता से मारि डाला। ऐसे आदशर्म चिरित्र बालक पररि तुमने इतना घोरि कलंक लगा िदया? अब बैठे क्या िबसूरिते हो। तुमने उससे हाथ धो िलया। मैं तुम्हारे िनदर्मया हाथों से छीनकरि उसे अपरने साथ िलए जाती हंू। तुम तो इतनो शक्की कभी न थ। क्या िववाह करिते ही शक को भी गलेक बांध लाये? इस कोमल हृदय पररि इतना कठारे आघात! इतना भीषण कलंक! इतन बड़ा अपरमान सहकरि जीनेवालेक कोई बेहया होंगे। मेरिा बेटा नही सह सकता!’ यह कहते-कहते उसने बालक को गोद में उठा िलया औरि चली। मुंशीजी ने रिोते हुए उसकी गोद से मंसारिाम को छीनने के िलए हाथ बढ़ाया , तो आंखे खिुल गयी औरि डॉक्टरि लािहरिी, डॉक्टरि लािहरिी, डॉक्टरि भािटया आिद आधे दजर्मन डॉक्टरि उनको सामने खिड़े िदखिायी िदये।

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भाग २तीन िदन गुजरि गये औरि मुंशीजी घरि न आये। रुिक्मणी दोनों वक्त अस्परताल जाती औरि मंसारिाम को देखि

आती थी। दोनों लड़के भी जाते थ, पररि िनमर्मला कैसे जाती? उनके परैरिों में तो बेिड़यां परड़ी हुई थी। वह मंसारिाम की बीमारिी का हाल-चाल जानने क िलए व्यग्र रिहती थी, यिद रुिक्मणी से कुछ परूछती थी, तो ताने िमलते थ औरि लड़को से परूछती तो बेिसरि-परैरि की बातें करिने लगते थ। एक बारि खिुद जाकरि देखिने के िलए उसका िचत्त व्याकुल हो रिहा था। उसे यह भय होता था िक सन्देह ने कही मुंशीजी के परुत्र-प्रेम को िशिथल न करि िदया हो, कही उनकी कृपरणता ही तो मंसारिाम क अच्छे होने में बाधक नही हो रिही ह? डॉक्टरि िकसी के सगे नही होते, उन्हें तो अपरने परैसों से काम ह, मुदा दोजखि में जाएे या बिहश्त में। उसक मन मे प्रबल इच्छा होती थी िक जाकरि अस्परताल क डॉक्टरिों का एक हजारि की थैली देकरि कहे- इन्हें बचा लीिजए, यह थैली आपरकी भेंट हैं, पररि उसके परास न तो इतने रुपरये ही थ, न इतने साहस ही था। अब भी यिद वहां परहंुच सकती, तो मंसारिाम अच्छा हो जाता। उसकी जैसी सेवा-शुश्रूषा होनी चािहए, वैसी नही हो रिही ह। नही तो क्या तीन िदन तक ज्वरि ही न उतरिता? यह दैिहक ज्वरि नही, मानिसक ज्वरि ह औरि िचत्त के शान्त होने ही से इसका प्रकोपर उतरि सकता ह। अगरि वह वहां रिात भरि बैठी रिह सकती औरि मुंशीजी जरिा भी मन मैला न करिते, तो कदािचत् मंसारिाम को िवश्वास हो जाता िक िपरताजी का िदल साफ ह औरि िफरि अच्छे होने में देरि न लगती, लेकिकन ऐसा होगा? मुंशीजी उसे वहां देखिकरि प्रसन्निचत्त रिह सकेंगे? क्या अब भी उनका िदल साफ नही हुआ? यहां से जाते समय तो ऐसा ज्ञात हुआ था िक वह अपरने प्रमाद पररि परछता रिहे हैं। ऐसा तो न होगा िक उसके वहां जाते ही मुंशीजी का सन्देह िफरि भड़क उठे औरि वह बेटे की जान लेककरि ही छोड़ं?

इस दिवधा में परड़े-परड़े तीन िदन गुजरि गये औरि न घरि में चूल्हा जला, न िकसी ने कुछ खिाया। लड़को के िलए बाजारि से परूिरियां ली जाती थी, रुिक्मणी औरि िनमर्मला भूखिी ही सो जाती थी। उन्हें भोजन की इच्छा ही न होती।

चौथ िदन िजयारिाम स्कूल से लौटा, तो अस्परताल होता हुआ घरि आया। िनमर्मला ने परूछा-क्यों भैया, अस्परताल भी गये थ? आज क्या हाल ह? तुम्हारे भैया उठे या नही?

िजयारिाम रुआंसा होकरि बोला- अम्मांजी, आज तो वह कुछ बोलते-चालते ही न थ। चुपरचापर चारिपराई पररि परड़े जोरि-जोरि से हाथ-परांव परटक रिहे थ।

िनमर्मला के चेहरे का रंिग उड़ गया। घबरिाकरि परूछा- तुम्हारे बाबूजी वहां न थ?

िजयारिाम- थ क्यों नही? आज वह बहुत रिोते थ।

िनमर्मला का कलेकजा धक्-धक् करिने लगा। परूछा- डॉक्टरि लोग वहां न थ?

िजयारिाम- डॉक्टरि भी खिड़े थ औरि आपरस में कुछ सलाह करि रिहे थ। सबसे बड़ा िसिवल सजर्मन अंगरेजी में कह रिहा था िक मरिीज की देह में कुछ ताजा खिून डालना चािहए। इस पररि बाबूजीय ने कहा- मेरिी देह से िजतना खिून चाहें लेक लीिजए। िसिवल सजर्मन ने हंसकरि कहा- आपरके ब्लड से काम नही चलेकगा, िकसी जवान आदमी का ब्लड चािहए। आिखिरि उसने िपरचकारिी से कोई दवा भैया के बाजू में डाल दी। चारि अंगुल से कम के सुई न रिही होगी, पररि भैया िमनके तक नही। मैंने तो मारे डरिके आंखें बन्द करि ली।

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बड़े-बड़े महान संकल्पर आवेश में ही जन्म लेकते हैं। कहां तो िनमर्मला भय से सूखिी जाती थी, कहां उसके मुंह पररि दृषढ़ संकल्पर की आभा झलक परड़ी। उसने अपरनी देह का ताजा खिून देने का िनश्चय िकया। आगरि उसके रिक्त से मंसारिाम के प्राण बच जाएं, तो वह बड़ी खिुशी से उसकी अिन्तम बूंद तक दे डालेकगी। अब िजसका जो जी चाहे समझे, वह कुछ पररिवाह न करेगी। उसने िजयारिाम से काह- तुम लपरककरि एक एक्का बुला लो, मैं अस्परताला जाऊंगी।

िजयारिाम- वहां तो इस वक्त बहुत से आदमी होंगे। जरिा रिात हो जाने दीिजए।

िनमर्मला- नही, तुम अभी एक्का बुला लो।

िजयारिाम- कही बाबूजी िबगड़ं न?

िनमर्मला- िबगड़ने दो। तुमे अभी जाकरि सवारिी लाओ।

िजयारिाम- मैं कह दूंगा, अम्मांजी ही ने मुझसे सवारिी मंगाई थी।

िनमर्मला- कह देना।

िजयारिाम तो उधरि तांगा लाने गया, इतनी देरि में िनमर्मला ने िसरि में कंघी की, जूड़ा बांधा, कपरड़े बदलेक, आभूषण परहने, परान खिाया औरि द्वारि पररि आकरि तांगे की रिाह देखिने लगी।

रुिक्मणी अपरने कमरे में बैठी हुई थी उसे इस तैयारिी से आते देखिकरि बोली- कहां जाती हो, बहू?

िनमर्मला- जरिा अस्परताल तक जाती हंू।

रुिक्मणी- वहां जाकरि क्या करिोगी?

िनमर्मला- कुछ नही, करुंगी क्या? करिने वालेक तो भगवान हैं। देखिने को जी चाहता ह।

रुिक्मणी- मैं कहती हंू, मत जाओ।

िनमर्मला- ने िवनीत भाव से कहा- अभी चली आऊंगी, दीदीजी। िजयारिाम कह रिहे हैं िक इस वक्त उनकी हालत अच्छी नही ह। जी नही मानता, आपर भी चिलए न?

रुिक्मणी- मैं देखि आई हंू। इतना ही समझ लो िक, अब बाहरिी खिून परहंुचाने पररि ही जीवन की आशा ह। कौन अपरना ताजा खिून देगा औरि क्यों देगा? उसमें भी तो प्राणों का भय ह।

िनमर्मला- इसीिलए तो मैं जाती हंू। मेरे खिून से क्या काम न चलेकगा?

रुिक्मणी- चलेकगा क्यों नही, जवान ही का तो खिून चािहए, लेकिकन तुम्हारे खिून से मंसारिाम की जान बचे, इससे यह कही अच्छा ह िक उसे परानी में बहा िदया जाएे।

तांगा आ गया। िनमर्मला औरि िजयारिाम दोनों जा बैठे। तांगा चला।

रुिक्मणी द्वारि पररि खिड़ी देत तक रिोती रिही। आज परहली बारि उसे िनमर्मला पररि दया आई, उसका बस होता तो वह िनमर्मला को बांध रिखिती। करुणा औरि सहानुभूित का आवेश उसे कहां िलये जाता ह, वह अप्रकट रुपर से देखि रिही थी। आह! यह दभाग्य की प्रेरिणा ह। यह सवर्मनाश का मागर्म ह।

िनमर्मला अस्परताल परहंुची, तो दीपरक जल चुके थ। डॉक्टरि लोग अपरनी रिाय देकरि िवदा हो चुके थ। मंसारिाम

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का ज्वरि कुछ कम हो गयाथा वह टकटकी लगाए हुद द्वारि की ओरि देखि रिहा था। उसकी दृषिष्टि उन्मुक्त आकाश की ओरि लगी हुई थी, माने िकसी देवता की प्रतीक्षा करि रिहा हो! वह कहां ह, िजस दशा में ह, इसका उसे कुछ ज्ञान न था।

सहसा िनमर्मला को देखिते ही वह चौंककरि उठ बैठा। उसका समािध टूट गई। उसकी िवलुप्त चेतना प्रदीप्त हो गई। उसे अपरने िस्थित का, अपरनी दशा का ज्ञान हो गया, मानो कोई भूली हुई बात याद हो गई हो। उसने आंखें फाड़करि िनमर्मला को देखिा औरि मुंह फेरि िलया।

एकाएक मुंशीजी तीव्र स्वरि से बोलेक- तुम, यहां क्या करिने आइं?

िनमर्मला अवाक् रिह गई। वह बतलाये िक क्या करिने आई? इतने सीधे से प्रश्न का भी वह कोई जवाब दे सकी? वह क्या करिने आई थी? इतना जिटल प्रश्न िकसने सामने आया होगा? घरि का आदमी बीमारि ह, उसे देखिने आई ह, यह बात क्या िबना परूछे मालूम न हो सकती थी? िफरि प्रश्न क्यों?

वह हतबुद्धी-सी खिड़ी रिही, मानो संज्ञाहीन हो गई हो उसने दोनों लड़को से मुंशीजी के शोक औरि संतापर की बातें सुनकरि यह अनुमान िकया था िक अब उसनका िदल साफ हो गया ह। अब उसे ज्ञात हुआ िक वह भ्रम था। हां, वह महाभ्रम था। मगरि वह जानती थी आंसुआं की दृषिष्टि ने भी संदेह की अिग्न शांत नही की, तो वह कदािपर न आती। वह कुढ़-कुढ़ाकरि मरि जाती, घरि से परांव न िनकालती।

मुंशजी ने िफरि वही प्रश्न िकया- तुम यहां क्यों आइं?

िनमर्मला ने िन:शंक भाव से उत्तरि िदया- आपर यहां क्या करिने आये हैं?

मुंशीजी के नथुने फड़कने लगा। वह झल्लाकरि चारिपराई से उठे औरि िनमर्मला का हाथ परकड़करि बोलेक- तुम्हारे यहां आने की कोई जरुरित नही। जब मैं बुलाऊं तब आना। समझ गइं?

अरे! यह क्या अनथर्म हुआ! मंसारिाम जो चारिपराई से िहल भी न सकता था, उठकरि खिड़ा हो गया औग्र िनमर्मला के परैरिों पररि िगरिकरि रिोते हुए बोला- अम्मांजी, इस अभागे के िलए आपरको व्यथर्म इतना कष्टि हुआ। मैं आपरका स्नेह कभी भी न भूलंगा। ईश्वरि से मेरिी यही प्राथर्मना ह िक मेरिा परुनर्मजनम आपरके गभर्म से हो, िजससे मैं आपरके ऋण से अऋण हो सकूं। ईश्वरि जानता ह, मैंने आपरको िवमाता नही समझा। मैं आपरको अपरनी माता समझता रिहा । आपरकी उम्र मुझसे बहुत ज्यादा न हो, लेकिकन आपर, मेरिी माता के स्थान पररि थी औरि मैंने आपरको सदैव इसी दृषिष्टि से देखिा...अब नही बोला जाता अम्मांजी, क्षमा कीिजए! यह अंितम भेंट ह।

िनमर्मला ने अश्रु-प्रवाह को रिोकते हुए कहा- तुम ऐसी बातें क्यों करिते हो? दो-चारि िदन में अच्छे हो जाओगे।

मंसारिाम ने क्षीण स्वरि में कहा- अब जीने की इच्छा नही औरि न बोलने की शिक्त ही ह।

यह कहते-कहते मंसारिाम अशक्त होकरि वही जमीन पररि लेकट गया। िनमर्मला ने परित की ओरि िनभर्मय नेत्रों से देखिते हुए कहा- डॉक्टरि ने क्या सलाह दी?

मुंशीजी- सब-के-सब भंग खिा गए हैं, कहते हैं, ताजा खिून चािहए।

िनमर्मला- ताजा खिून िमल जाएे, तो प्राण-रिक्षा हो सकती ह?

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मुंशीजी ने िनमर्तेला की ओरि तीव्र नेत्रों से देखिकरि कहा- मैं ईश्वरि नही हंू औरि न डॉक्टरि ही को ईश्वरि समझता हंू।

िनमर्मला- ताजा खिून तो ऐसी अलभ्य वस्तु नही!

मुंशीजी- आकाश के तारे भी तो अलभ्य नही! मुंह के सामने खिदंक क्या चीज ह?

िनमर्मला- मैं आपरना खिून देने को तैयारि हंू। डॉक्टरि को बुलाइए।

मुंशीजी ने िविस्मत होकरि कहा- तुम!

िनमर्मला- हां, क्या मेरे खिून से काम न चलेकगा?

मुंशीजी- तुम अपरना खिून दोगी? नही, तुम्हारे खिून की जरुरित नही। इसमें प्राणो का भय ह।

िनमर्मला- मेरे प्राण औरि िकस िदन काम आयंेगे?

मुंशीजी ने सजल-नेत्र होकरि कहा- नही िनमर्मला, उसका मूल्य अब मेरिी िनगाहों में बहुत बढ़ गया ह। आज तक वह मेरे भोग की वस्तु थी, आज से वह मेरिी भिक्त की वस्तु ह। मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय िकया ह, क्षमा करिो।

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अध्याय-७जो कुछ होना था हो गया, िकसी को कुछ न चली। डॉक्टरि साहब िनमर्मला की देह से रिक्त िनकालने की

चेष्टिा करि ही रिहे थ िक मंसारिाम अपरने उज्ज्वल चिरित्र की अिन्तम झलक िदखिाकरि इस भ्रम-लोक से िवदा हो गया। कदािचत् इतनी देरि तक उसके प्राण िनमर्मला ही की रिाह देखि रिहे थ। उसे िनष्कलंक िसद्ध िकये िबना वे देह को कैसे त्याग देते? अब उनका उद्देश्य परूरिा हो गया। मुंशीजी को िनमर्मला के िनदोष होने का िवश्वास हो गया , पररि कब? जब हाथ से तीरि िनकल चुका था, जब मुसिफरि ने रिकाब में परांव डाल िलया था।

परुत्र-शोक में मुंशीजी का जीवन भारि-स्वरुपर हो गया। उस िदन से िफरि उनके ओठों पररि हंसी न आई। यह जीवन अब उन्हें व्यथर्म-सा जान परड़ता था। कचहरिी जाते, मगरि मुकदमों की परैरिवी करिने के िलए नही, केवल िदल बहलाने के िलए घंटे-दो-घंटे में वहां से उकताकरि चलेक आते। खिाने बैठते तो कौरि मुंह में न जाता। िनमर्मला अच्छी से अच्छी चीज परकाती पररि मुंशीजी दो-चारि कौरि से अिधक न खिा सकते। ऐसा जान परड़ता िक कौरि मुंह से िनकला आता ह! मंसारिाम के कमरे की ओरि जाते ही उनका हृदय टूक-टूक हो जाता था। जहां उनकी आशाआं का दीपरक जलता रिहता था, वहां अब अंधकारि छाया हुआ था। उनके दो परुत्र अब भी थ, लेकिकन दूध देती हुई गायमरि गई, तो बिछया का क्या भरिोसा? जब फूलने-फलनेवाला वृषक्ष िगरि परड़ा, नन्हे-नन्हे परौधों से क्या आशा? यों ता जवान-बूढ़े सभी मरित हैं, लेकिकन द:खि इस बात का था िक उन्होंने स्वयं लड़के की जान ली। िजस दम बात याद आ जाती, तो ऐसा मालूम होता था िक उनकी छाती फट जाएेगी-मानो हृदय बाहरि िनकल परड़ेगा।

िनमर्मला को परित से सच्ची सहानुभूित थी। जहां तक हो सकता था, वह उनको प्रसन्न रिखिने का िफक्र रिखिती थी औरि भूलकरि भी िपरछली बातें जबान पररि न लाती थी। मुंशीजी उससे मंसारिाम की कोई चचा करिते शरिमाते थ। उनकी कभी-कभी ऐसी इच्छा होती िक एक बारि िनमर्मला से अपरने मन के सारे भाव खिोलकरि कह दूं , लेकिकन लज्जा रिोक लेकती थी। इस भांित उन्हें सान्त्वना भी न िमलती थी, जो अपरनी व्यथा कह डालने से, दूसरिो को अपरने गम में शरिीक करि लेकने से, प्राप्त होती ह। मवाद बाहरि न िनकलकरि अन्दरि-ही-अन्दरि अपरना िवष फैलाता जाता था, िदन-िदन देह घुलती जाती थी।

इधरि कुछ िदनों से मुंशीजी औरि उन डॉक्टरि साहब में िजन्होंने मंसारिाम की दवा की थी, यारिाना हो गया था, बेचारे कभी-कभी आकरि मुंशीजी को समझाया करिते, कभी-कभी अपरने साथ हवा िखिलाने के िलए खिीच लेक जाते। उनकी स्त्रिी भी दो-चारि बारि िनमर्मला से िमलने आई थी। िनमर्मला भी कई बारि उनके घरि गई थी, मगरि वहां से जब लौटती, तो कई िदन तक उदास रिहती। उस दम्परित्त का सुखिमय जीवन देखिकरि उसे अपरनी दशा पररि द:खि हुए िबना न रिहता था। डॉक्टरि साहब को कुल दो सौ रुपरये िमलते थ, पररि इतने में ही दोनों आनन्द से जीवन व्यतीत करिते थ। घरि मं केवल एक महरिी थी, गृषहस्थी का बहुत-सा काम स्त्रिी को अपरने ही हाथों करिना परड़ता थ। गहने भी उसकी देह पररि बहुत कम थ, पररि उन दोनों में वह प्रेम था, जो धन की तृषण के बरिाबरि पररिवाह नही करिता। परुरुष को देखिकरि स्त्रिी को चेहरिा िखिल उठता था। स्त्रिी को देखिकरि परुरुष िनहाल हो जाता था। िनमर्मला के घरि में धन इससे कही अिधक था, अभूषणों से उनकी देह फटी परड़ती थी, घरि का कोई काम उसे अपरने हाथ से न करिना परड़ता था। पररि िनमर्मला सम्परन्न होने पररि भी अिधक दखिी थी, औरि सुधा िवपरनन होने पररि भी सुखिी। सुधा के परास कोई ऐसी वस्तु थी, जो िनमर्मला के परास न थी, िजसके सामने उसे अपरना वैभव तुच्छ जान परड़ता था। यहां तक िक वह सुधा के घरि गहने परहनकरि जाते शरिमाती थी।

एक िदन िनमर्मला डॉक्टरि साहब से घरि आई, तो उसे बहुत उदास देखिकरि सुधा ने परूछा-बिहन, आज बहुत

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उदास हो, वकील साहब की तबीयत तो अच्छी ह, न?

िनमर्मला- क्या कहंू, सुधा? उनकी दशा िदन-िदन खिरिाब होती जाती ह, कुछ कहते नही बनता। न जाने ईश्वरि को क्या मंजूरि ह?

सुधा- हमारे बाबूजी तो कहते हैं िक उन्हें कही जलवायु बदलने के िलए जाना जरुरिी ह, नही तो, कोई भंयकरि रिोग खिड़ा हो जाएेगा। कई बारि वकील साहब से कह भी चुके हैं पररि वह यही कह िदया करिते हैं िक मैं तो बहुत अच्छी तरिह हंू, मुझे कोई िशकायत नही। आज तुम कहना।

िनमर्मला- जब डॉक्टरि साहब की नही सुना, तो मेरिी सुनगे?

यह कहते-कहते िनमर्मला की आंखें डबडबा गई औरि जो शंका, इधरि महीनों से उसके हृदय को िवकल करिती रिहती थी, मुंह से िनकल परड़ी। अब तक उसने उस शंका को िछपराया था, पररि अब न िछपरा सकी। बोली-बिहन मुझे लक्षण कुद अच्छे नही मालूम होते। देखें, भगवान् क्या करिते हैं?

साधु-तुम आज उनसे खिूब जोरि देकरि कहना िक कही जलवायु बदलने चािहए। दो चारि महीने बाहरि रिहने से बहुत सी बातें भूल जाएंगी। मैं तो समझती हंू,शायद मकान बदलने से भी उनका शोक कुछ कम हो जाएेगा। तुम कही बाहरि जा भी न सकोगी। यह कौन-सा महीना ह?

िनमर्मला- आठवां महीना बीत रिहा ह। यह िचन्ता तो मुझे औरि भी मारे डालती ह। मैंने तो इसके िलए ईश्चरि से कभी प्राथर्मन न की थी। यह बला मेरे िसरि न जाने क्यों मढ़ दी? मैं बड़ी अभािगनी हंू, बिहन, िववाह के एक महीने परहलेक िपरताजी का देहान्त हो गया। उनके मरिते ही मेरे िसरि शनीचरि सवारि हुए। जहां परहलेक िववाह की बातचीत परक्की हुई थी, उन लोगों ने आंखें फेरि ली। बेचारिी अम्मां को हारिकरि मेरिा िववाह यहां करिना परड़ा। अब छोटी बिहन का िववाह होने वाला ह। देखें, उसकी नाव िकस घाट जाती ह!

सुधा- जहां परहलेक िववाह की बातचीत हुई थी, उन लोगों ने इन्कारि क्यों करि िदया?

िनमर्मला- यह तो वे ही जान। िपरताजी न रिहे, तो सोने की गठरिी कौन देता?

सुधा- यह ता नीचता ह। कहां के रिहने वालेक थ?

िनमर्मला- लखिनऊ के। नाम तो याद नही, आबकारिी के कोई बड़े अफसरि थ।

सुधा ने गम्भीरिा भाव से परूछा- औरि उनका लड़का क्या करिता था?

िनमर्मला- कुछ नही, कही परढ़ता था, पररि बड़ा होनहारि था।

सुधा ने िसरि नीचा करिके कहा- उसने अपरने िपरता से कुछ न कहा था? वह तो जवान था, अपरने बापर को दबा न सकता था?

िनमर्मला- अब यह मैं क्या जानंू बिहन? सोने की गठरिी िकसे प्यारिी नही होती? जो परिण्डत मेरे यहां से सन्देश लेककरि गया था, उसने तो कहा था िक लड़का ही इन्कारि करि रिहा ह। लड़के की मां अलबत्ता देवीरूपरा थी। उसने परुत्र औरि परित दोनों ही को समझाया, पररि उसकी कुछ न चली।

सुधा- मैं तो उस लड़के को पराती, तो खिूब आड़े हाथों लेकती।

िनमर्मला- मरे भाग्य में जो िलखिा था, वह हो चुका। बेचारिी कृष्णा पररि न जाने क्या बीतेगी?

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संध्या समय िनमर्मला ने जाने के बाद जब डॉक्टरि साहब बाहरि से आये, तो सुधा ने कहा-क्यों जी, तुम उस आदमी का क्या कहोगे, जो एक जगह िववाह ठीक करि लेकने बाद िफरि लोभवश िकसी दूसरिी जगह?

डॉक्टरि िसन्हा ने स्त्रिी की ओरि कुतूहल से देखिकरि कहा- ऐसा नही करिना चािहए, औरि क्या?

सुधा- यह क्यों नही कहते िक ये घोरि नीचता ह, परहलेक िसरे का कमीनापरन ह!

िसन्हा- हां, यह कहने में भी मुझे इन्कारि नही।

सुधा- िकसका अपररिाध बड़ा ह? वरि का या वरि के िपरता का?

िसन्हा की समझ में अभी तक नही आया िक सुधा के इन प्रश्नों का आशय क्या ह? िवस्मय से बोलेक- जैसी िस्थित हो अगरि वह िपरता क अधीन हो, तो िपरता का ही अपररिाध समझो।

सुधा- अधीन होने पररि भी क्या जवान आदमी का अपरना कोई कत्तर्मव्य नही ह? अगरि उसे अपरने िलए नये कोट की जरुरित हो, तो वह िपरता के िवरिाध करिने पररि भी उसे रिो-धोकरि बनवा लेकता ह। क्या ऐसे महत्तव के िवषय में वह अपरनी आवाज िपरता के कानों तक नही परहंुचा सकता? यह कहो िक वह औरि उसका िपरता दोनों अपररिाधी हैं, पररिन्तु वरि अिधक। बूढ़ा आदमी सोचता ह- मुझे तो सारिा खिचर्म संभालना परड़ेगा, कन्या परक्ष से िजतना एंठ सकूं, उतना ही अच्छा। मगरि वरि का धमर्म ह िक यिद वह स्वाथर्म के हाथों िबलकुल िबक नही गया ह, तो अपरने आत्मबल का परिरिचय दे। अगरि वह ऐसा नही करिता, तो मैं कहंूगी िक वह लोभी ह औरि कायरि भी। दभाग्यवश ऐसा ही एक प्राणी मेरिा परित ह औरि मेरिी समझ में नही आता िक िकन शब्दों में उसका ितरिस्कारि करुं !

िसन्हा ने िहचिकचाते हुए कहा- वह...वह...वह...दूसरिी बात थी। लेकन-देन का कारिण नही था, िबलकुल दूसरिी बात थी। कन्या के िपरता का देहान्त हो गया था। ऐसी दशा में हम लोग क्यो करिते? यह भी सुनने में आया था िक कन्या में कोई ऐब ह। वह िबलकुल दूसरिी बात थी, मगरि तुमसे यह कथा िकसने कही।

सुधा- कह दो िक वह कन्या कानी थी, या कुबड़ी थी या नाइन के पेट की थी या भ्रष्टिा थी। इतनी कसरि क्यों छोड़ दी? भला सुनंू तो, उस कन्या में क्या ऐब था?

िसन्हा- मैंने देखिा तो था नही, सुनने में आया था िक उसमें कोई ऐब ह।

सुधा- सबसे बड़ा ऐब यही था िक उसके िपरता का स्वगर्मवास हो गया था औरि वह कोई लंबी-चौड़ी रिकम न दे सकती थी। इतना स्वीकारि करिते क्यों झंपरते हो? मैं कुछ तुम्हारे कान तो काट न लूंगी! अगरि दो-चारि िफकरे कहंू, तो इस कान से सुनकरि उसक कान से उड़ा देना। ज्यादा-ची-चपरड़ करु,ं तो छड़ी से काम लेक सकते हो। औरित जात डण्डे ही से ठीक रिहती ह। अगरि उस कन्या में कोई ऐब था, तो मैं कहंूगी, लक्ष्मी भी बे-ऐब नही। तुम्हारिी खिोटी थी, बस! औरि क्या? तुम्हें तो मेरे पराल्लेक परड़ना था।

िसन्हा- तुमसे िकसने कहा िक वह ऐसी थी वैसी थी? जैसे तुमने िकसी से सुनकरि मान िलया।

सुधा- मैंने सुनकरि नही मान िलया। अपरनी आंखिों देखिा। ज्यादा बखिान क्या करुं, मैंने ऐसी सुन्दी स्त्रिी कभी नही देखिी थी।

िसन्हा ने व्यग्र होकरि परूछा-क्या वह यही कही ह? सच बताओ, उसे कहां देखिा! क्या तुमहारे घरि आई थी?

सुधा-हां, मेरे घरि में आई थी औरि एक बारि नही, कई बारि आ चुकी ह। मैं भी उसके यहां कई बारि जा चुकी

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हंू, वकील साहब के बीवी वही कन्या ह, िजसे आपरने ऐबों के कारिण त्याग िदया।

िसन्हा-सच!

सुधा-िबलकुल सच। आज अगरि उसे मालूम हो जाएे िक आपर वही महापरुरुष हैं, तो शायद िफरि इस घरि मे कदम न रिखे। ऐसी सुशीला, घरि के कामों में ऐसी िनपरुण औरि ऐसी पररिम सुन्दारिी स्त्रिी इस शहरि मे दो ही चारि होंगी। तुम मेरिा बखिान करिते हो। मै। उसकी लौंडी बनने के योग्य भी नही हंू। घरि में ईश्वरि का िदया हुआ सब कुछ ह, मगरि जब प्राणी ही मेल केा नही, तो औरि सब रिहकरि क्या करेगा? धन्य ह उसके धैयर्म को िक उस बुड्ढे खिूसट वकील के साथ जीवन के िदन काट रिही ह। मैंने तो कब का जहरि खिा िलया होता। मगरि मन की व्यथा कहने से ही थोड़े प्रकट होती ह। हंसती ह, बोलती ह, गहने-कपरड़े परहनती ह, पररि रिोयां-रिोयां रिाया करिता ह।

िसन्हा-वकील साहब की खिूब िशकायत करिती होगी?

सुधा-िशकायत क्यों करेगी? क्या वह उसके परित नही हैं? संसारि मे अब उसके िलए जो कुछ हैं, वकील साहब। वह बुड्ढे हों या रिोगी, पररि हैं तो उसके स्वामी ही। कुलवंती स्त्रिीयां परित की िनन्दा नही करिती,यह कुलटाआं का काम ह। वह उनकी दशा देखिकरि कुढ़ती हैं, पररि मुंह से कुछा नही कहती।

िसन्हा- इन वकील साहब को क्या सूझी थी, जो इस उम्र में ब्याह करिने चलेक?

सुधा- ऐसे आदमी न हों, तो गरिीब क्वािरियों की नाव कौन परारि लगाये? तुम औरि तुम्हारे साथी िबना भारिी गठरिी िलए बात नही करिते, तो िफरि ये बेचारिरि िकसके घरि जाएं? तुमने यह बड़ा भारिी अन्याय िकया ह, औरि तुम्हें इसका प्रािश्यचत करिना परड़ेगा। ईश्वरि उसका सुहाग अमरि करे, लेकिकन वकील साहब को कही कुछ हो गया, तो बेचारिी का जीवन ही नष्टि हो जाएेेगा। आज तो वह बहुत रिोती थी। तुम लोग सचमुच बड़े िनदर्मयी हो। मै। तो अपरने सोहन का िववाह िकसी गरिीब लड़की से करुंगी।

डॉक्टरि साहब ने यह िपरछला वाक्या नही सुना। वह घोरि िचन्ता मं परड़ गये। उनके मन में यह प्रश्न उठ-उठकरि उन्हें िवकल करिने लगा-कही वकील साहब को कुछ हो गया तो? आज उन्हें अपरने स्वाथर्म का भंयकरि स्वरुपर िदखिायी िदया। वास्तव में यह उन्ही का अपररिाध था। अगरि उन्होंने िपरता से जोरि देकरि कहा होता िक मै। औरि कही िववाह न करुंगा, तो क्या वह उनकी इच्छा के िवरुद्व उनका िववाह करि देते?

सहसा सुधा ने कहा-कहो तो कल िनमर्मला से तुम्हारिी मुलाकात करिा दूं? वह भी जरिा तुम्हारिी सूरित देखि लेक। वह कुछ बोलगी तो नही, पररि कदािचत् एक दृषिष्टि से वह तुम्हारिा इतना ितरिस्कारि करि देगी, िजसे तुम कभी न भूल सकोगे। बोलों, कल िमला दूँ? तुम्हारिा बहुत संिक्षप्त परिरिचय भी करिा दूंगी

िसन्हा ने कहा-नही सुधा, तुम्हारे हाथ जोड़ता हंू, कही ऐसा गजब न करिना! नही तो सच कहता हंू, घरि छोड़करि भाग जाऊंगा।

सुधा-जो कांटा बोया ह, उसका फल खिाते क्यों इतना डरिते हो? िजसकी गदर्मन पररि कटारि चलाई ह, जरिा उसे तड़परते भी तो देखिो। मेरे दादा जी ने परांच हजारि िदये न! अभी छोटे भाई के िववाह मं परांच-छ: हजारि औरि िमल जाएंगे। िफरि तो तुम्हारे बरिाबरि धनी संसारि में काई दूसरिा न होगा। ग्यारिह हजारि बहुत होते हैं। बापर-रे-बापर! ग्यारिह हजारि! उठा-उठाकरि रिखिने लगे, तो महीनों लग जाएं अगरि लड़के उड़ाने लगें, तो परीिढ़यों तक चलेक। कही से बात हो रिही ह या नही?

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इस परिरिहास से डॉक्टरि साहब इतना झंपे िक िसरि तक न उठा सके। उनका सारिा वाक्-चातुयर्म गायब हो गया। नन्हा-सा मुंह िनकल आया, मानो मारि परड़ गई हो। इसी वक्त िकसी डॉक्टरि साहब को बाहरि से परुकारिां बेचारे जान लेककरि भागे। स्त्रिी िकतनी परिरिहास कुशल होती ह, इसका आज परिरिचय िमल गया।

रिात को डॉक्टरि साहब शयन करिते हुए सुधा से बोलेक-िनम्रला की तो कोई बिहन ह न?

सुधा- हां, आज उसकी चचा तो करिती थी। इसकी िचन्ता अभी से सवारि हो रिही ह। अपरने ऊपररि तो जो कुछ बीतना था, बीत चुका, बिहन की िकफक्र में परड़ी हुई थी। मां के परास तो अब ओरि भी कुछ नही रिहा, मजबूरिन िकसी ऐसे ही बूढ़े बाबा क गलेक वह भी मढ़ दी जरियेगी।

िसन्हा- िनमर्मला तो अपरनी मां की मदद करि सकती ह।

सुधा ने तीक्ष्ण स्वरि में कहा-तुम भी कभी-कभी िबलकुल बेिसरि’ परैरि की बातें करिने लगते हो। िनमर्मला बहुत करेगी, तो दा-चारि सौ रुपरये दे देगी, औरि क्या करि सकती ह? वकील साहब का यह हाल हो रिहा ह, उसे अभी परहाड़-सी उम्र काटनी ह। िफरि कौन जाने उनके घरि का क्या हाल ह? इधरि छ:महीने से बेचारे घरि बैठे हैं। रुपरये आकाश से थोड़े ही बरिसते ह। दस-बीस हजारि होंगे भी तो बैंक में होंगे, कुछ िनमर्मला के परास तो रिखे न होंगे। हमारिा दो सौ रुपरया महीने का खिचर्म ह, तो क्या इनका चारि सौ रुपरये महीने का भी न होगा?

सुधा को तो नीद आ गई,पररि डॉक्टरि साहब बहुत देरि तक करिवट बदलते रिहे, िफरि कुछ सोचकरि उठे औरि मेज पररि बैठकरि एक परत्र िलखिने लगे।

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भाग २दोनों बाते एक ही साथ हुइं-िनमर्मला के कन्या को जन्म िदया, कृष्णा का िववाह िनिश्चत हुआ औरि मुंशी

तोतारिाम का मकान नीलाम हो गया। कन्या का जन्म तो साधारिण बात थी, यद्यिपर िनमर्मला की दृषिष्टि में यह उसके जीवन की सबसे महान घटना थी, लेकिकन शेष दोनों घटनाएं अयाधारिण थी। कृष्णा का िववाह-ऐसे सम्परन्न घरिाने में क्योंकरि ठीक हुआ? उसकी माता के परास तो दहेज के नाम को कौड़ी भी न थी औरि इधरि बूढ़े िसन्हा साहब जो अब पेंशन लेककरि घरि आ गये थ, िबरिादरिी महालोभी मशहूरि थ। वह अपरने परुत्र का िववाह ऐसे दिरिद्र घरिाने में करिने पररि कैसे रिाजी हुए। िकसी को सहसा िवश्वास न आता था। इससे भी बड़ आश्चयर्म की बात मुंशीजी के मकान का नीलाम होना था। लोग मुंशीजी को अगरि लखिपरती नही, तो बड़ा आदमी अवश्य समझते थ। उनका मकान कैसे नीलाम हुआ? बात यह थी िक मुंशीजी ने एक महाजन से कुछ रुपरये कजर्म लेककरि एक गांव रिहेन रिखिाथा। उन्हें आशा थी िक साल-आध-साल में यह रुपरये पराट देंगे, िफरि दस-परांच साल में उस गांव पररि कब्जा करि लेंगे। वह जमीदारिअसल औरि सूद के कुल रुपरये अदा करिने में असमथर्म हो जाएेगा। इसी भरिोसे पररि मुंशीजी ने यह मामला िकया था। गांव बेहुत बड़ा था, चारि-परांच सौ रुपरये नफा होता था, लेकिकन मन की सोची मन ही में रिह गई। मुंशीज िदल को बहुत समझाने पररि भी कचहरिी न जा सके। परुत्रशोक ने उनमं कोई काम करिने की शिक्त ही नही छोड़ी। कौन ऐसा हृदय –शून्य िपरता ह, जो परुत्र की गदर्मन पररि तलवारि चलाकरि िचत्त को शान्त करि लेक?

महाजन के परास जब साल भरि तक सूद न परहंुचा औरि न उसके बारि-बारि बुलाने पररि मुंशीजी उसके परास गये। यहां तक िक िपरछली बारि उन्होंने साफ-साफ कही िदया िक हम िकसी के गुलाम नही हैं, साहूजी जो चाहे करें तब साहूजी को गुस्सा आ गया। उसने नािलश करि दी। मुंशजी परैरिवी करिने भी न गये। एकाएक िडग्री हो गई। यहां घरि में रुपरये कहां रिखे थ? इतने ही िदनों में मुंशीजी की साखि भी उठ गई थी। वह रुपरये का कोई प्रबन्ध न करि सके। आिखिरि मकान नीलाम पररि चढ़ गया। िनम्रला सौरि में थी। यह खिबरि सुनी, तो कलेकजा सन्न-सा हो गया। जीवन में कोई सुखि न होने पररि भी धनाभाव की िचन्ताआं से मुक्त थी। धन मानव जीवन में अगरि सवर्मप्रधान वस्तु नही, तो वह उसके बहुत िनकट की वस्तु अवश्य ह। अब औरि अभावों के साथ यह िचन्ता भी उसके िसरि सवारि हुई। उसे दाई द्वारिा कहला भेजा, मेरे सब गहने बेचकरि घरि को बचा लीिजए, लेकिकन मुंशीजी ने यह प्रस्ताव िकसी तरिह स्वीकारि न िकया।

उस िदन से मुंशीजी औरि भी िचन्ताग्रस्त रिहने लगे। िजस धन का सुखि भोगने के िलए उन्होंने िववाह िकया था, वह अब अतीत की स्मृषित मात्र था। वह मारे ग्लािन क अब िनमर्मला को अपरना मुंह तक न िदखिा सकते। उन्हें अब उसक अन्याय का अनुमान हो रिहा था, जो उन्होंने िनमर्मला के साथ िकया था औरि कन्या के जन्म ने तो रिही-सही कसरि भी परूरिी करि दी, सवर्मनाश ही करि डाला!

बारिहवें िदन सौरि से िनकलकरि िनमर्मला नवजात िशशु को गोद िलये परित के परास गई। वह इस अभाव में भी इतनी प्रसन्न थी, मानो उसे कोई िचन्ता नही ह। बािलका को हृदय से लगारि वह अपरनी सारिी िचन्ताएसं भूल गई थी। िशशु के िवकिसत औरि हषर्म प्रदीप्त नेत्रों को देखिकरि उसका हृदय प्रफुिल्लत हो रिहा था। मातृषत्व के इस उद्गारि में उसके सारे क्लेकश िवलीन हो गये थ। वह िशशु को परित की गोद मे देकरि िनहाल हो जाना चाहती थी , लेकिकन मुंशीजी कन्या को देखिकरि सहम उठे। गोद लेकने के िलए उनका हृदय हुलसा नही, पररि उन्होंने एक बारि उसे करुण नेत्रों से देखिा औरि िफरि िसरि झुका िलया, िशशु की सूरित मंसारिाम से िबलकुल िमलती थी।

िनमर्मला ने उसके मन का भाव औरि ही समझा। उसने शतगुण स्नेह से लड़की को हृदय से लगा िलया मानो

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उसनसे कह रिही ह-अगरि तुम इसके बोझ से दबे जाते हो, तो आज से मैं इस पररि तुम्हारि साया भी नही परड़ने दूंगी। िजस रितन को मैंने इतनी तपरस्या के बाद पराया ह, उसका िनरिादरि करिते हुए तुम्हारि हृदय फट नही जाता? वह उसी क्षण िशशु को गोद से िचपरकाते हुए अपरने कमरे में चली आई औरि देरि तक रिोती रिही। उसने परित की इस उदासीनता को समझने की जरिी भी चेष्टिा न की, नही तो शायद वह उन्हें इतना कठोरि न समझती। उसके िसरि पररि उत्तरिदाियत्व का इतना बड़ा भारि कहां था,जो उसके परित पररि आ परड़ा था? वह सोचने की चेष्टिा करिती, तो क्या इतना भी उसकी समझ में न आता?

मुंशीजी को एक ही क्षण में अपरनी भूल मालूम हो गई। माता का हृदय प्रेम में इतना अनुरिक्त रिहता ह िक भिवष्य की िचन्त्ज्ञ औरि बाधाएं उसे जरिा भी भयभीत नही करिती। उसे अपरने अंत:करिण में एक अलौिकक शिक्त का अनुभव होता ह, जो बाधाआं को उनके सामने पररिास्त करि देती ह। मुंशीजी दौड़े हुए घरि मे आये औरि िशशु को गोद में लेककरि बोलेक मुझे याद आती ह, मंसा भी ऐसा ही था-िबलकुल ऐसा ही!

िनमर्मला-दीदीजी भी तो यही कहती ह।

मुंशीजी-िबलकुल वही बड़ी-बड़ी आंखे औरि लाल-लाल आंठ हैं। ईश्वरि ने मुझे मेरिा मंसारिाम इस रुपर में दे िदया। वही माथा ह, वही मुंह, वही हाथ-परांव! ईश्वरि तुम्हारिी लीला अपरारि ह।

सहसा रुिक्मणी भी आ गई। मुंशीजी को देखिते ही बोली-देखिों बाबू, मंसारिाम ह िक नही? वही आया ह। कोई लाखि कहे, मैं न मानंूगी। साफ मंसारिाम ह। साल भरि के लगभग ही भी तो गया।

मुंशीजी-बिहन, एक-एक अंग तो िमलता ह। बस, भगवान् ने मुझे मेरिा मंसारिाम दे िदया। (िशशु से) क्यों रिी, तू मंसारिाम ही ह? छौड़करि जाने का नाम न लेकना, नही िफरि खिीच लाऊंगा। कैसे िनष्ठुरि होकरि भागे थ। आिखिरि परकड़ लाया िक नही? बस, कह िदया, अब मुझे छोड़करि जाने का नाम न लेकना। देखिो बिहन, कैसी टुकुरि-टुकुरि ताक रिही ह?

उसी क्षण मुंशीजी ने िफरि से अिभलाषाआं का भवन बनाना शुरु करि िदया। मोह ने उन्हें िफरि संसारि की ओरि खिीचां मानव जीवन! तू इतना क्षणभंगुरि ह, पररि तेरिी कल्परनाएं िकतनी दीघालु! वही तोतारिाम जो संसारि से िवरिक्त हो रिह थ, जो रिात-िदन मुत्यु का आवाहन िकया करिते थ, ितनके का सहारिा पराकरि तट पररि परहंुचने के िलए परूरिी शिक्त से हाथ-परांव मारि रिहे हैं।

मगरि ितनके का सहारिा पराकरि कोई तट पररि परहंुचा ह?

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अध्याय-८िनमर्मला को यद्यिपर अपरने घरि के झंझटों से अवकाश न था, पररि कृष्णा के िववाह का संदेश पराकरि वह िकसी

तरिह न रुक सकी। उसकी माता ने बेहुत आग्रह करिके बुलाया था। सबसे बड़ा आकषर्मण यह था िक कृष्णा का िववाह उसी घरि में हो रिहा था, जहां िनमर्मला का िववाह परहलेक तय हुआ था। आश्चयर्म यही था िक इस बारि ये लोग िबना कुछ दहेज िलए कैसे िववाह करिने पररि तैयारि हो गए! िनमर्मला को कृष्णा के िवषय में बड़ी िचन्ता हो रिही थी। समझती थी- मेरिी ही तरिह वह भी िकसी के गलेक मढ़ दी जाएेगी। बहुत चाहती थी िक माता की कुछ सहायता करुं, िजससे कृष्णा के िलए कोई योग्य वह िमलेक, लेकिकन इधरि वकील साहब के घरि बैठ जाने औरि महाजन के नािलश करि देने से उसका हाथ भी तंग था। ऐसी दशा में यह खिबरि पराकरि उसे बड़ी शिन्त िमली। चलने की तैयारिी करि ली। वकील साहब स्टेशन तक परहंुचाने आये। नन्ही बच्ची से उन्हें बहुत प्रेम था। छोैड़ते ही न थ, यहां तक िक िनमर्मला के साथ चलने को तैयारि हो गये, लेकिकन िववाह से एक महीने परहलेक उनका ससुरिाल जा बैठना िनमर्मला को उिचत न मालूम हुआ। िनमर्मला ने अपरनी माता से अब तक अपरनी िवपरित्त कथा न कही थी। जो बात हो गई, उसका रिोना रिोकरि माता को कष्टि देने औरि रुलाने से क्या फायदा? इसिलए उसकी माता समझती थी, िनमर्मला बड़े आनन्द से ह। अब जो िनमर्मला की सूरित देखिी, तो मानो उसके हृदय पररि धक्का-सा लग गया। लड़िकयां सुसुरिाल से घुलकरि नही आती, िफरि िनमर्मला जैसी लड़की, िजसको सुखि की सभी सामिग्रयां प्राप्त थी। उसने िकतनी लड़िकयों को दूज की चन्द्रमा की भांित ससुरिाल जाते औरि परूणर्म चन्द्र बनकरि आते देखिा था। मन में कल्परना करि रिही थी, िनमर्मला का रंिग िनखिरि गया होगा, देह भरिकरि सुडौल हो गई होगी, अंग-प्रत्यंग की शोभा कुछ औरि ही हो गई होगी। अब जो देखिा, तो वह आधी भी न रिही थी न यौवन की चंचलता थी सन वह िवहिसत छिव लो हृदय को मोह लेकती ह। वह कमनीयता, सुकुमारिता, जो िवलासमय जीवन से आ जाती ह, यहां नाम को न थी। मुखि परीला, चेष्टिा िगरिी हुइं, तो माता ने परूछा-क्यों रिी, तुझे वहां खिाने को न िमलता था? इससे कही अच्छी तो तू यही थी। वहां तुझे क्या तकलीफ थी?

कृष्णा ने हंसकरि कहा-वहां मालिकन थी िक नही। मालिकन दिनया भरि की िचन्ताएं रिहती हैं, भोजन कब करें?

िनमर्मला-नही अम्मां, वहां का परानी मुझे रिास नही आया। तबीयत भारिी रिहती ह।

माता-वकील साहब न्योते में आयंेगे न? तब परूछूंगी िक आपरने फूल-सी लड़की लेक जाकरि उसकी यह गत बना डाली। अच्छा, अब यह बता िक तूने यहां रुपरये क्यों भेजे थ? मैंने तो तुमसे कभी न मांगे थ। लाखि गई-गुलरिी हंू, लेकिकन बेटी का धन खिाने की नीयत नही।

िनमर्मला ने चिकत होकरि परूछा- िकसने रुपरये भेजे थ। अम्मां, मैंने तो नही भेजे।

माता-झूठ ने बोल! तूने परांच सौ रुपरये के नोट नही भेजे थ?

कृष्णा-भेजे नही थ, तो क्या आसमान से आ गये? तुम्हारिा नाम साफ िलखिा था। मोहरि भी वही की थी।

िनमर्मला-तुम्हारे चरिण छूकरि कहती हंू, मैंने रुपरये नही भेजे। यह कब की बात ह?

माता-अरे, दो-ढाई महीने हुए होंगे। अगरि तूने नही भेजे, तो आये कहां से?

िनमर्मला-यह मैं क्या जानू? मगरि मैंने रुपरये नही भेजे। हमारे यहां तो जब से जवान बेटा मरिा ह, कचहरिी ही

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नही जाते। मेरिा हाथ तो आपर ही तंग था, रुपरये कहां से आते?

माता- यह तो बड़े आश्चयर्म की बात ह। वहां औरि कोई तेरिा सगा सम्बन्धी तो नही ह? वकील साहब ने तुमसे िछपराकरि तो नही भेजे?

िनमर्मला- नही अम्मां, मुझे तो िवश्वास नही।

माता- इसका परता लगाना चािहए। मैंने सारे रुपरये कृष्णा के गहने-कपरड़े में खिचर्म करि डालेक। यही बड़ी मुिश्कल हुई।

दोनों लड़को में िकसी िवषय पररि िववाद उठ खिड़ा हुआ औरि कृष्णा उधरि फैसला करिने चली गई, तो िनमर्मला ने माता से कहा- इस िववाह की बात सुनकरि मुझे बड़ा आश्चयर्म हुआ। यह कैसे हुआ अम्मां?

माता-यहां जो सुनता ह, दांतों उंगली दबाता हैं। िजन लोगों ने परक्की की करिाई बात फेरि दी औरि केवल थोड़े से रुपरये के लोभ से, वे अब िबना कुछ िलए कैसे िववाह करिने पररि तैयारि हो गये, समझ में नही आता। उन्होंने खिुद ही परत्र भेजा। मैंने साफ िलखि िदया िक मेरे परास देने-लेकने को कुछ नही ह, कुश-कन्या ही से आपरकी सेवा करि सकती हंू।

िनमर्मला-इसका कुछ जवाब नही िदया?

माता-शास्त्रिीजी परत्र लेककरि गये थ। वह तो यही कहते थ िक अब मुंशीजी कुछ लेकने के इच्छुक नही ह। अपरनी परहली वादा-िखिलाफ पररि कुछ लिज्जत भी हैं। मुंशीजी से तो इतनी उदारिता की आशा न थी, मगरि सुनती हंू, उनके बड़े परुत्र बहुत सज्जन आदमी ह। उन्होंने कह सुनकरि बापर को रिाजी िकया ह।

िनमर्मला- परहलेक तो वह महाशय भी थैली चाहते थ न?

माता- हां, मगरि अब तो शास्त्रिीजी कहते थो िक दहेज के नाम से िचढ़ते हैं। सुना ह यहां िववाह न करिने पररि परछताते भी थ। रुपरये के िलए बात छोड़ी थी औरि रुपरये खिूब पराये, स्त्रिी परसंन्द नही।

िनमर्मला के मन में उस परुरुष को देखिने की प्रबल उत्कंठा हुई, जो उसकी अवहेलना करिके अब उसकी बिहन का उद्वारि करिना चाहता हैं प्रायिश्चत सही, लेकिकन िकतने ऐसे प्राणी हैं, जो इस तरिह प्रायिश्चत करिने को तैयारि हैं? उनसे बातें करिने के िलए, नम्र शब्दों से उनका ितरिस्कारि करिने के िलए, अपरनी अनुपरम छिव िदखिाकरि उन्हें औरि भी जलाने के िलए िनमर्मला का हृदय अधीरि हो उठा। रिात को दोनों बिहन एक ही केमरे में सोई। मुहल्लेक में िकन-िकन लड़िकयों का िववाह हो गया, कौन-कौन लड़कोरिी हुइं, िकस-िकस का िववाह धूम-धाम से हुआ। िकस-िकस के परित कन इच्छानुकूल िमलेक, कौन िकतने औरि कैस गहने चढ़ावे में लाया, इन्ही िवषयों में दोनों मे बड़ी देरि तक बातें होती रिही। कृष्णा बारि-बारि चाहती थी िक बिहन के घरि का कुछ हाल परूछं, मगरि िनमर्मला उसे परूछने का अवसरि न देती थी। जानती थी िक यह जो बातें परूछेगी उसके बताने में मुझे संकोच होगा। आिखिरि एक बारि कृष्णा परूछ ही बैठी-जीजाजी भी आयंेगे न?

िनमला- आने को कहा तो ह।

कृष्ण- अब तो तुमसे प्रसन्न रिहते हैं न या अब भी वही हाल ह? मैं तो सुना करिती थी दहाजू परित स्त्रिी को प्राणों से भी िप्रया समझते हैं, वहां िबलकुल उल्टी बात देखिी। आिखिरि िकस बात पररि िबगड़ते रिहते हैं?

िनमर्मला- अब मैं िकसी के मन की बात क्या जानू?

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कुष्णा- मैं तो समझती हंू, तुम्हारिी रुखिाई से वह िचढ़ते होंगे। तुम हो यही से जली हुई गई थी। वहां भी उन्हें कुछ कहा होगा।

िनमर्मला- यह बात नही ह, कृष्णा, मैं सौगन्ध खिाकरि कहती हंू, जो मेरे मन में उनकी ओरि से जरिा भी मैल हो। मुझसे जहां तक हो सकता ह, उनकी सेवा करिती हंू, अगरि उनकी जगह कोई देवता भी होता, तो भी मैं इससे ज्यादा औरि कुछ न करि सकती। उन्हें भी मुझसे प्रेम ह। बरिाबरि मेरिा मुंखि देखिते रिहते हैं, लेकिकन जो बात उनक औरि मेरे काबू के बाहरि ह, उसके िलए वह क्या करि सकते हैं औरि मैं क्या करि सकती हंू? न वह जवान हो सकते हैं, न मैं बुिढ़या हो सकती हंू। जवान बनने के िलए वह न जाने िकतने रिस औरि भस्म खिाते रिहते हैं, मैं बुिढ़या बनने के िलए दूध-घी सब छोड़े बैठी हंू। सोचती हंू, मेरे दबलेकपरन ही से अवस्था का भेद कुछ कम हो जाए, लेकिकन न उन्हें परौिष्टिक परदाथों से कुछ लाभ होता ह, न मुझे उपरवसों से। जब से मंसारिाम का देहान्त हो गया ह, तब से उनकी दशा औरि खिरिाब हो गयी ह।

कृष्णा- मंसारिाम को तुम भी बहुत प्यारि करिती थी?

िनमर्मला- वह लड़का ही ऐसा था िक जो देखिता था, प्यारि करिता था। ऐसी बड़ी-बड़ी डोरेदारि आंखें मैंने िकसी की नही देखिी। कमल की भांित मुखि हरिदम िखिला रिह था। ऐसा साहसी िक अगरि अवसरि आ परड़ता, तो आग में फांद जाता। कृष्णा, मैं तुमसे कहती हंू, जब वह मेरे परास आकरि बैठ जाता, तो मैं अपरने को भूल जाती थी। जी चाहता था, वह हरिदम सामने बैठा रिहे औरि मैं देखिा करुं। मेरे मन में परापर का लेकश भी न था। अगरि एक क्षण के िलए भी मैंने उसकी ओरि िकसी औरि भाव से देखिा हो, तो मेरिी आंखें फूट जाएं, पररि न जाने क्यों उसे अपरने परास देखिकरि मेरिा हृदय फूला न समाता था। इसीिलए मैंने परढ़ने का स्वांग रिचा नही तो वह घरि में आता ही न था। यह मै। जानती हंू िक अगरि उसके मन में परापर होता, तो मैं उसके िलए सब कुछ करि सकती थी।

कृष्णा- अरे बिहन, चुपर रिहो, कैसी बातें मुंह से िनकालती हो?

िनमर्मला- हां, यह बात सुनने में बुरिी मालूम होती ह औरि ह भी बुरिी, लेकिकन मनुष्य की प्रकृित को तो कोई बदल नही सकता। तू ही बता- एक परचास वषर्म के मदर्म से तेरिा िववाह हो जाएे, तो तू क्या करेगी?

कृष्णा-बिहन, मैं तो जहरि खिाकरि सो रिहंू। मुझसे तो उसका मुंह भी न देखिते बने।

िनमर्मला- तो बस यही समझ लेक। उस लड़के ने कभी मेरिी ओरि आंखि उठाकरि नही देखिा, लेकिकन बुड्ढे तो शक्की होते ही हैं, तुम्हारे जीजा उस लड़के के दश्मन हो गए औरि आिखिरि उसकी जान लेककरि ही छोड़ी। िजसे िदन उसे मालूम हो गया िक िपरताजी के मन में मेरिी ओरि से सन्देह ह, उसी िदन के उसे ज्वरि चढ़ा, जो जान लेककरि ही उतरिा। हाय! उस अिन्तम समय का दृषश्य आंखिों से नही उतरिता। मैं अस्परताल गई थी, वह ज्वी में बेहोश परड़ा था, उठने की शिक्त न थी, लेकिकन ज्यों ही मेरिी आवाज सुनी, चौंककरि उठ बैठा औरि ‘माता-माता’ कहकरि मेरे परैरिों पररि िगरि परड़ा (रिोकरि) कृष्णा, उस समय ऐसा जी चाहता था अपरने प्राण िनकाल करि उसे दे दूं। मेरे परैरिां पररि ही वह मूिछत हो गया औरि िफरि आंखें न खिोली। डॉक्टरि ने उसकी देह मे ताजा खिून डालने का प्रस्ताव िकया था , यही सुनकरि मैं दौड़ी गई थी लेकिकन जब तक डॉक्टरि लोग वह प्रिक्रया आरिम्भ करें, उसके प्राण, िनकल गए।

कृष्णा- ताजा रिक्त परड़ जाने से उसकी जान बच जाती?

िनमर्मला- कौन जानता ह? लेकिकन मैं तो अपरने रुिधरि की अिन्तम बूंद तक देने का तैयारि थी उस दशा में भी उसका मुखिमण्डल दीपरक की भांित चमकता था। अगरि वह मुझे देखिते ही दौड़करि मेरे परैरिों पररि न िगरि परड़ता,

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परहलेक कुछ रिक्त देह में परहंुच जाता, तो शायद बच जाता।

कृष्णा- तो तुमने उन्हें उसी वक्ता िलटा क्यों न िदया?

िनमर्मला- अरे परगली, तू अभी तक बात न समझी। वह मेरे परैरिों पररि िगरिकरि औरि माता-परुत्र का सम्बन्ध िदखिाकरि अपरने बापर के िदल से वह सन्देह िनकाल देना चाहता था। केवल इसीिलए वह उठा थ। मेरिा क्लेकश िमटाने के िलए उसने प्राण िदये औरि उसकी वह इच्छा परूरिी हो गई। तुम्हारे जीजाजी उसी िदन से सीधे हो गये। अब तो उनकी दशा पररि मुझे दया आती ह। परुत्र-शाक उनक प्राण लेककरि छोड़ेगा। मुझ पररि सन्देह करिके मेरे साथ जो अन्याय िकया ह, अब उसका प्रितशोध करि रिहे हैं। अबकी उनकी सूरित देखिकरि तू डरि जाएेगी। बूढ़े बाबा हो गये हैं, कमरि भी कुछ झुक चली ह।

कृष्णा- बुड्ढे लोग इतनी शक्की क्यों होते हैं, बिहन?

िनमर्मला- यह जाकरि बुड्ढों से परूछो।

कृष्णा- मैं समझती हंू, उनके िदल में हरिदम एक चोरि-सा बैठा रिहता होगा िक इस युवती को प्रसन्न नही रिखि सकता। इसिलए जरिा-जरिा-सी बात पररि उन्हें शक होने लगता ह।

िनमर्मला- जानती तो ह, िफरि मुझसे क्यों परूछती ह?

कुष्णा- इसीिलए बेचारिा स्त्रिी से दबता भी होगा। देखिने वालेक समझते होंगे िक यह बहुत प्रेम करिता ह।

िनमर्मला- तूने इतने ही िदनों में इ तनी बातें कहां सीखि ली? इन बातों को जाने दे, बता, तुझे अपरना वरि परसन्द ह? उसकी तस्वीरि ता देखिी होगी?

कृष्णा- हां, आई तो थी, लाऊ,ं देखिोगी?

एक क्षण में कृष्णा ने तस्वीरि लाकरि िनमर्मला के हाथ में रिखि दी।

िनमर्मला ने मुस्करिाकरि कहा-तू बड़ी भाग्यवान् ह।

कृष्णा- अम्माजी ने भी बहुत परसन्द िकया।

िनमर्मला- तुझे परसन्द ह िक नही, सो कह, दूसरिों की बात न चला।

कृष्णा- (लजाती हुई) शक्ल-सूरित तो बुरिी नही ह, स्वभाव का हाल ईश्वरि जाने। शास्त्रिीजी तो कहते थ, ऐसे सुशील औरि चिरित्रवान् युवक कम होंगे।

िनमर्मला- यहां से तेरिी तस्वीरि भी गई थी?

कृष्णा- गई तो थी, शास्त्रिीजी ही तो लेक गए थ।

िनमर्मला- उन्हें परसन्द आई?

कृष्णा- अब िकसी के मन की बात मैं क्या जानंू? शास्त्रिी जी कहते थ, बहुत खिुश हुए थ।

िनमर्मला- अच्छा, बता, तुझे क्या उपरहारि दूं? अभी से बता दे, िजससे बनवा रिखिूं।

कृष्णा- जो तुम्हारिा जी चाहे, देना। उन्हें परुस्तकों से बहुत प्रेम ह। अच्छी-अच्छी परुस्तकें मंगवा देना।

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िनमर्मला-उनके िलए नही परूछती तेरे िलए परूछती हंू।

कृष्णा- अपरने ही िलये तो मैं कह रिही हंू।

िनमर्मला- (तस्वीरि की तरिफ देखिती हुई) कपरड़े सब खिद्दरि के मालूम होते हैं।

कृष्णा- हां, खिद्दरि के बड़े प्रेमी हैं। सुनती हंू िक परीठ पररि खिद्दरि लाद करि देहातों में बेचने जाएा करिते हैं। व्याख्यान देने में भी चतुरि हैं।

िनमर्मला- तब तो मुझे भी खिद्द परहनना परड़ेगा। तुझे तो मोटे कपरड़ो से िचढ़ ह।

कृष्णा- जब उन्हें मोटे कपरड़े अच्छे लगते हैं, तो मुझे क्यों िचढ़ होगी, मैंने तो चखिा चलाना सीखि िलया ह।

िनमर्मला- सच! सूत िनकाल लेकती ह?

कृष्णा- हां, बिहन, थोड़ा-थोड़ा िनकाल लेकती हंू। जब वह खिद्दरि के इतने प्रेमी हैं, जो चखिा भी जरुरि चलाते होंगे। मैं न चला सकूंगी, तो मुझे िकतना लिज्जत होना परड़ेगा।

इस तरिह बात करिते-करिते दोनों बिहनों सोइं। कोई दो बजे रिात को बच्ची रिोई तो िनमर्मला की नीद खिुली। देखिा तो कृष्णा की चारिपराई खिाली परड़ी थी। िनमर्मला को आश्चयर्म हुआ िक इतना रिात गये कृष्णा कहां चली गई। शायद परानी-वानी परीने गई हो। मगरिी परानी तो िसरिहाने रिखिा हुआ ह, िफरि कहां गई ह? उसे दो-तीन बारि उसका नाम लेककरि आवाज दी, पररि कृष्णा का परता न था। तब तो िनमर्मला घबरिा उठी। उसके मन में भांित-भांित की शंकाएं होने लगी। सहसा उसे ख्याल आया िक शायद अपरने कमरे में न चली गई हो। बच्ची सो गई, तो वह उठकरि कृष्णा के के कमरे के द्वारि पररि आई। उसका अनुमान ठीक था, कृष्णा अपरने कमरे में थी। सारिा घरि सो रिहा था औरि वह बैठी चखिा चला रिही थी। इतनी तन्मयता से शायद उसने िथऐटरि भी न देखिा होगा। िनमर्मला दंग रिह गई। अन्दरि जाकरि बोली- यह क्या करि रिही ह रे! यह चखिा चलाने का समय ह?

कृष्णा चौंककरि उठ बैठी औरि संकोच से िसरि झुकाकरि बोली- तुम्हारिी नीद कैसे खिुल गई? परानी-वानी तो मैंने रिखि िदया था।

िनमर्मला- मैं कहती हंू, िदन को तुझे समय नही िमलता, जो िपरछली रिात को चखिा लेककरि बैठी ह?

कृष्णा- िदन को फुरिसत ही नही िमलती?

िनमर्मला- (सूत देखिकरि) सूत तो बहुत महीन ह।

कृष्णा- कहां-बिहन, यह सूत तो मोटा ह। मैं बारिीक सूतकात करि उनके िलए साफा बनाना चाहती हंू। यही मेरिा उपरहारि होगा।

िनमर्मला- बात तो तूने खिूब सोची ह। इससे अिधक मूल्यवसान वस्तु उनकी दृषिष्टि में औरि क्या होगी? अच्छा, उठ इस वक्त, कल कातना! कही बीमारि परड़ जाएेगी, तो सब धरिा रिह जाएेगा।

कृष्णा- नही मेरिी बिहन, तुम चलकरि सोओ, मैं अभी आती हंू।

िनमर्मला ने अिधक आग्रह न िकया, लेकटने चली गई। मगरि िकसी तरिह नीद न आई। कृष्णा की उत्सुकता औरि यह उमंग देखिकरि उसका हृदय िकसी अलिक्षत आकांक्षा से आन्दोिलत हो उठां ओह! इस समय इसका हृदय िकतना प्रफुिल्लत हो रिहा ह। अनुरिाग ने इसे िकतना उन्मत्त करि रिखिा ह। तब उसे अपरने िववाह की याद आई।

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िजस िदन ितलक गया था, उसी िदन से उसकी सारिी चंचलता, सारिी सजीवता िवदा हो गेई थी। अपरनी कोठरिी में बैठी वह अपरनी िकस्मत को रिोती थी औरि ईश्वरि से िवनय करिती थी िक प्राण िनकल जाएे। अपररिाधी जैसे दंड की प्रतीक्षा करिता ह, उसी भांित वह िववाह की प्रतीक्षा करिती थी, उस िववाह की, िजसमें उसक जीवन की सारिी अिभलाषाएं िवलीन हो जाएंगी, जब मण्डपर के नीचे बने हुए हवन-कुण्ड में उसकी आशाएं जलकरि भस्म हो जाएंगी।

महीना कटते देरि न लगी। िववाह का शुभ मुहूतर्म आ परहंुचां मेहमानों से घारि भारि गया। मंशी तोतारिाम एक िदन परहलेक आ गये औरि उसनके साथ िनमर्मला की सहेली भी आई। िनमर्मला ने बहुत आग्रह न िकया था, वह खिुद आने को उत्सुक थी। िनमर्मला की सबसे बड़ी उत्कंठा यही थी िक वरि के बड़े भाई के दशर्मन करुंगी औरि हो सकता तो उसकी सुबुिद्व पररि धन्यवाद दूंगी।

सुधा ने हंस करि कहा-तुम उनसे बोल सकोगी?

िनमर्मला- क्यों, बोलने में क्या हािन ह? अब तो दूसरिा ही सम्बन्ध हो गया औरि मैं न बोल सकूंगी, तो तुम तो हो ही।

सुधा-न भाई, मुझसे यह न होगा। मैं पररिाये मदर्म से नही बोल सकती। न जाने कैसे आदमी हों।

िनमर्मला-आदमी तो बुरे नही ह, औरि िफरि उनसे कुछ िववाह तो करिना नही, जरिा-सा बोलने में क्या हािन ह? डॉक्टरि साहब यहां होते, तो मैं तुम्हें आज्ञा िदला देती।

सुधा-जो लोग हुदय के उदारि होते हैं, क्या चिरित्र के भी अच्छे होते ह? पररिाई स्त्रिी की घूरिने में तो िकसी मदर्म को संकोच नही होता।

िनमर्मला-अच्छा न बोलना, मैं ही बातें करि लूंगी, घूरि लेंगे िजतना उनसे घूरिते बनेगा, बस, अब तो रिाजी हुई।

इतने में कृष्णा आकरि बैठ गई। िनमर्मला ने मुस्करिाकरि कहा-सच बता कृष्णा, तेरिा मन इस वक्त क्यों उचाट हो रिहा ह?

कृष्णा-जीजाजी बुला रिहे हैं, परहलेक जाकरि सुना आआ, परीछे गप्पें लड़ाना बहुत िबगड़ रिहे हैं।

िनमर्मला- क्या ह, तून कुछ परूछा नही?

कृष्णा- कुछ बीमारि से मालूम होते हैं। बहुत दबलेक हो गए हैं।

िनमर्मला- तो जरिा बैठकरि उनका मन बहला देती। यहां दौड़ी क्यों चली आई? यह कहो, ईश्वरि ने कृपरा की, नही तो ऐसा ही परुरुषा तुझे भी िमलता। जरिा बैठकरि बातें करिो। बुड्ढे बातें बड़ी लच्छेदारि करिते हैं। जवान इतने डीिगयल नही होते।

कृष्णा- नही बिहन, तुम जाओ, मुझसे तो वहां बैठा नही जाता।

िनमर्मला चली गई, तो सुधा ने कृष्णा से कहा- अब तो बारिात आ गई होगी। द्वारि-परूजा क्यों नही होती?

कृष्णा- क्या जाने बिहन, शास्त्रिीजी सामान इकट्ठा करि रिहे हैं?

सुधा- सुना ह, दूल्हा का भावज बड़े कड़े स्वाभाव की स्त्रिी ह।

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कृष्णा- कैसे मालूम?

सुधा- मैंने सुना ह, इसीिलए चेताये देती हंू। चारि बातें गम खिाकरि रिहना होगा।

कृष्णा- मेरिी झगड़ने की आदत नही। जब मेरिी तरिफ से कोई िशकायत ही न परायंेगी तो क्या अनायास ही िबगड़ेगी!

सुधा- हां, सुना तो ऐसा ही ह। झूठ-मूठ लड़ा कारिती ह।

कृष्णा- मैं तो सौबात की एक बात जानती हंू, नम्रता परत्थरि को भी मोम करि देती ह।

सहसा शोरि मचा- बारिात आ रिही ह। दोनों रिमिणयां िखिड़की के सामने आ बैठी। एक क्षण में िनमर्मला भी आ परहंुची।

वरि के बड़े भाई को देखिने की उसे बड़ी उत्सुकता हो रिही थी।

सुधा ने कहा- कैसे परता चलेकगा िक बड़े भाई कौन हैं?

िनमर्मला- शास्त्रिीजी से परूछूं, तो मालूम हो। हाथी पररि तो कृष्णा के ससुरि महाशय हैं। अच्छा डॉक्टरि साहब यहां कैसे आ परहँुचे! वह घोड़े पररि क्या

हैं, देखिती नही हो?

सुधा- हां, हैं तो वही।

िनमर्मला- उन लोगों से िमत्रता होगी। कोई सम्बन्ध तो नही ह।

सुधा- अब भेंट हो तो परूछूं, मुझे तो कुछ नही मालूम।

िनमर्मला- परालकी मे जो महाशय बैठे हुए हैं, वह तो दूल्हा के भाई जैसे नही दीखिते।

सुधा- िबलकुल नही। मालूम होता ह, सारिी देहे मे पेछ-ही-पेट ह।

िनमर्मला- दूसरे हाथी पररि कौन बैठा ह, समझ में नही आता।

सुधा- कोई हो, दूल्हा का भाई नही हो सकता। उसकी उम्र नही देखिती हो, चालीस के ऊपररि होंगी।

िनमर्मला- शास्त्रिजी तो इस वक्त द्वारि-परूजा िक िफक्र में हैं, नही तोा उनसे परूछती।

संयोग से नाई आ गया। सन्दूकों की कुंिलयां िनमर्मला के परास थी। इस वक्त द्वारिचारि के िलए कुछ रुपरये की जरुरित थी, माता ने भेजा था, यह नाई भी परिण्डत मोटेरिाम जी के साथ ितलक लेककरि गया था।

िनमर्मला ने कहा- क्या अभी रुपरये चािहए?

नाई- हां बिहनजी, चलकरि दे दीिजए।

िनमर्मला- अच्छा चलती हंू। परहलेक यह बता, तू दूल्हा क बड़े भाई को परहचानता ह?

नाई- परहचानता काहे नही, वह क्या सामने हैं।

िनमर्मला- कहां, मैं तो नही देखिती?

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नाई- अरे वह क्या घोड़े पररि सवारि हैं। वही तो हैं।

िनमर्मला ने चिकत होकरि कहा- क्या कहता ह, घोड़े पररि दूल्हा के भाई हैं! परहचानता ह या अटकल से कह रिहा ह?

नाई- अरे बिहनजी, क्या इतना भूल जाऊंगा अभी तो जलपरान का सामान िदये चला आता हंू।

िनमर्मल- अरे, यह तो डॉक्टरि साहब हैं। मेरे परड़ोस में रिहते हैं।

नाई- हां-हां, वही तो डॉक्टरि साहब ह।

िनमर्मला ने सुधा की ओरि देखिकरि कहा- सुनती ही बिहन, इसकी बातें? सुधा ने हंसी रिोककरि कहा-झूठ बोलता ह।

नाई- अच्छा साहब, झूठ ही सही, अब बड़ों के मुंह कौन लगे! अभी शास्त्रिीजी से परूछवा दूंगा, तब तो मािनएगा?

नाई के आने में देरि हुई, मोटेरिाम खिुद आंगन में आकरि शोरि मचाने लगे-इस घरि की मयादा रिखिना ईश्वरि ही के हाथ ह। नाई घण्टे भरि से आया हुआ ह, औरि अभी तक रुपरये नही िमलेक।

िनमर्मला- जरिा यहां चलेक आइएगा शास्त्रिीजी, िकतने रुपरये दरिकरिारि हैं, िनकाल दूं?

शास्त्रिीजी भुनभुनाते औरि जोरि-जारे से हांफते हुए ऊपररि आये औरि एक लम्बी सांस लेककरि बोलेक-क्या ह? यह बातों का समय नही ह, जल्दी से रुपरये िनकाल दो।

िनमर्मला- लीिजए, िनकाल तो रिही हंू। अब क्या मुंह के बल िगरि परडूं? परहलेक यह बताइए िक दूलहा के बड़े भाई कौन हैं?

शास्त्रिीजी- रिामे-रिाम, इतनी-सी बात के िलए मुझे आकाश पररि लटका िदया। नाई क्या न परहचानता था?

िनमर्मला- नाई तो कहता ह िक वह जो घोड़े पररि सवारि ह, वही हैं।

शास्त्रिीजी- तो िफरि िकसे बता दे? वही तो हैं ही।

नाई- घड़ी भरि से कह रिहा हंू, पररि बिहनजी मानती ही नही।

िनमर्मला ने सुधा की ओरि स्नेह, ममता, िवनोद कृित्रम ितरिस्कारि की दृषिष्टि से देखिकरि कहा- अच्छा, तो तुम्ही अब तक मेरे साथ यह ित्रया-चिरित्र खेरि रिही थी! मैं जानती, तो तुम्हें यहां बुलाती ही नही। ओफ्फोह! बड़ा गहरिा पेट ह तुम्हारिा! तुम महीनों से मेरे साथ शरिारित करिती चली आती हो, औरि कभी भूल से भी इस िवषय का एक शब्द तुम्हारे मुंह से नही िनकला। मैं तो दो-चारि ही िदन में उबल परड़ती।

सुधा- तुम्हें मालूम हो जाता, तो तुम मेरे यहां आती ही क्यों?

िनमर्मला- गजब-रे-गजब, मैं डॉक्टरि साहब से कई बारि बातें करि चुकी हंू। तुम्हारिो ऊपररि यह सारिा परापर परड़ेगा। देखिा कृष्णा, तूने अपरनी जेठानी की शरिारित! यह ऐसी मायािवनी ह, इनसे डरिती रिहना।

कृष्णा- मैं तो ऐसी देवी के चरिण धो-धोकरि माथ चढाऊंगी। धन्य-भाग िक इनके दशर्मन हुए।

िनमर्मला- अब समझ गई। रुपरये भी तुम्हें न िभजवाये होंगे। अब िसरि िहलाया तो सच कहती हंू, मारि बैठूंगी।

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सुधा- अपरने घरि बुलाकरि के मेहमान का अपरमान नही िकया जाता। िनमर्मला- देखिो तो अभी कैसी-कैसी खिबरे लेकती हंू। मैंने तुम्हारिा मान रिखिने को जरिा-सा िलखि िदया था औरि तुम सचमुच आ परहंुची। भला वहां वालेक क्या कहते होंगे?

सुधा- सबसे कहकरि आई हंू।

िनमर्मला- अब तुम्हारे परास कभी न आऊंगी। इतना तो इशारिा करि देती िक डॉक्टरि साहब से परदा रिखिना।

सुधा- उनके देखि लेकने ही से कौन बुरिाई हो गई? न देखिते तो अपरनी िकस्मत को रिोते कैसे? जानते कैसे िक लोभ में परड़करि कैसी चीज खिो दी? अब तो तुम्हें देखिकरि लालाजी हाथ मलकरि रिह जाते हैं। मुंह से तो कुछ नही सकहते, पररि मन में अपरनी भूल पररि परछताते हैं।

िनमर्मला- अब तुम्हारे घरि कभी न आऊंगी।

सुधा- अब िपरण्ड नही छूट सकता। मैंने कौन तुम्हारे घरि की रिाह नी देखिी ह।

द्वारि-परूजा समाप्त हो चुकी थी। मेहमान लोग बैठ जलपरान करि रिहे थ। मुंशीजी की बेगल में ही डॉक्टरि िसन्हा बैठे हुए थ। िनमर्मला ने कोठे पररि िचक की आड़ से उन्हें देखिा औरि कलेकजा थामकरि रिह गई। एक आरिोग्य, यौवन औरि प्रितभा का देवता था, पररि दूसरिा...इस िवषय में कुछ न कहना ही दिचत ह।

िनमर्मला ने डॉक्टरि साहब को सैकड़ों ही बारि देखिा था, पररि आज उसके हृदय में जो िवचारि उठे, वे कभी न उठे थ। बारि-बारि यह जी चाहता था िक बुलाकरि खिूब फटकारुं, ऐसे-ऐसे ताने मारुं िक वह भी याद करें, रुला-रुलाकरि छोडूं, मेगरि रिहम करिके रिह जाती थी। बारिात जनवासे चली गई थी। भोजन की तैयारिी हो रिही थी। िनमर्मला भोजन के थाल चुनने में व्यस्त थी। सहसा महरिी ने आकरि कहा- िबट्टी, तुम्हें सुधा रिानी बुला रिही ह। तुम्हारे कमरे में बैठी हैं।

िनमर्मला ने थाल छोड़ िदये औरि घबरिाई हुई सुधा के परास आई, मगरि अन्दरि कदम रिखिते ही िठठक गई, डॉक्टरि िसन्हा खिड़े थ।

सुधा ने मुस्करिाकरि कहा- लो बिहन, बुला िदया। अब िजतना चाहो, फटकारिो। मैं दरिवाजा रिोके खिड़ी हंू, भाग नही सकते।

डॉक्टरि साहब ने गम्भीरि भाव से कहा- भागता कौन ह? यहां तो िसरि झुकाए खिड़ा हंू।

िनमर्मला ने हाथ जोड़करि कहा- इसी तरिह सदा कृपरा-दृषिष्टि रििखिएगा, भूल न जाइएगा। यह मेरिी िवनय ह।

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अध्याय-९कृष्णा के िववाह के बाद सुधा चली गई, लेकिकन िनमर्मला मैके ही में रिह गई। वकील साहब बारि-बारि िलखिते

थ, पररि वह न जाती थी। वहां जाने को उसका जी न चाहता था। वहां कोई ऐसी चीज न थी, जो उसे खिीच लेक जाएे। यहां माता की सेवा औरि छोटे भाइयों की देखिभाल में उसका समय बड़े आनन्द के कट जाता था। वकील साहब खिुद आते तो शायद वह जाने पररि रिाजी हो जाती, लेकिकन इस िववाह में, मुहल्लेक की लड़िकयों ने उनकी वह दगर्मत की थी िक बेचारे आने का नाम ही न लेकते थ। सुधा ने भी कई बारि परत्र िलखिा, पररि िनमर्मला ने उससे भी हीलेक-हव़ालेक िकया। आिखिरि एक िदन सुधा ने नौकरि को साथ िलया औरि स्वयं आ धमकी।

जब दोनों गलेक िमल चुकी, तो सुधा ने कहा-तुम्हें तो वहां जाते मानो डरि लगता ह।

िनमर्मला- हां बिहन, डरि तो लगता ह। ब्याह की गई तीन साल में आई, अब की तो वहां उम्र ही खितम हो जाएेगी, िफरि कौन बुलाता ह औरि कौन आता ह?

सुधा- आने को क्या हुआ, जब जी चाहे चली आना। वहां वकील साहब बहुत बेचैन हो रिहे हैं।

िनमर्मला- बहुत बेचैन, रिात को शायद नीद न आती हो।

सुधा- बिहन, तुम्हारिा कलेकजा परत्थरि का ह। उनकी दशा देखिकरि तरिस आता ह। कहते थ, घरि मे कोई परूछने वाला नही, न कोई लड़का, न बाला, िकससे जी बहलायंे? जब से दूसरे मकान में उठ आए हैं, बहुत दखिी रिहते हैं।

िनमर्मला- लड़के तो ईश्वरि के िदये दो-दो हैं।

सुधा- उन दोनों की तो बड़ी िशकायत करिते थ। िजयारिाम तो अब बात ही नही सुनता-तुकी-बतुकी जवाब देता ह। रिहा छोटा, वह भी उसी के कहने में ह। बेचारे बड़े लड़के की याद करिके रिोया करिते हैं।

िनमर्मला- िजयारिाम तो शरिीरि न था, वह बदमाशी कब से सीखि गया? मेरिी तो कोई बात न टालता था, इशारे पररि काम करिता था।

सुधा- क्या जाने बिहन, सुना, कहता ह, आपर ही ने भैया को जहरि देकरि मारि डाला, आपर हत्यारे हैं। कई बारि तुमसे िववाह करिने के िलए ताने दे चुका ह। ऐसी-ऐसी बातें कहता ह िक वकील साहब रिो परड़ते हैं। अरे, औरि तो क्या कहंू, एक िदन परत्थरि उठाकरि मारिने दौड़ा था।

िनमर्मला ने गम्भीरि िचन्ता में परड़करि कहा- यह लड़का तो बड़ा शैतान िनकला। उसे यह िकसने कहा िक उसके भाई को उन्होंने जहरि दे िदया ह?

सुधा- वह तुम्ही से ठीक होगा।

िनमर्मला को यह नई िचन्ता परैदा हुई। अगरि िजया की यही रंिग ह, अपरने बापर से लड़ने पररि तैयारि रिहता ह, तो मुझसे क्यों दबने लगा? वह रिात को बड़ी देरि तक इसी िफक्र मे डूबी रिही। मंसारिाम की आज उसे बहुत याद आई। उसके साथ िजन्दगी आरिाम से कट जाती। इस लड़के का जब अपरने िपरता के सामने ही वह हाल ह, तो उनके परीछे उसके साथ कैसे िनवाह होगा! घरि हाथ से िनकल ही गया। कुछ-न-कुछ कजर्म अभी िसरि पररि होगा ही, आमदनी का यह हाल। ईश्ववरि ही बेड़ा परारि लगायंेगे। आज परहली बारि िनमर्मला को बच्चों की िफक्र परैदा हुई। इस बेचारिी का न जाने क्या हाल होगा? ईश्वरि ने यह िवपरित्त िसरि डाल दी। मुझे तो इसकी जरुरित न थी। जन्म ही

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लेकना था, तो िकसी भाग्यवान के घरि जन्म लेकती। बच्ची उसकी छाती से िलपरटी हुई सो रिही थी। माता ने उसको औरि भी िचपरटा िलया, मानो कोई उसके हाथ से उसे छीने िलये जाता ह।

िनमर्मला के परास ही सुधा की चारिपराई भी थी। िनमर्तेला तो िचन्त्ज्ञ सागरि मे गोता था रिही थी औरि सुधा मीठी नीद का आनन्द उठा रिही थी। क्या उसे अपरने बालक की िफक्र सताती ह? मृषत्यु तो बूढ़े औरि जवान का भेद नही करिती, िफनरि सुधा को कोई िचन्ता क्यों नही सताती? उसे तो कभी भिवष्य की िचन्ता से उदास नही देखिा।

सहसा सुधा की नीद खिुल गई। उसने िनमर्मला को अभी तक जागते देखिा, तो बोली- अरे अभी तुम सोई नही?

िनमर्मला- नीद ही नही आती।

सुधा- आंखें बन्द करि लो, आपर ही नीद आ जाएेगी। मैं तो चारिपराई पररि आते ही मरि-सी जाती हंू। वह जागते भी हैं, तो खिबरि नही होती। न जाने मुझे क्यों इतनी नीद आती ह। शायद कोई रिोग ह।

िनमर्मला- हां, बड़ा भारिी रिोग ह। इसे रिाज-रिोग कहते हैं। डॉक्टरि साहब से कहो-दवा शुरु करि दें।

सुधा- तो आिखिरि जागकरि क्या सोचूं? कभी-कभी मैके की याद आ जाती ह, तो उस िदन जरिा देरि में आंखि लगती ह।

िनमर्मला- डॉक्टरि साहब की यादा नही आती?

सुधा- कभी नही, उनकी याद क्यों आये? जानती हंू िक टेिनस खेलकरि आये होंगे, खिाना खिाया होगा औरि आरिाम से लेकटे होंगे।

िनमर्मला- लो, सोहन भी जाग गया। जब तुम जाग गइं

तो भला यह क्यों सोने लगा?

सुधा- हां बिहन, इसकी अजीब आदत ह। मेरे साथ सोता औरि मेरे ही साथ जागता ह। उस जन्म का कोई तपरस्वी ह। देखिो, इसके माथ पररि ितलक का कैसा िनशान ह। बांहों पररि भी ऐसे ही िनशान हैं। जरुरि कोई तपरस्वी ह।

िनमर्मला- तपरस्वी लोग तो चन्दन-ितलक नही लगाते। उस जन्म का कोई धूतर्म परुजारिी होगा। क्यों रे, तू कहां का परुजारिी था? बता?

सुधा- इसका ब्याह मैं बच्ची से करुंगी।

िनमर्मला- चलो बिहन, गाली देती हो। बिहन से भी भाई का ब्याह होता ह?

सुधा- मैं तो करुंगी, चाहे कोई कुछ कहे। ऐसी सुन्दरि बहू औरि कहां पराऊंगी? जरिा देखिो तो बहन, इसकी देह कुछ गमर्म ह या मुझके ही मालूम होती ह।

िनमर्मला ने सोहन का माथा छूकरि कहा-नही-नही, देह गमर्म ह। यह ज्वरि कब आ गया! दूध तो परी रिहा ह न?

सुधा- अभी सोया था, तब तो देह ठंडी थी। शायद सदी लग गई, उढ़ाकरि सुलाये देती हंू। सबेरे तक ठीक हो जाएेगा।

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सबेरिा हुआ तो सोहन की दशा औरि भी खिरिाब हो गई। उसकी नाक बहने लगी औरि बुखिारि औरि भी तेज हो गया। आंखें चढ़ गइं औरि िसरि झुक गया। न वह हाथ-परैरि िहलाता था, न हंसता-बोलता था, बस, चुपरचापर परड़ा था। ऐसा मालूम होता था िक उसे इस वक्त िकसी का बोलना अच्छा नही लगता। कुछ-कुछ खिांसी भी आने लगी। अब तो सुधा घबरिाई। िनमर्मला की भी रिाय हुई िक डॉक्टरि साहब को बुलाया जाएे, लेकिकन उसकी बूढ़ी माता ने कहा-डॉक्टरि-हकीम साहब का यहां कुछ काम नही। साफ तो देखि रिही हंू। िक बच्चे को नजरि लग गई ह। भला डॉक्टरि

आकरि क्या करेंगे?

सुधा- अम्मांजी, भला यहां नजरि कौन लगा देगा? अभी तक तो बाहरि कही गया भी नही।

माता- नजरि कोई लगाता नही बेटी, िकसी-िकसी आदमी की दीठ बुरिी होती ह, आपर-ही-आपर लग जाती ह। कभी-कभी मां-बापर तक की नजरि लग जाती ह। जब से आया ह, एक बारि भी नही रिोया। चोंचलेक बच्चों को यही गित होती ह। मैं इसे हुमकते देखिकरि डरिी थी िक कुछ-न-कुछ अिनष्टि होने वाला ह। आंखें नही देखिती हो, िकतनी चढ़ गई हैं। यही नजरि की सबसे बड़ी परहचान ह।

बुिढ़या महरिी औरि परड़ोस की परंिडताइन ने इस कथन का अनुमोदन करि िदया। बस महंगू ने आकरि बच्चे का मुंह देखिा औरि हंस करि बोला-मालिकन, यह दीठ ह औरि नही। जरिा परतली-परतली तीिलयां मंगवा दीिजए। भगवान ने चाहा तो संझा तक बच्चा हंसने लगेगा।

सरिकण्डे के परांच टुकड़े लाये गये। महगूं ने उन्हें बरिाबरि करिके एक डोरे से बांध िदया औरि कुछ बुदबुदाकरि उसी परोलेक हाथों से परांच बारि सोहन का िसरि सहलाया। अब जो देखिा, तो परांचों तीिलयां छोटी-बड़ी हो गेई थी। सब स्त्रिीयों यह कौतुक देखिकरि दंग रिह गइं। अब नजरि में िकसे सन्देह हो सकता था। महगूं ने िफरि बच्चे को तीिलयों से सहलाना शुरु िकया। अब की तीिलयां बरिाबरि हो गइं। केवल थोड़ा-सा अन्तरि रिह गया। यह सब इस बात का प्रमाण था िक नजरि का असरि अब थोड़ा-सा औरि रिह गया ह। महगू सबको िदलासा देकरि शाम को िफरि आने का वायदा करिके चला गया। बालक की दशा िदन को औरि खिरिाब हो गई। खिांसी का जोरि हो गया। शाम के समय महगूं ने आकरिा िफरि तीिलयों का तमाशा िकया। इस वक्त परांचों तीिलयों बरिाबरि िनकली। स्त्रिीयां िनिश्चत हो गइं लेकिकन सोहन को सारिी रिात खिांसते गुजरिी। यहां तक िक कई बारि उसकी आंखें उलट गइं। सुधा औरि िनमर्मला दोनों ने बैठकरि सबेरिा िकया। खिैरि, रिात कुशल से कट गई। अब वृषद्वा माताजी नया रंिग लाइं। महगूं नजरि न उतारि सका, इसिलए अब िकसी मौलवी से फूंक डलवाना जरुरिी हो गया। सुधा िफरि भी अपरने परित को सूचना न दे सकी। मेहरिी सोहन को एक चादरि से लपेट करि एक मिस्जद में लेक गई औरि फूंक डलवा लाई, शाम को भी फूंक छोड़ी, पररि सोहन ने िसरि न उठाया। रिात आ गई, सुधा ने मन मे िनश्चय िकया िक रिात कुशल से बीतेगी, तो प्रात:काल परित को तारि दूंगी।

लेकिकन रिात कुशल से न बीतने पराई। आधी रिात जाते-जाते बच्चा हाथ से िनकल गया। सुधा की जीन- सम्परित्त देखिते-देखिते उसके हाथों से िछन गई।

वही िजसके िववाह का दो िदन परहलेक िवनोद हो रिहा था, आज सारे घरि को रुला रिहा ह। िजसकी भोली-भाली सूरित देखिकरि माता की छाती फूल उठती थी, उसी को देखिकरि आज माता की छाती फटी जाती ह। सारिा घरि सुधा को समझाता था, पररि उसके आंसू न थमते थ, सब्र न होता था। सबसे बड़ा द:खि इस बात का था का परित को कौन मुंह िदखिलाऊंगी! उन्हें खिबरि तक न दी।

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रिात ही को तारि दे िदया गया औरि दूसरे िदन डॉक्टरि िसन्हा नौ बजते-बजते मोटरि पररि आ परहंुचे। सुधा ने उनके आने की खिबरि पराई, तो औरि भी फूट-फूटकरि रिोने लगी। बालक की जल-िक्रया हुई, डॉक्टरि साहब कई बारि अन्दरि आये, िकन्तु सुधा उनके परास न गई। उनके सामने कैसे जाएे? कौन मुंह िदखिाये? उसने अपरनी नादानी से उनके जीवन का रित्न छीनकरि दिरिया में डाल िदया। अब उनके परास जाते उसकी छाती के टुकड़े-टुकड़े हुए जाते थ। बालक को उसकी गोद में देखिकरि परित की आंखे चमक उठती थी। बालक हुमककरि िपरता की गोद में चला जाता था। माता िफरि बुलाती, तो िपरता की छाती से िचपरट जाता था औरि लाखि चुमरिाने-दलारिने पररि भी बापर को गोद न छोड़ता था। तब मां कहती थी- बैड़ा मतलबी ह। आज वह िकसे गोद मे लेककरि परित के परास जाएेगी? उसकी सूनी गोद देखिकरि कही वह िचल्लाकरि रिो न परड़े। परित के सम्मुखि जाने की अपेक्षा उसे मरि जाना कही आसान जान परड़ता था। वह एक क्षण के िलए भी िनमर्मला को न छोड़ती थी िक कही परित से सामना न हो जाएे।

िनमर्मला ने कहा- बिहन, जो होना था वह हो चुका, अब उनसे कब तक भागती िफरिोगी। रिात ही को चलेक जाएंगे। अम्मां कहती थी।

सुधा से सजल नेत्रों से ताकते हुए कहा- कौन मुंह लेककरि उनके परास जाऊं? मुझे डरि लग रिहा ह िक उनके सामने जाते ही मेरिा परैरिा न थरिाने लगे औरि मैं िगरि परडूं।

िनमर्मला- चलो, मैं तुम्हारे साथ चलती हंू। तुम्हें संभालेक रिहंूगी।

सुधा- मुझे छोड़करि भाग तो न जाओगी?

िनमर्मला- नही-नही, भागूंगी नही।

सुधा- मेरिा कलेकजा तो अभी से उमड़ा आता ह। मैं इतना घोरि व्रजपराता होने पररि भी बैठी हंू, मुझे यही आश्चयर्म हो रिहा ह। सोहन को वह बहुत प्यारि करिते थ बिहन। न जाने उनके िचत्त की क्या दशा होगी। मैं उन्हें ढाढ़स क्या दूंगी, आपर हो रिोती रिहंूगी। क्या रिात ही को चलेक जाएंगे?

िनमर्मला- हां, अम्मांजी तो कहती थी छुट्टी नही ली ह।

दोनो सहेिलयां मदाने कमरे की ओरि चली, लेकिकन कमरे के द्वारि पररि परहंुचकरि सुधा ने िनमर्मला से िवदा करि िदया। अकेली कमरे मे दािखिल हुई।

डॉक्टरि साहब घबरिा रिहे थ िक न जाने सुधा की क्या दशा हो रिही ह। भांित-भांित की शंकाएं मन मे आ रिही थी। जाने को तैयारि बैठे थ, लेकिकन जी न चाहता था। जीवन शून्य-सा मालूम होता था। मन-ही-मन कुढ़ रिहे थ, अगरि ईश्वरि को इतनी जल्दी यह परदाथर्म देकरि छीन लेकना था, तो िदया ही क्यों था? उन्होंने तो कभी सन्तान के िलए ईश्वरि से प्राथर्मना न की थी। वह आजन्म िन:सन्तान रिह सकते थ, पररि सन्तान पराकरि उससे वंिचत हो जाना उन्हं असह्रा जान परड़ता था। क्या सचमुच मनुष्य ईश्वरि का िखिलौना ह? यही मानव जीवन का महत्व ह? यह केवल बालकों का घरिौंदा ह, िजसके बनने का न कोई हेतु ह न िबगड़ने का? िफरि बालकों को भी तो अपरने घरिौंदे से अपरनी कागेज की नावों से, अपरनी लकड़ी के घोड़ों से ममता होती ह। अच्छे िखिलौने का वह जान के परीछे िछपराकरि रिखिते हैं। अगरि ईश्वरि बालक ही ह तो वह िविचत्र बालक ह।

िकन्तु बुिद्व तो ईश्चरि का यह रुपर स्वीकारि नही करिती। अनन्त सृषिष्टि का कत्ता उद्दण्ड बालक नही हो सकता ह। हम उसे उन सारे गुणों से िवभूिषत करिते हैं, जो हमारिी बुिद्व का परहंुच से बाहरि ह। िखिलाड़ीपरन तो साउन महान् गुणों मे नही! क्या हंसते-खेलते बालकों का प्राण हरि लेकना खेल ह? क्या ईश्वरि ऐसा परैशािचक खेल खेलता

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ह?

सहसा सुधा दबे-परांव कमरे में दािखिल हुई। डासॅक्टरि साहब उठ खिड़े हुए औरि उसके समीपर आकरि बोलेक-तुम कहां थी, सुधा? मैं तुम्हारिी रिाह देखि रिहा था।

सुधा की आंखिों से कमरिा तैरिता हुआ जान परड़ा। परित की गदर्मन मे हाथ डालकरि उसने उनकी छाती पररि िसरि रिखि िदया औरि रिोने लगी, लेकिकन इस अश्रु-प्रवाह में उसे असीम धैयर्म औरि सांत्वना का अनुभव हो रिहा था। परित के वक्ष-स्थल से िलपरटी हुई वह अपरने हृदय में एक िविचत्र स्फूित औरि बल का संचारि होते हुए पराती थी, मानो परवन से थरिथरिाता हुआ दीपरक अंचल की आड़ में आ गया हो।

डॉक्टरि साहब ने रिमणी के अश्रु-िसिचत कपरोलों को दोनो हाथो में लेककरि कहा-सुधा, तुम इतना छोटा िदल क्यों करिती हो? सोहन अपरने जीवन में जो कुछ करिने आया था, वह करि चुका था, िफरि वह क्यों बैठा रिहता? जैसे कोई वृषक्ष जल औरि प्रकाश से बढ़ता ह, लेकिकन परवन के प्रबल झोकों ही से सुदृषढ़ होता ह, उसी भांित प्रणय भी द:खि के आघातों ही से िवकास पराता ह। खिुशी के साथ हंसनेवालेक बहुतेरे िमल जाते हैं, रंिज में जो साथ रिोये, वहरि हमारिा सच्चा िमत्र ह। िजन प्रेिमयों को साथ रिोना नही नसीब हुआ, वे मुहब्बत के मजे क्या जान? सोहन की मृषत्यु ने आज हमारे द्वैत को िबलकुल िमटा िदया। आज ही हमने एक दूसरे का सच्चा स्वरुपर देखिा।;?!

सुधा ने िससकते हुए कहा- मैं नजरि के धोखे में थी। हाय! तुम उसका मुंह भी न देखिने पराये। न जाने इन सिदनों उसे इतनी समझ कहां से आ गई थी। जब मुझे रिोते देखिता, तो अपरने केष्टि भूलकरि मुस्करिा देता। तीसरे ही िदन मरे लाडलेक की आंखि बन्द हो गई। कुछ दवा-दपरर्मन भी न करिने पराइं।

यह कहते-कहते सुधा के आंसू िफरि उमड़ आये। डॉक्टरि िसन्हा ने उसे सीने से लगाकरि करुणा से कांपरती हुई आवाज में कहा-िप्रये, आज तक कोई ऐसा बालक या वृषद्व न मरिा होगा, िजससे घरिवालों की दवा-दपरर्मन की लालसा परूरिी हो गई।

सुधा- िनमर्मला ने मेरिी बड़ी मदद की। मैं तो एकाध झपरकी लेक भी लेकती थी, पररि उसकी आंखें नही झपरकी। रिात-रिात िलये बैठी या टहलती रिहती थी। उसके अहसान कभी न भूलंगी। क्या तुम आज ही जा रिहे हो?

डॉक्टरि- हां, छुट्टी लेकने का मौका न था। िसिवल सजर्मन िशकारि खेलने गया हुआ था।

सुधा- यह सब हमेशा िशकारि ही खेला करिते हैं?

डॉक्टरि- रिाजाआं को औरि काम ही क्या ह?

सुधा- मैं तो आज न जाने दूंगी।

डॉक्टरि- जी तो मेरिा भी नही चाहता।

सुधा- तो मत जाओ, तारि दे दो। मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी। िनमर्मला को भी लेकती चलूंगी।

सुधा वहां से लौटी, तो उसके हृदय का बोझ हलका हो गया था। परित की प्रेमपरूणा कोमल वाणी ने उसके सारे शोक औरि संतापर का हरिण करि िलया था। प्रेम में असीम िवश्वास ह, असीम धैयर्म ह औरि असीम बल ह।

जब हमारे ऊपररि कोई बड़ी िवपरित्त आ परड़ती ह, तो उससे हमें केवल द:खि ही नही होता, हमें दूसरिों के ताने भी सहने परड़ते हैं। जनता को हमारे ऊपररि िटप्परिणयों करिने का वह सुअवसरि िमल जाता ह, िजसके िलए वह

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हमेशा बेचैन रिहती ह। मंसारिाम क्या मरिा, मानों समाज को उन पररि आवाजें कसने का बहान िमल गया। भीतरि की बातें कौन जाने, प्रत्यक्ष बात यह थी िक यह सब सौतेली मां की करितूत ह चारिों तरिफ यही चचा थी, ईश्वरि ने करे लड़कों को सौतेली मां से पराला परड़े। िजसे अपरना बना-बनाया घरि उजाड़ना हो, अपरने प्यारे बच्चों की गदर्मन पररि छुरिी फेरिनी हो, वह बच्चों के रिहते हुए अपरना दूसरिा ब्याह करे। ऐसा कभी नही देखिा िक सौत के आने पररि घरि तबाह न हो गया हो, वही बापर जो बच्चों पररि जान देता था सौत के आते ही उन्ही बच्चों का दश्मन हो जाता ह, उसकी मित ही बदल जाती ह। ऐसी देवी ने जैन्म ही नही िलया, िजसने सौत के बच्चों का अपरना समझा हो।

मुिश्कल यह थी िक लोग िटप्परिणयों पररि सन्तुष्टि न होते थ। कुछ ऐसे सज्जन भी थ, िजन्हें अब िजयारिाम औरि िसयारिाम से िवशेष स्नेह हो गया था। वे दानों बालकों से बड़ी सहानुभूित प्रकट करिते, यहां तक िक दो-सएक मिहलाएं तो उसकी माता के शील औरि स्वभाव को याद करे आंसू बहाने लगती थी। हाय-हाय! बेचारिी क्या जानती थी िक उसके मरिते ही लाड़लों की यह ददर्मशा होगी! अब दूध-मक्खिन काहे को िमलता होगा!

िजयारिाम कहता- िमलता क्यों नही?

मिहला कहती- िमलता ह! अरे बेटा, िमलना भी कई तरिह का होता ह। परानीवाल दूध टके सेरि का मंगाकरि रिखि िदया, िपरयों चाहे न िपरयो, कौन परूछता ह? नही तो बेचारिी नौकरि से दूध दहवा करि मंगवाती थी। वह तो चेहरिा ही कहे देता ह। दूध की सूरित िछपरी नही रिहती, वह सूरित ही नही रिही

िजया को अपरनी मां के समय के दूध का स्वाद तो याद था सनही, जो इस आक्षेपर का उत्तरि देता औरि न उस समय की अपरनी सूरित ही याद थी, चुपर रिह जाता। इन शुभाकांक्षाआं का असरि भी परड़ना स्वाभािवक था। िजयारिाम को अपरने घरिवालों से िचढ़ होती जाती थी। मुंशीजी मकान नीलामी हो जोने के बाद दूसरे घरि में उठ आये, तो िकरिाये की िफक्र हुई। िनमर्मला ने मक्खिन बन्द करि िदया। वह आमदनी हा नही रिही , तो खिचर्म कैसे रिहता। दोनों कहारि अलगे करि िदये गये। िजयारिाम को यह कतरि-ब्योंत बुरिी लगती थी। जब िनमर्मला मैके चली गयी, तो मुंशीजी ने दूध भी बन्द करि िदया। नवजात कन्या की िचनता अभी से उनके िसरि पररि सवारि हा गयी थी।

िसयारिाम ने िबगड़करि कहा- दूध बन्द रिहने से तो आपरका महल बन रिहा होगा, भोजन भी बंद करि दीिजए!

मुंशीजी- दूध परीने का शौक ह, तो जाकरि दहा क्यों नही लाते? परानी के परैसे तो मुझसे न िदये जाएंगे।

िजयारिाम- मैं दूध दहाने जाऊं, कोई स्कूल का लड़का देखि लेक तब?

मुंशीजी- तब कुछ नही। कह देना अपरने िलए दूध िलए जाता हंू। दूध लाना कोई चोरिी नही ह।

िजयारिाम- चोरिी नही ह! आपर ही को कोई दूध लाते देखि लेक, तो आपरको शमर्म न आयेगी।

मुंशीजी- िबल्कुल नही। मैंने तो इन्ही हाथों से परानी खिीचा ह, अनाज की गठिरियां लाया हंू। मेरे बापर लखिपरित नही थ।

िजयारिाम-मेरे बापर तो गरिीब नही, मैं क्यों दूध दहाने जाऊं? आिखिरि आपरने कहारिों को क्यों जवाब दे िदया?

मंशीजी- क्या तुम्हें इतना भी नही सूझता िक मेरिी आमदनी अब परहली सी नही रिही इतने नादान तो नही हो?

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िजयारिाम- आिखिरि आपरकी आमदनी क्यों कम हो गयी?

मुंशीजी- जब तुम्हें अकल ही नही ह, तो क्या समझाऊं। यहां िजन्दगी से तंगे आ गया हंू, मुकदमें कौन लेक औरि लेक भी तो तैयारि कौन करे? वह िदल ही नही रिहा। अब तो िजदगी के िदन परूरे करि रिहा हंू। सारे अरिमान लल्लू के साथ चलेक गये।

िजयारिाम- अपरने ही हाथों न।

मुंशीजी ने चीखिकरि कहा- अरे अहमक! यह ईश्वरि की मजी थी। अपरने हाथों कोई अपरना गला काटता ह।

िजयारिाम- ईश्वरि तो आपरका िववाह करिने न आया था।

मंशीजी अब जब्त न करि सके, लाल-लाल आंखें िनकालक बोलेक-क्या तुम आज लड़ने के िलए कमरि बांधकरि आये हो? आिखिरि िकस िबरिते पररि? मेरिी रिोिटयां तो नही चलाते? जब इस कािबल हो जाना, मुझे उपरदेश देना। तब मैं सुन लूंगा। अभी तुमको मुझे उपरदेश देने का अिधकारि नही ह। कुछ िदनों अदब औरि तमीज सीखिो। तुम मेरे सलाहकारि नही हो िक मैं जो काम करुं, उसमें तुमसे सलाह लूं। मेरिी परैदा की हुई दौलत ह, उसे जैसे चाहंू खिचर्म करि सकता हंू। तुमको जबान खिोलने का भी हक नही ह। अगरि िफरि तुमने मुझसे बेअदबी की, तो नतीजा बुरिा होगा। जब मंसारिाम ऐसा रित्न खिोकरि मरे प्राण न िनकलेक, तो तुम्हारे बगैरि मैं मरि न जाऊंगा, समझ गये?

यह कड़ी फटकारि पराकरि भी िजयारिाम वहां से न टला। िन:शंक भाव से बोला-तो आपर क्या चाहते हैं िक हमें चाहे िकतनी ही तकलीफ हो मुंह न खिोलेक? मुझसे तो यह न होगा। भाई साहब को अदब औरि तमीज का जो इनाम िमला, उसकी मुझे भूखि नही। मुझमें जहरि खिाकरि प्राण देने की िहम्मत नही। ऐसे अदब को दूरि से दंडवत करिता हंू।

मुंशीजी- तुम्हें ऐसी बातें करिते हुए शमर्म नही आती?

िजयारिाम- लड़के अपरने बुजुगों ही की नकल करिते हैं।

मुंशीजी का क्रोध शान्त हो गया। िजयारिाम पररि उसका कुछ भी असरि न होगा, इसका उन्हें यकीन हो गया। उठकरि टहलने चलेक गये। आज उन्हें सूचना िमल गयी के इस घरि का शीघ्र ही सवर्मनाश होने वाला हैं।

उस िदन से िपरता औरि परुत्र मे िकसी न िकसी बात पररि रिोज ही एक झपरट हो जाती ह। मुंशीजी ज्यों-त्यों तरिह देते थ, िजयारिाम औरि भी शेरि होता जाता था। एक िदन िजयारिाम ने रुिक्मणी से यहां तक कह डाला- बापर हैं, यह समझकरि छोड़ देता हंू, नही तो मेरे ऐसे-ऐसे साथी हैं िक चाहंू तो भरे बाजारि मे िपरटवा दूं। रुिक्मणी ने मुंशीजी से कह िदया। मुंशीजी ने प्रकट रुपर से तो बेपररिवाही ही िदखिायी, पररि उनके मन में शंका समा गया। शाम को सैरि करिना छोड़ िदया। यह नयी िचन्ता सवारि हो गयी। इसी भय से िनमर्मला को भी न लाते थ िक शैतान उसके साथ भी यही बताव करेगा। िजयारिाम एक बारि दबी जबान में कह भी चुका था- देखिूं, अबकी कैसे इस घरि में आती ह? मुंशीजी भी खिूब समझ गये थ िक मैं इसका कुछ भी नही करि सकता। कोई बाहरि का आदमी होता, तो उसे परुिलस औरि कानून के िशजे में कसते। अपरने लड़के को क्या करें? सच कहा ह- आदमी हारिता ह, तो अपरने लड़कों ही से।

एक िदन डॉक्टरि िसन्हा ने िजयारिाम को बुलाकरि समझाना शुरु िकया। िजयारिाम उनका अदब करिता था। चुपरचापर बैठा सुनता रिहा। जब डॉक्टरि साहब ने अन्त में परूछा, आिखिरि तुम चाहते क्या हो? तो वह बोला- साफ-

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साफ कह दूं? बूरिा तो न मािनएगा?

िसन्हा- नही, जो कुछ तुम्हारे िदल में हो साफ-साफ कह दो।

िजयारिाम- तो सुिनए, जब से भैया मरे हैं, मुझे िपरताजी की सूरित देखिकरि क्रोध आता ह। मुझे ऐसा मालूम होता ह िक इन्ही ने भैया की हत्या की ह औरि एक िदन मौका पराकरि हम दोनों भाइयों को भी हत्या करेंगे। अगरि उनकी यह इच्छा न होती तो ब्याह ही क्यों करिते?

डॉक्टरि साहब ने बड़ी मुिश्कल से हंसी रिोककरि कहा- तुम्हारिी हत्या करिने के िलए उन्हें ब्याह करिने की क्या जरुरित थी, यह बात मेरिी समझ में नही आयी। िबना िववाह िकये भी तो वह हत्या करि सकते थ।

िजयारिाम- कभी नही, उस वक्त तो उनका िदल ही कुछ औरि था, हम लोगों पररि जान देते थ अब मुंह तके नही देखिना चाहते। उनकी यही इच्छा ह िक उन दोनों प्रािणयों के िसवा घरि में औरि कोई न रिहे। अब जसे लड़के होंगे उनक रिास्ते से हम लोगों का हटा देना चाहते ह। यही उन दोनों आदिमयों की िदली मंशा ह। हमें तरिह-तरिह की तकलीफें देकरि भगा देना चाहते हैं। इसीिलए आजकल मुकदमे नही लेकते। हम दोनों भाई आज मरि जाएं, तो िफरि देिखिए कैसी बहारि होती ह।

डॉक्टरि- अगरि तुम्हें भागना ही होता, तो कोई इल्जाम लगाकरि घरि से िनकल न देते?

िजयारिाम- इसके िलए परहलेक ही से तैयारि बैठा हंू।

डॉक्टरि- सुनंू, क्या तैयारिी कही ह?

िजयारिाम- जब मौका आयेगा, देखि लीिजएगा।

यह कहकरि िजयरिाम चलता हुआ। डॉक्टरि िसन्हा ने बहुत परुकारिा, पररि उसने िफरि करि देखिा भी नही।

कई िदन के बाद डॉक्टरि साहब की िजयारिाम से िफरि मुलाकात हो गयी। डॉक्टरि साहब िसनेमा के प्रेमी थ औरि िजयारिाम की तो जान ही िसनेमा में बसती थी। डॉक्टरि साहब ने िसनेमा पररि आलोचना करिके िजयारिाम को बातों में लगा िलया औरि अपरने घरि लाये। भोजन का समय आ गया था,, दोनों आदमी साथ ही भोजन करिने बैठे। िजयारिाम को वहां भोजन बहुत स्वािदष्टि लगा, बोल- मेरे यहां तो जब से महारिाज अलग हुआ खिाने का मजा ही जाता रिहा। बुआजी परक्का वैष्णवी भोजन बनाती हैं। जबरिदस्ती खिा लेकता हंू, पररि खिाने की तरिफ ताकने को जी नही चाहता।

डॉक्टरि- मेरे यहां तो जब घरि में खिाना परकता ह, तो इसे कही स्वािदष्टि होता ह। तुम्हारिी बुआजी प्याज-लहसुन न छूती होंगी?

िजयारिाम- हां साहब, उबालकरि रिखि देती हैं। लालाली को इसकी पररिवाह ही नही िक कोई खिाता ह या नही। इसीिलए तो महारिाज को अलग िकया ह। अगरि रुपरये नही ह, तो गहने कहां से बनते हैं?

डॉक्टरि- यह बात नही ह िजयारिाम, उनकी आमदनी सचमुच बहुत कम हो गयी ह। तुम उन्हें बहुत िदक करिते हो।

िजयारिाम- (हंसकरि) मैं उन्हें िदक करिता हंू? मुझससे कसम लेक लीिजए, जो कभी उनसे बोलता भी हंू। मुझे बदनाम करिने का उन्होंने बीड़ा उठा िलया ह। बेसबब, बेवजह परीछे परड़े रिहते हैं। यहां तक िक मेरे दोस्तों से भी

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उन्हें िचढ़ ह। आपर ही सोिचए, दोस्तों के बगैरि कोई िजन्दा रिह सकता ह? मैं कोई लुच्चा नही हू िक लुच्चों की सोहबत रिखिूं, मगरि आपर दोस्तों ही के परीछे मुझे रिोज सताया करिते हैं। कल तो मैंने साफ कह िदया- मेरे दोस्त घरि आयंेगे, िकसी को अच्छा लगे या बुरिा। जनाब, कोई हो, हरि वक्त की धौंस ही सह सकता।

डॉक्टरि- मुझे तो भाई, उन पररि बड़ी दया आती ह। यह जमाना उनके आरिाम करिने का था। एक तो बुढ़ापरा, उस पररि जवान बेटे का शोक, स्वास्थ्य भी अच्छा नही। ऐसा आदमी क्या करि सकता ह? वह जो कुछ थोड़ा-बहुत करिते हैं, वही बहुत ह। तुम अभी औरि कुछ नही करि सकते, तो कम-से-कम अपरने आचरिण से तो उन्हें प्रसन्न रिखि सकते हो। बुड्ढ़ों को प्रसन्न करिना बहुत किठन काम नही। यकीन मानो, तुम्हारिा हंसकरि बोलना ही उन्हें खिुश करिने को काफी ह। इतना परूछने में तुम्हारिा क्या खिचर्म होता ह। बाबूजी, आपरकी तबीयत कैसी ह? वह तुम्हारिी यह उद्दण्डता देखिकरि मन-ही-मन कुढ़ते रिहते हैं। मैं तुमसे सच कहता हंू, कई बारि रिो चुके हैं। उन्होन मान लो शादी करिने में गलती की। इसे वह भी स्वीकारि करिते हैं, लेकिकन तुम अपरने कत्तर्मव्य से क्यों मुंह मोड़ते हो? वह तुम्हारे िपरता ह, तुम्हें उनकी सेवा करिनी चािहए। एक बात भी ऐसी मुंह से न िनकालनी चािहए, िजससे उनका िदल दखे। उन्हें यह खियाल करिने का मौका ही क्यों दे िक सब मेरिी कमाई खिाने वालेक हैं, बात परूछने वाला कोई नही। मेरिी उम्र तुमसे कही ज्यादा ह, िजयारिाम, पररि आज तक मैंने अपरने िपरताजी की िकसी बात का जवाब नही िदया। वह आज भी मुझे डांटते ह, िसरि झुकाकरि सुन लेकता हंू। जानता हंू, वह जो कुछ कहते हैं, मेरे भलेक ही को कहते हैं। माता-िपरता से बढ़करि हमारिा िहतैषी औरि कौन हो सकता ह? उसके ऋण से कौन मुक्त हो सकता ह?

िजयारिाम बैठा रिोता रिहा। अभी उसके सद्भावों का सम्परूणर्मत: लोपर न हुआ था, अपरनी दजर्मनता उसे साफ नजरि आ रिही थी। इतनी ग्लािन उसे बहुत िदनों से न आयी थी। रिोकरि डॉक्टरि साहब से कहा- मैं बहुत लिज्जत हंू। दूसरिों के बहकाने में आ गया। अब आपर मेरिी जरिा भी िशकयत न सुनगे। आपर िपरताजी से मेरे अपररिाध क्षमा करि दीिजए। मैं सचमुच बड़ा अभागा हंू। उन्हें मैंने बहुत सताया। उनसे किहए- मेरे अपररिाध क्षमा करि दें, नही मैं मुंह में कािलखि लगाकरि कही िनकल जाऊंगा, डूब मरुंगा।

डॉक्टरि साहब अपरनी उपरदेश-कुशलता पररि फूलेक न समाये। िजयारिाम को गलेक लगाकरि िवदा िकया।

िजयारिाम घरि परहंुचा, तो ग्यारिह बज गये थ। मुंशीजी भोजन करे अभी बाहरि आये थ। उसे देखिते ही बोलेक- जानते हो कै बजे ह? बारिह का वक्त ह।

िजयारिाम ने बड़ी नम्रता से कहा- डॉक्टरि िसन्हा िमल गये। उनके साथ उनके घरि तक चला गया। उन्होंने खिाने के िलए िजद िक, मजबूरिन खिाना परड़ा। इसी से देरि हो गयी।

मुंशीज- डॉक्टरि िसन्हा से दखिड़े रिोने गये होंगे या औरि कोई काम था।

िजयारिाम की नम्रता का चौथा भाग उड़ गय, बोला- दखिड़े रिोने की मेरिी आदत नही ह।

मुंशीजी- जरिा भी नही, तुम्हारे मुंह मे तो जबान ही नही। मुझसे जो लोग तुम्हारिी बातें करिते हैं, वह गढ़ा करिते होंगे?

िजयारिाम- औरि िदनों की मैं नही कहता, लेकिकन आज डॉक्टरि िसन्हा के यहां मैंने कोई बात ऐसी नही की, जो इस वक्त आपरके सामने न करि सकूं।

मुंशीजी- बड़ी खिुशी की बात ह। बेहद खिुशी हुई। आज से गुरुदीक्षा लेक ली ह क्या?

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िजयारिाम की नम्रता का एक चतुथांश औरि गायब हो गया। िसरि उठाकरि बोला- आदमी िबना गुरुदीक्षा िलए हुए भी अपरनी बुरिाइयों पररि लिज्जत हो सकता ह। अपराना सुधारि करिने के िलए गुरुपरन्त्र कोई जरुरिी चीज नही।

मुंशीजी- अब तो लुच्चे न जमा होंगे?

िजयारिाम- आपर िकसी को लुच्चा क्यों कहते हैं, जब तक ऐसा कहने के िलए आपरके परास कोई प्रमाण नही?

मुंशीजी- तुम्हारे दोस्त सब लुच्चे-लफंगे हैं। एक भी भला आदमी नही। मैं तुमसे कई बारि कह चुका िक उन्हें यहां मत जमा िकया करिोखि् पररि तुमने सुना नही। आज में आिखिरि बारि कहे देता हंू िक अगरि तुमने उन शोहदों को जमा िकया, तो मुझो परुिलस की सहायता लेकनी परड़ेगी।

िजयारिाम की नम्रता का एक चतुथांश औरि गायब हो गया। फड़ककारि बोला- अच्छी बात ह, परुिलस की सहायता लीिजए। देखें क्या करिती ह? मेरे दोस्तों में आधे से ज्यादा परुिलस के अफसरिों ही के बेटे हैं। जब आपर ही मेरिा सुधारि करिने पररि तुलेक हुए ह, तो मैं व्यथर्म क्यों कष्टि उठाऊं?

यह कहता हुआ िजयारिाम अपरने कमरे मे चला गया औरि एक क्षण के बाद हारिमोिनया के मीठे स्वरिों की आवाज बाहरि आने लगी।

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अध्याय-१०अब की सुधा के साथ िनमर्मला को भी आना परड़ा। वह तो मैके में कुछ िदन औरि रिहना चाहती थी, लेकिकन

शोकातुरि सुधा अकेलेक कैसे रिही! उसको आिखिरि आना ही परड़ा। रुिक्मणी ने भूंगी से कहा- देखिती ह, बहू मैके से कैसा िनखिरिकरि आयी ह!

भूंगी ने कहा- दीदी, मां के हाथ की रिोिटयां लड़िकयों को बहुत अच्छी लगती ह।

रुिक्मणी- ठीक कहती ह भूंगी, िखिलाना तो बस मां ही जानती ह।

िनमर्मला को ऐसा मालूम हुआ िक घरि का कोई आदमी उसके आने से खिुश नही। मुंशीजी ने खिुशी तो बहुत िदखिाई, पररि हृदयगत िचनता को न िछपरा सके। बच्ची का नाम सुधा ने आशा रिखि िदया था। वह आशा की मूित-सी थी भी। देखिकरि सारिी िचन्ता भाग जाती थी। मुंशीजी ने उसे गोद में लेकना चाहा, तो रिोने लगी, दौड़करि मां से िलपरट गयी, मानो िपरता को परहचानती ही नही। मुंशीजी ने िमठाइयों से उसे पररिचाना चाहा। घरि में कोई नौकरि तो था नही, जाकरि िसयारिाम से दो आने की िमठाइयां लाने को कहा।

िजयरिाम भी बैठा हुआ था। बोल उठा- हम लोगों के िलए तो कभी िमठाइयां नही आती।

मंशीजी ने झंुझलाकरि कहा- तुम लोग बच्चे नही हो।

िजयारिाम- औरि क्या बूढ़े हैं? िमठाइयां मंगवाकरि रिखि दीिजए, तो मालूम हो िक बच्चे हैं या बूढ़े। िनकािलए चारि आना औरि आशा के बदौलत हमारे नसीब भी जागें।

मुंशीजी- मेरे परास इस वक्त परैसे नही ह। जाओ िसया, जल्द जाना।

िजयारिाम- िसया नही जाएेगा। िकसी का गुलाम नही ह। आशा अपरने बापर की बेटी ह, तो वह भी अपरने बापर का बेटा ह।

मुंशीजी- क्या फजूज की बातें करिते हो। नन्ही-सी बच्ची की बरिाबरिी करिते तुम्हें शमर्म नही आती? जाओ िसयारिाम, ये परैसे लो।

िजयारिाम- मत जाना िसया! तुम िकसी के नौकरि नही हो।

िसया बड़ी दिवधा में परड़ गया। िकसका कहना माने? अन्त में उसने िजयारिाम का कहना मानने का िनश्चय िकया। बापर ज्यादा-से-ज्यादा घुड़क देंगे, िजया तो मारेगा, िफरि वह िकसके परास फिरियाद लेककरि जाएेगा। बोला- मैं न जाऊंगा।

मुंशीजी ने धमकाकरि कहा- अच्छा, तो मेरे परास िफरि कोई चीज मांगने मत आना।

मुंशीजी खिुद बाजारि चलेक गये औरि एक रुपरये की िमठाई लेककरि लौटे। दो आने की िमठाई मांगते हुए उन्हें शमर्म आयी। हलवाई उन्हें परहचानता था। िदल में क्या कहेगा?

िमठाई िलए हुए मुंशीजी अन्दरि चलेक गये। िसयारिाम ने िमठाई का बड़ा-सा दोना देखिा, तो बापर का कहना न मानने का उसे दखि हुआ। अब वह िकस मुंह से िमठाई लेकने अन्द जाएेगा। बड़ी भूल हुई। वह मन-ही-मन िजयारिाम को चोटों की चोट औरि िमठाई की िमठास में तुलना करिने लगा।

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सहसा भूंगी ने दो तश्तिरियां दोनो के सामने लाकरि रिखि दी। िजयारिाम ने िबगड़करि कहा- इसे उठा लेक जा!

भूंगी- काहे को िबगड़ता हो बाबू क्या िमठाई अच्छी नही लगती?

िजयारिाम- िमठाई आशा के िलए आयी ह, हमारे िलए नही आयी? लेक जा, नही तो सड़क पररि फेंक दूंगा। हम तो परैसे-परैसे के िलए रिटते रिहते ह। औ यहां रुपरये की िमठाई आती ह।

भूंगी- तुम लेक लो िसया बाबू, यह न लेंगे न सही।

िसयारिाम ने डरिते-डरिते हाथ बढ़ाया था िक िजयारिाम ने डांटकरि कहा- मत छूना िमठाई, नही तो हाथ तोड़करि रिखि दूंगा। लालची कही का!

िसयारिाम यह धुड़की सुनकरि सहम उठा, िमठाई खिाने की िहम्मत न परड़ी। िनमर्मला ने यह कथा सुनी, तो दोनों लड़कों को मनाने चली। मुंशजी ने कड़ी कसम रिखि दी।

िनमर्मला- आपर समझते नही ह। यह सारिा गुस्सा मुझ पररि ह।

मुंशीजी- गुस्ताखि हो गया ह। इस खियाल से कोई सख्ती नही करिता िक लोग कहेंगे, िबना मां के बच्चों को सताते हैं, नही तो सारिी शरिारित घड़ी भरि में िनकाल दूं।

िनमर्मला- इसी बदनामी का तो मुझे डरि ह।

मुंशीजी- अब न डरुंगा, िजसके जी में जो आये कहे।

िनमर्मला- परहलेक तो ये ऐसे न थ।

मुंशीजी- अजी, कहता ह िक आपरके लड़के मौजूद थ, आपरने शादी क्यों की! यह कहते भी इसे संकोच नही हाता िक आपर लोगों ने मंसारिाम को िवष दे िदया। लड़का नही ह, शत्रु ह।

िजयारिाम द्वारि पररि िछपरकरि खिड़ा था। स्त्रिी-परुरुष मे िमठाई के िवषय मे क्या बातें होती हैं, यही सुनने वह आया था। मुंशीजी का अिन्तम वाक्य सुनकरि उससे न रिहा गया। बोल उठा- शत्रु न होता, तो आपर उसके परीछे क्यों परड़ते? आपर जो इस वक्त करि हरे हैं, वह मैं बहुत परहलेक समझे बैठा हंू। भैया न समझ थ, धोखिा खि गये। हमारे साथ आपरकी दाला न गलेकगी। सारिा जमाना कह रिहा ह िक भाई साहब को जहरि िदया गया ह। मैं कहता हंू तो आपरको क्यों गुस्सा आता ह?

िनमर्मला तो सन्नाटे में आ गयी। मालूम हुआ, िकसी ने उसकी देह पररि अंगारे डाल िदये। मंशजी ने डांटकरि िजयारिाम को चुपर करिाना चाहा, िजयारिाम िन:शं खिड़ा इंट का जवाब परत्थरि से देता रिहा। यहां तक िक िनमर्मला को भी उस पररि क्रोध आ गया। यह कल का छोकरिा, िकसी काम का न काज का, यो खिड़ा टरिा रिहा ह, जैसे घरि भरि का परालन-परोषण यही करिता हो। त्योंिरियां चढ़ाकरि बोली- बस, अब बहुत हुआ िजयारिाम, मालूम हो गया, तुम बड़े लायक हो, बाहरि जाकरि बैठो।

मुंशीजी अब तक तो कुछ दब-दबकरि बोलते रिहे, िनमर्मला की शह पराई तो िदल बढ़ गया। दांत परीसकरि लपरके औरि इसके परहलेक िक िनमर्मला उनके हाथ परकड़ सकें, एक थप्परड़ चला ही िदया। थप्परड़ िनमर्मला के मुंह पररि परड़ा, वही सामने परडी। माथा चकरिा गया। मुंशीजी ने सूखे हाथों में इतनी शिक्त ह, इसका वह अनुमान न करि सकती थी। िसरि परकड़करि बैठ गयी। मुंशीजी का क्रोध औरि भी भड़क उठा, िफरि घूंसा चलाया पररि अबकी

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िजयारिाम ने उनका हाथ परकड़ िलया औरि परीछे ढकेलकरि बोला- दूरि से बातें कीिजए, क्यांे नाहक अपरनी बेइज्जती करिवाते हैं? अम्मांजी का िलहाज करि रिहा हंू, नही तो िदखिा देता।

यह कहता हुआ वह बाहरि चला गया। मुंशीजी संज्ञा-शून्य से खिड़े रिहे। इस वक्त अगरि िजयारिाम पररि दैवी वज्र िगरि परड़ता, तो शायद उन्हें हािदक आनन्द होता। िजस परुत्र का कभी गोद में लेककरि िनहाल हो जाते थ, उसी के प्रित आज भांित-भांित की दष्कल्परनाएं मन में आ रिही थी।

रुिक्मणी अब तक तो अपरनी कोठरिी में थी। अब आकरि बोली-बेटा आपरने बरिाबरि का हो जाएे तो उस पररि हाथ न छोड़ना चािहए।

मुंशीजी ने आंठ चबाकरि कहा- मैं इसे घरि से िनकालकरि छोडूंगा। भीखि मांगे या चोरिी करे, मुझसे कोई मतलब नही।

रुिक्मणी- नाक िकसकी कटेगी?

मुंशीजी- इसकी िचन्ता नही।

िनमर्मला- मैं जानती िक मेरे आने से यह तुफान खिड़ा हो जाएेगा, तो भूलकरि भी न आती। अब भी भला ह, मुझे भेज दीिजए। इस घरि में मुझसे न रिहा जाएेगा।

रुिक्मणी- तुम्हारिा बहुत िलहाज करिता ह बहू, नही तो आज अनथर्म ही हो जाता।

िनमर्मला- अब औरि क्या अनथर्म होगा दीदीजी? मैं तो फूंक-फूंककरि परांव रिखिती हंू, िफरि भी अपरयश लग ही जाता ह। अभी घरि में परांव रिखिते देरि नही हुई औरि यह हाल हो गेया। ईश्वरि ही कुशल करे।

रिात को भोजन करिने कोई न उठा, अकेलेक मुंशीजी ने खिाया। िनमर्मला को आज नयी िचन्ता हो गयी- जीवन कैसे परारि लगेगा? अपरना ही पेट होता तो िवशेष िचन्ता न थी। अब तो एक नयी िवपरित्त गलेक परड़ गयी थी। वह सोच रिही थी- मेरिी बच्ची के भाग्य में क्या िलखिा ह रिाम?

िचन्ता में नीद कब आती ह? िनमर्मला चारिपराई पररि करिवटंे बदल रिही थी। िकतना चाहती थी िक नीद आ जाएे, पररि नीद ने न आने की कसम सी खिा ली थी। िचरिाग बुझा िदया था, िखिड़की के दरिवाजे खिोल िदये थ, िटक-िटक करिने वाली घड़ी भी दूसरे कमरे में रिखि आयीय थी, पररि नीद का नाम था। िजतनी बातें सोचनी थी, सब सोच चुकी, िचन्ताआं का भी अन्त हो गया, पररि परलकें न झपरकी। तब उसने िफरि लैम्पर जलाया औरि एक परुस्तक परढ़ने लगी। दो-चारि ही परृषष्ठ परढ़े होंगे िक झपरकी आ गयी। िकताब खिुली रिह गयी।

सहसा िजयारिाम ने कमरे में कदम रिखिा। उसके परांव थरि-थरि कांपर रिहे थ। उसने कमरे मे ऊपररि-नीचे देखिा। िनमर्मला सोई हुई थी, उसके िसरिहाने ताक पररि, एक छोटा-सा परीतल का सन्दूकचा रिक्खिा हुआ था। िजयारिाम दबे परांव गया, धीरे से सन्दूकचा उतारिा औरि बड़ी तेजी से कमरे के बाहरि िनकला। उसी वक्त िनमर्मला की आंखें खिुल गयी। चौंककरि उठ खिड़ी हुई। द्वारि पररि आकरि देखिा। कलेकजा धक् से हो गया। क्या यह िजयारिाम ह? मेरे केमरे मे क्या करिने आया था। कही मुझे धोखिा तो नही हुआ? शायद दीदीजी के कमरे से आया हो। यहां उसका काम ही क्या था? शायद मुझसे कुछ कहने आया हो, लेकिकन इस वक्त क्या कहने आया होगा? इसकी नीयत क्या ह? उसका िदल कांपर उठा।

मुंशीजी ऊपररि छत पररि सो रिहे थ। मुंडेरि न होने के कारिण िनमर्मला ऊपररि न सो सकती थी। उसने सोचा

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चलकरि उन्हें जगाऊं, पररि जाने की िहम्मत न परड़ी। शक्की आदमी ह, न जाने क्या समझ बैठं औरि क्या करिने पररि तैयारि हो जाएं? आकरि िफरि परुस्तक परढ़ने लगी। सबेरे परूछने पररि आपर ही मालूम हो जाएेगा। कौन जाने मुझे धोखिा ही हुआ हो। नीद मे कभी-कभी धोखिा हो जाता ह, लेकिकन सबेरे परूछने का िनश्चय करि भी उसे िफरि नीद नही आयी।

सबेरे वह जलपरान लेककरि स्वयं िजयारिाम के परास गयी, तो वह उसे देखिकरि चौंक परड़ा। रिोज तो भूंगी आती थी आज यह क्यों आ रिही ह? िनमर्मला की ओरि ताकने की उसकी िहम्मत न परड़ी।

िनमर्मला ने उसकी ओरि िवश्वासपरूणर्म नेत्रों से देखिकरि परूछा- रिात को तुम मेरे कमरे मे गये थ?

िजयारिाम ने िवस्मय िदखिाकरि कहा- मैं? भला मैं रिात को क्या करिने जाता? क्या कोई गया था?

िनमर्मला ने इस भाव से कहा, मानो उसे उसकी बात का परूरिी िवश्वास हो गया- हां, मुझे ऐसा मालूम हुआ िक कोई मेरे कमरे से िनकला। मैंने उसका मुंह तो न देखिा, पररि उसकी परीठ देखिकरि अनुमान िकया िक शयद तुम िकसी काम से आये हो। इसका परता कैसे चलेक कौन था? कोई था जरुरि इसमें कोई सन्देह नही।

िजयारिाम अपरने को िनरिपररिाध िसद्व करिने की चेष्टिा करि कहने लगा- मै। तो रिात को िथयेटरि देखिने चला गया था। वहां से लौटा तो एक िमत्र के घरि लेकट रिहा। थोड़ी देरि हुई लौटा हंू। मेरे साथ औरि भी कई िमत्र थ। िजससे जी चाहे, परूछ लें। हां, भाई मैं बहुत डरिता हंू। ऐसा न हो, कोई चीज गायब हो गयी, तो मेरिा नामे लगे। चोरि को तो कोई परकड़ नही सकता, मेरे मत्थ जाएेगी। बाबूजी को आपर जानती हैं। मुझो मारिने दौडंगे।

िनमर्मला- तुम्हारिा नाम क्यों लगेगा? अगरि तुम्ही होते तो भी तुम्हें कोई चोरिी नही लगा सकता। चोरिी दूसरे की चीज की जाती ह, अपरनी चीज की चोरिी कोई नही करिता।

अभी तक िनमर्मला की िनगाह अपरने सन्दूकचे पररि न परड़ी थी। भोजन बनाने लगी। जब वकील साहब कचहरिी चलेक गये, तो वह सुधा से िमलने चली। इधरि कई िदनों से मुलाकात न हुई थी, िफरि रिातवाली घटना पररि िवचारि परिरिवतर्मन भी करिना था। भूंगी से कहा- कमरे मे से गहनों का बक्स उठा ला।

भूंगी ने लौटकरि कहा- वहां तो कही सन्दूक नही हैं। ककहां रिखिा था? िनमर्मला ने िचढ़करि कहा- एक बारि में तो तेरिा काम ही कभी नही होता। वहां छोड़करि औरि जाएेगा कहां। आलमारिी में देखिा था?

भूंगी- नही बहूजी, आलमारिी में तो नही देखिा, झूठ क्यों बोलूं?

िनमर्मला मुस्करिा परड़ी। बोली- जा देखि, जल्दी आ। एक क्षण में भूंगी िफरि खिाली हाथ लौट आयी- आलमारिी में भी तो नही ह। अब जहां बताओ वहां देखिूं।

िनमर्मला झंुझलाकरि यह कहती हुई उठ खिड़ी हुई- तुझे ईश्वरि ने आंखें ही न जाने िकसिलए दी! देखि, उसी कमरे में से लाती हंू िक नही।

भूंगी भी परीछे-परीछे कमरे में गयी। िनमर्मला ने ताक पररि िनगाह डाली, अलमारिी खिोलकरि देखिी। चारिपराई के नीचे झांककारि देखिा, िफरि कपरड़ों का बडा संदूक खिोलकरि देखिा। बक्स का कही परता नही। आश्चयर्म हुआ, आिखिरि बक्सा गया कहां?

सहसा रिातवाली घटना िबजली की भांित उसकी आंखिों के सामने चमक गयी। कलेकजा उछल परड़ा। अब तक िनिश्चन्त होकरि खिोज रिही थी। अब तापर-सा चढ़ आया। बड़ी उतावली से चारिों ओरि खिोजने लगी। कही परता नही।

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जहां खिोजना चािहए था, वहां भी खिोजा औरि जहां नही खिोजना चािहए था, वहां भी खिोजा। इतना बड़ा सन्दूकचा िबछावन के नीचे कैसे िछपर जाता? पररि िबछावन भी झाड़करि देखिा। क्षण-क्षण मुखि की कािन्त मिलन होती जाती थी। प्राण नही मे समाते जाते थ। अनत में िनरिाशा होकरि उसने छाती पररि एक घूंसा मारिा औरि रिोने लगी।

गहने ही स्त्रिी की सम्परित्त होते हैं। परित की औरि िकसी सम्परित्त पररि उसका अिधकारि नही होता। इन्ही का उसे बल औरि गौरिव होता ह। िनमर्मला के परास परांच-छ: हजारि के गहने थ। जब उन्हें परहनकरि वह िनकलती थी, तो उतनी देरि के िलए उल्लास से उसका हृदय िखिला रिहता था। एक-एक गहना मानो िवपरित्त औरि बाधा से बचाने के िलए एक-एक रिक्षास्त्रि था। अभी रिात ही उसने सोचा था, िजयारिाम की लौंडी बनकरि वह न रिहेगी। ईश्वरि न करे िक वह िकसी के सामने हाथ फैलाये। इसी खेवे से वह अपरनी नाव को भी परारि लगा देगी औरि अपरनी बच्ची को भी िकसी-न-िकसी घाट परहंुचा देगी। उसे िकस बात की िचन्त ह! उन्हें तो कोई उससे न छीन लेकगा। आज ये मेरे िसगारि हैं, कल को मेरे आधारि हो जाएंगे। इस िवचारि से उसके हृदय को िकतनी सान्तवना िमली थी! वह सम्परित्त आज उसके हाथ से िनकल गयी। अब वह िनरिाधारि थी। संसारि उसे कोई अवलम्ब कोई सहारिा न था। उसकी आशाआं का आधारि जड़ से कट गया, वह फूट-फूटकरि रिोने लगी। ईश्चरि! तुमसे इतना भी न देखिा गया? मुझ दिखिया को तुमने यों ही अपरंग बना िदया थ, अब आंखे भी फोड़ दी। अब वह िकसके सामने हाथ फैलायेगी, िकसके द्वारि पररि भीखि मांगेगी। परसीने से उसकी देह भीग गयी, रिोते-रिोते आंखे सूज गयी। िनमर्मला िसरि नीचा िकये रिा रिही थी। रुिक्मणी उसे धीरिज िदला रिही थी, लेकिकन उसके आंसू न रुकते थ, शोके की ज्वाल केम ने होती थी।

तीन बजे िजयारिाम स्कूल से लौटा। िनमर्मला उसने आने की खिबरि पराकरि िविक्षप्त की भांित उठी औरि उसके कमरे के द्वारि पररि आकरि बोली-भैया, िदल्लगी की हो तो दे दो। दिखिया को सताकरि क्या पराओगे?

िजयारिाम एक क्षण के िलए कातरि हो उठा। चोरि-कला में उसका यह परहला ही प्रयास था। यह कठारेता, िजससे िहसा में मनोरंिजन होता ह अभी तक उसे प्राप्त न हुई थी। यिद उसके परास सन्दूकचा होता औरि िफरि इतना मौका िमलता िक उसे ताक पररि रिखि आवे, तो कदािचत् वह उसे मौके को न छोड़ता, लेकिकन सन्दूक उसके हाथ से िनकल चुका था। यारिों ने उसे सरिाफें में परहंुचा िदया था औरि औने-परौने बेच भी डाला थ। चोरिों की झूठ के िसवा औरि कौन रिक्षा करि सकता ह। बोला-भला अम्मांजी, मैं आपरसे ऐसी िदल्लगी करुंगा? आपर अभी तक मुझ पररि शक करिती जा रिही हैं। मैं कह चुका िक मैं रिात को घरि पररि न था, लेकिकन आपरको यकीन ही नही आता। बड़े द:खि की बात ह िक मुझे आपर इतना नीच समझती हैं।

िनमर्मला ने आंसू परोंछते हुए कहा- मैं तुम्हारे पररि शक नही करिती भैया, तुम्हें चोरिी नही लगाती। मैंने समझा, शायद िदल्लगी की हो।

िजयारिाम पररि वह चोरिी का संदेह कैसे करि सकती थी? दिनया यही तो कहेगी िक लड़के की मां मरि गई ह, तो उस पररि चोरिी का इलजाम लगाया जा रिहा ह। मेरे मुंह मे ही तो कािलखि लगेगी!

िजयारिाम ने आश्वासन देते हुए कहा- चिलए, मैं देखिूं, आिखिरि लेक कौन गया? चोरि आया िकस रिास्ते से?

भूंगी- भैया, तुम चोरिों के आने को कहते हो। चूहे के िबल से तो िनकल ही आते हैं, यहां तो चारिो ओरि ही िखिड़िकयां हैं।

िजयारिाम- खिूब अच्छी तरिह तलाश करि िलया ह?

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िनमर्मला- सारिा घरि तो छान मारिा, अब कहां खिोजने को कहते हो?

िजयारिाम- आपर लोग सो भी तो जाती हैं मुदों से बाजी लगाकरि।

चारि बजे मुंशीजी घरि आये, तो िनमर्मला की दशा देखिकरि परूछा- कैसी तबीयत ह? कही ददर्म तो नही ह? कह कहकरि उन्होंने आशा को गोद में उठा िलया।

िनमर्मला कोई जवाब न दे सकी, िफरि रिोने लगी।

भूंगी ने कहा- ऐसा कभी नही हुआ था। मेरिी सारिी उमर्म इसी घरि मं कट गयी। आज तक एक परैसे की चोरिी नही हुई। दिनया यही कहेगी िक भूंगी का कोम ह, अब तो भगेवान ही परत-परानी रिखें।

मुंशीजी अचकन के बटन खिोल रिहे थ, िफरि बटन बन्द करिते हुए बोलेक- क्या हुआ? कोई चीज चोरिी हो गयी?

भूंगी- बहूजी के सारे गहने उठ गये।

मुंशीजी- रिखे कहां थ?

िनमर्मला ने िससिकयां लेकते हुए रिात की सारिी घटना बयाना करि दी, पररि िजयारिाम की सूरित के आदमी के अपरने कमरे से िनकलने की बात न कही। मुंशीजी ने ठंडी सांस भरिकरि कहा- ईश्वरि भी बड़ा अन्यायी ह। जो मरे उन्ही को मारिता ह। मालूम होता ह, अिदन आ गये हैं। मगरि चोरि आया तो िकधरि से? कही सेंध नही परड़ी औरि िकसी तरिफ से आने का रिास्ता नही। मैंने तो कोई ऐसा परापर नही िकया, िजसकी मुझे यह सजा िमल रिही ह। बारि-बारि कहता रिहा, गहने का सन्दूकचा ताक पररि मत रिखिो, मगेरि कौन सुनता ह।

िनमर्मला- मैं क्या जानती थी िक यह गजब टूट परड़ेगा!

मुंशीजी- इतना तो जानती थी िक सब िदन बरिाबरि नही जाते। आज बनवाने जाऊं, तो इस हजारि से कम न लगेंगे। आजकल अपरनी जो दशा ह, वह तुमसे िछपरी नही, खिचर्म भरि का मुिश्कल से िमलता ह, गहने कहां से बनगे। जाता हंू, परुिलस में इित्तला करि आता हंू, पररि िमलने की उम्मीद न समझो।

िनमर्मला ने आपरित्त के भाव से कहा- जब जानते हैं िक परुिलस में इित्तला करिने से कुद न होगा, तो क्यों जा रिहे हैं?

मुंशीजी- िदल नही मानता औरि क्या? इतना बड़ा नुकसान उठाकरि चुपरचापर तो नही बैठ जाता।

िनमर्मला- िमलनेवालेक होते, तो जाते ही क्यों? तकदीरि में न थ, तो कैसे रिहते?

मुंशीजी- तकदीरि मे होंगे, तो िमल जाएंगे, नही तो गये तो हैं ही।

मुंशीजी कमरे से िनकलेक। िनमर्मला ने उनका हाथ परकड़करि कहा- मैं कहती हंू, मत जाओ, कही ऐसा न हो, लेकने के देने परड़ जाएं।

मुंशीजी ने हाथ छुड़ाकरि कहा- तुम भी बच्चों की-सी िजद्द करि रिही हो। दस हजारि का नुकसान ऐसा नही ह, िजसे मैं यों ही उठा लूं। मैं रिो नही रिहा हंू, पररि मेरे हृदय पररि जो बीत रिही ह, वह मैं ही जानता हंू। यह चोट मेरे कलेकजे पररि लगी ह। मुंशीजी औरि कुछ न कह सके। गला फंस गया। वह तेजी से कमरे से िनकल आये औरि थाने पररि जा परहँुचे। थानेदारि उनका बहुत िलहाज करिता था। उसे एक बारि िरिश्वत के मुकदमे से बरिी करिा चुके थ। उनके

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साथ ही तफ्तीश करिने आ परहंुचा। नाम था अलायारि खिां।

शाम हो गयी थी। थानेदारि ने मकान के अगवाड़े-िपरछवाड़े घूम-घूमकरि देखिा। अन्दरि जाकरि िनमर्मला के कमरे को गौरि से देखिा। ऊपररि की मुंडेरि की जांच की। मुहल्लेक के दो-चारि आदिमयों से चुपरके-चुपरके कुछ बातें की औरि तब मुंशीजी से बोलेक- जनाब, खिुदा की कसम, यह िकसी बाहरि के आदमी का काम नही। खिुदा की कसम, अगरि कोई बाहरि की आमदी िनकलेक, तो आज से थानेदारिी करिना छोड़ दूं। आपरके घरि में कोई मुलािजम ऐसा तो नही ह, िजस पररि आपरको शुबहा हो।

मुंशीजी- घरि मे तो आजकल िसफर एक महरिी ह।

थानेदारि-अजी, वह परगली ह। यह िकसी बड़े शाितरि का काम ह, खिुदा की कसम।

मुंशीजी- तो घरि में औरि कौन ह? मेरे दोने लड़के हैं, स्त्रिी ह औरि बहन ह। इनमें से िकस पररि शक करुं?

थानेदारि- खिुदा की कसम, घरि ही के िकसी आदमी का काम ह, चाहे, वह कोई हो, इन्शाअल्लाह, दो-चारि िदन में मैं आपरको इसकी खिबरि दूंगा। यह तो नही कह सकता िक माल भी सब िमल जाएेगा, पररि खिुदा की कसम, चोरि जरुरि परकड़ िदखिाऊंगा।

थानेदारि चला गया, तो मुंशीजी ने आकरि िनमर्मला से उसकी बातें कही। िनमर्मला सहम उठी- आपर थानेदारि से कह दीिजए, तफतीश न करें, आपरके परैरिों परड़ती हंू।

मुंशीजी- आिखिरि क्यों?

िनमर्मला- अब क्यों बताऊं? वह कह रिहा ह िक घरि ही के िकसी का काम ह।

मुंशीजी- उसे बकने दो।

िजयारिाम अपरने कमरे में बैठा हुआ भगवान् को याद करि रिहा था। उसक मुंह पररि हवाइयां उड़ रिही थी। सुन चुका थािक परुिलसवालेक चेहरे से भांपर जाते हैं। बाहरि िनकलने की िहम्मत न परड़ती थी। दोनों आदिमयों में क्या बातें हो रिही हैं, यह जानने के िलए छटपरटा रिहा था। ज्योंही थानेदारि चला गया औरि भूंगी िकसी काम से बाहरि िनकली, िजयारिाम ने परूछा-थानेदारि क्या करि रिहा था भूंगी?

भूंगी ने परास आकरि कहा- दाढ़ीजारि कहता था, घरि ही से िकसी आदमी का काम ह, बाहरि को कोई नही ह।

िजयारिाम- बाबूजी ने कुछ नही कहा?

भूंगी- कुछ तो नही कहा, खिड़े ‘हंू-हंू’ करिते रिहे। घरि मे एक भूंगी ही गैरि ह न! औरि तो सब अपरने ही हैं।

िजयारिाम- मैं भी तो गैरि हंू, तू ही क्यों?

भूंगी- तुम गैरि काहे हो भैया?

िजयारिाम- बाबूजी ने थानेदारि से कहा नही, घरि में िकसी पररि उनका शुबहा नही ह।

भूंगी- कुछ तो कहते नही सुना। बेचारे थानेदारि ने भलेक ही कहा- भूंगी तो परगली ह, वह क्या चोरिी करेगी। बाबूजी तो मुझे फंसाये ही देते थ।

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िजयारिाम- तब तो तू भी िनकल गयी। अकेला मैं ही रिह गया। तू ही बता, तूने मुझे उस िदन घरि में देखिा था?

भूंगी- नही भैया, तुम तो ठेठरि देखिने गये थ।

िजयारिाम- गवाही देगी न?

भूंगी- यह क्या कहते हो भैया? बहूजी तफ्तीश बन्द करि देंगी।

िजयरिाम- सच?

भूंगी- हां भैया, बारि-बारि कहती ह िक तफ्तीश न करिाओ। गहने गये, जाने दो, पररि बाबूजी मानते ही नही।

परांच-छ: िदन तक िजयारिाम ने पेट भरि भोजन नही िकया। कभी दो-चारि कौरि खिा लेकता, कभी कह देता, भूखि नही ह। उसके चेहरे का रंिग उड़ा रिहता था। रिातें जागतें कटती, प्रितक्षण थानेदारि की शंका बनी रिहती थी। यिद वह जानता िक मामला इतना तूल खिीचगा, तो कभी ऐसा काम न करिता। उसने तो समझा था- िकसी चोरि पररि शुबहा होगा। मेरिी तरिफ िकसी का ध्यान भी न जाएेगा, पररि अब भण्डा फूटता हुआ मालूम होता था। अभागा थानेदारि िजस ढंगे से छान-बीन करि रिहा था, उससे िजयारिाम को बड़ी शंका हो रिही थी।

सातवें िदन संध्या समय घरि लौटा तो बहुत िचिन्तत था। आज तक उसे बचने की कुछ-न-कुछ आशा थी। माल अभी तक कही बरिामद न हुआ था, पररि आज उसे माल के बरिामद होने की खिबरि िमल गयी थी। इसी दम थानेदारि कांस्टेिबल के िलए आता होगा। बचने को कोई उपराय नही। थानेदारि को िरिश्वत देने से सम्भव ह मुकदमे को दबा दे, रुपरये हाथ में थ, पररि क्या बात िछपरी रिहेगी? अभी माल बरिामद नही हुआ, िफरि भी सारे शहरि में अफवाह थी िक बेटे ने ही माल उड़ाया ह। माल िमल जाने पररि तो गली-गली बात फैल जाएेगी। िफरि वह िकसी को मुंह न िदखिा सकेगा।

मुंशीजी कचहरिी से लौटे तो बहुत घबरिाये हुए थ। िसरि थामकरि चारिपराई पररि बैठ गये।

िनमर्मला ने कहा- कपरड़े क्यों नही उतारिते? आज तो औरि िदनों से देरि हो गयी ह।

मुंशीजी- क्या कपरडे ऊतारुं? तुमने कुछ सुना?

िनमर्मला- क्य बात ह? मैंने तो कुछ नही सुना?

मुंशीजी- माल बरिामद हो गया। अब िजया का बचना मुिश्कल ह।

िनमर्मला को आश्चयर्म नही हुआ। उसके चेहरे से ऐसा जान परड़ा, मानो उसे यह बात मालूम थी। बोली- मैं तो परहलेक ही करि रिही थी िक थाने में इत्तला मत कीिजए।

मुंशीजी- तुम्हें िजया पररि शका था?

िनमर्मला- शक क्यों नही था, मैंने उन्हें अपरने कमरे से िनकलते देखिा था।

मुंशीजी- िफरि तुमने मुझसे क्यों न कह िदया?

िनमर्मला- यह बात मेरे कहने की न थी। आपरके िदल में जरुरि खियाल आता िक यह ईष्यावश आक्षेपर लगा रिही ह। किहए, यह खियाल होता या नही? झूठ न बोिलएगा।

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मुंशीजी- सम्भव ह, मैं इन्कारि नही करि सकता। िफरि भी उसक दशा में तुम्हें मुझसे कह देना चािहए था। िरिपरोटर्म की नौबत न आती। तुमने अपरनी नेकनामी की तो- िफक्र की, पररि यह न सोचा िक परिरिणाम क्या होगा? मैं अभी थाने में चला आता हंू। अलायारि खिां आता ही होगा!

िनमर्मला ने हताश होकरि परूछा- िफरि अब?

मुंशीजी ने आकाश की ओरि ताकते हुए कहा- िफरि जैसी भगवान् की इच्छा। हजारि-दो हजारि रुपरये िरिश्वत देने के िलए होते तो शायद मामेला दब जाता, पररि मेरिी हालत तो तुम जानती हो। तकदीरि खिोटी ह औरि कुछ नही। परापर तो मैंने िकया ह, दण्ड कौन भोगेगा? एक लड़का था, उसकी वह दशा हुई, दूसरे की यह दशा हो रिही ह। नालायक था, गुस्ताखि था, गुस्ताखि था, कामचोरि था, पररि था ता अपरना ही लड़का, कभी-न-कभी चेत ही जाता। यह चोट अब न सही जाएेगी।

िनमर्मला- अगरि कुछ दे-िदलाकरि जान बच सके, तो मैं रुपरये का प्रबन्ध करि दूं।

मुंशीजी- करि सकती हो? िकतने रुपरये दे सकती हो?

िनमर्मला- िकतना दरिकारि होगा?

मुंशीजी- एक हजारि से कम तो शायद बातचीत न हो सके। मैंने एक मुकदमे में उससे एक हजारि िलए थ। वह कसरि आज िनकालेकगा।

िनमर्मला- हो जाएेगा। अभी थाने जाइए।

मुंशीजी को थाने में बड़ी देरि लगी। एकान्त में बातचीत करिने का बहुत देरि मे मौका िमला। अलायारि खिां परुरिाना घाघ थ। बड़ी मुिश्कल से अण्टी पररि चढ़ा। परांच सौ रुवये लेककरि भी अहसान का बोझा िसरि पररि लाद ही िदया। काम हो गया। लौटकरि िनमर्मला से बोला- लो भाई, बाजी मारि ली, रुपरये तुमने िदये, पररि काम मेरिी जबान ही ने िकया। बड़ी-बड़ी मुिश्कलों से रिाजी हो गया। यह भी याद रिहेगी। िजयारिाम भोजन करि चुका ह?

िनमर्मला- कहां, वह तो अभी घूमकरि लौटे ही नही।

मुंशीजी- बारिह तो बज रिहे होंगें।

िनमर्मला- कई दफे जा-जाकरि देखि आयी। कमरे में अंधेरिा परड़ा हुआ ह।

मुंशीजी- औरि िसयारिाम?

िनमर्मला- वह तो खिा-परीकरि सोये हैं।

मुंशीजी- उससे परूछा नही, िजया कहां गया?

िनमर्मला- वह तो कहते हैं, मुझसे कुछ कहकरि नही गये।

मुंशीजी को कुछ शंका हुई। िसयारिाम को जगाकरि परूछा- तुमसे िजयारिाम ने कुछ कहा नही, कब तक लौटेगा? गया कहां ह?

िसयारिाम ने िसरि खिुजलाते औरि आंखिों मलते हुए कहा- मुझसे कुछ नही कहा।

मुंशीजी- कपरड़े सब परहनकरि गया ह?

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िसयारिाम- जी नही, कुता औरि धोती।

मुंशीजी- जाते वक्त खिुश था?

िसयारिाम- खिुश तो नही मालूम होते थ। कई बारि अन्दरि आने का इरिादा िकया, पररि देहरिी से ही लौट गये। कई िमनट तक सायबान में खिड़े रिहे। चलने लगे, तो आंखें परोंछ रिहे थ। इधरि कई िदन से अक्सा रिोया करिते थ।

मुंशीजी ने ऐसी ठंडी सांस ली, मानो जीवन में अब कुछ नही रिहा औरि िनमर्मला से बोलेक- तुमने िकया तो अपरनी समझ में भलेक ही के िलए, पररि कोई शत्रु भी मुझ पररि इससे कठारे आघात न करि सकता था। िजयारिाम की माता होती, तो क्या वह यह संकोच करिती? कदािपर नही।

िनमर्मला बोली- जरिा डॉक्टरि साहब के यहां क्यों नही चलेक जाते? शायद वहां बैठे हों। कई लड़के रिोज आते ह, उनसे परूिछए, शायद कुछ परता लग जाएे। फूंक-फूंककरि चलने पररि भी अपरयश लग ही गया।

मुंशीजी ने मानो खिुली हुई िखिड़की से कहा- हां, जाता हंू औरि क्या करुंगा।

मुंशीज बाहरि आये तो देखिा, डॉक्टरि िसन्हा खिड़े हैं। चौंककरि परूछा- क्या आपर देरि से खिड़े हैं?

डॉक्टरि- जी नही, अभी आया हंू। आपर इस वक्त कहां जा रिहे हैं? साढ़े बारिह हो गये हैं।

मुंशीजी- आपर ही की तरिफ आ रिहा था। िजयारिाम अभी तक घूमकरि नही आया। आपरकी तरिफ तो नही गया था?

डॉक्टरि िसन्हा ने मुंशीजी के दोनों हाथ परकड़ िलए औरि इतना कह पराये थ, ‘भाई साहब, अब धैयर्म से काम..’ िक मुंशीजी गोली खिाये हुए मनुष्य की भांित जमीन पररि िगरि परड़े।

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अध्याय-११रुिक्मणी ने िनमर्मला से त्यौिरियां बदलकरि कहा- क्या नंगे परांव ही मदरिसे जाऐगा?

िनमर्मला ने बच्ची के बाल गूंथते हुए कहा- मैं क्या करुं? मेरे परास रुपरये नही हैं।

रुिक्मणी- गहने बनवाने को रुपरये जुड़ते हैं, लड़के के जूतों के िलए रुपरयों में आग लग जाती ह। दो तो चलेक ही गये, क्या तीसरे को भी रुला-रुलाकरि मारि डालने का इरिादा ह?

िनमर्मला ने एक सांस खिीचकरि कहा- िजसको जीना ह, िजयेगा, िजसको मरिना ह, मरेगा। मैं िकसी को मारिने-िजलाने नही जाती।

आजकल एक-न-एक बात पररि िनमर्मला औरि रुिक्मणी में रिोज ही झड़पर हो जाती थी। जब से गहने चोरिी गये हैं, िनमर्मला का स्वभाव िबलकुल बदल गया ह। वह एक-एक कौड़ी दांत से परकड़ने लगी ह। िसयारिाम रिोते-रिोते चहे जान दे दे, मगरि उसे िमठाई के िलए परैसे नही िमलते औरि यह बताव कुछ िसयारिाम ही के साथ नही ह, िनमर्मला स्वयं अपरनी जरुरितों को टालती रिहती ह। धोती जब तक फटकनरि तारि-तारि न हो जाएे, नयी धोती नही आती। महीनों िसरि का तेल नही मंगाया जाता। परान खिाने का उसे शौक था, कई-कई िदन तक परानदान खिाली परड़ा रिहता ह, यहां तक िक बच्ची के िलए दूध भी नही आता। नन्हे से िशशु का भिवष्य िवरिाट् रुपर धारिण करिके उसके िवचारि-क्षेत्र पररि मंडरिाता रिहता ।

मुंशीजी ने अपरने को सम्परूणर्मतया िनमर्मला के हाथों मे सौंपर िदया ह। उसके िकसी काम में दखिल नही देते। न जाने क्यों उससे कुछ दबे रिहते हैं। वह अब िबना नागा कचहरिी जाते हैं। इतनी मेहनत उन्होंने जवानी में भी न की थी। आंखें खिरिाब हो गयी हैं, डॉक्टरि िसन्हा ने रिात को िलखिने-परढ़ने की मुमुिनयत करि दी ह, पराचनशिक्त परहलेक ही दबर्मल थी, अब औरि भी खिरिाब हो गयी ह, दमें की िशकायत भी परैदा ही चली ह, पररि बेचारे सबेरे से आधी-आधी रिात तक काम करिते हैं। काम करिने को जी चाहे या न चाहे, तबीयत अच्छी हो या न हो, काम करिना ही परड़ता ह। िनमर्मला को उन पररि जरिा भी दया आती। वही भिवष्य की भीषण िचन्ता उसके आन्तिरिक सद्भावों को सवर्मनाश करि रिही ह। िकसी िभक्षुक की आवाज सुनकरि झल्ला परड़ती ह। वह एक कोड़ी भी खिचर्म करिना नही चाहती ।

एक िदन िनमर्मला ने िसयारिाम को घी लाने के िलए बाजारि भेजा। भूंगी पररि उनका िवश्वास न था, उससे अब कोई सौदा न मांगती थी। िसयारिाम में काट-कपरट की आदत न थी। औने-परौने करिना न जानता था। प्राय: बाजारि का सारिा काम उसी को करिना परड़ता। िनमर्मला एक-एक चीज को तोलती, जरिा भी कोई चीज तोल में कम परड़ती, तो उसे लौटा देती। िसयारिाम का बहुत-सा समय इसी लौट-फेरिी में बीत जाता था। बाजारि वालेक उसे जल्दी कोई सौदा न देते। आज भी वही नौबत आयी। िसयारिाम अपरने िवचारि से बहुत अच्छा घी, कई दूकारिन से देखिकरि लाया, लेकिकन िनमर्मला ने उसे सूंघते ही कहा- घी खिरिाब ह, लौटा आओ।

िसयारिाम ने झंुझलाकरि कहा- इससे अच्छा घी बाजारि में नही ह, मैं सारिी दूकाने देखिकरि लाया हंू?

िनमर्मला- तो मैं झूठ कहती हंू?

िसयारिाम- यह मैं नही कहता, लेकिकन बिनया अब घी वािपरस न लेकगा। उसने मुझसे कहा था, िजस तरिह देखिना चाहो, यही देखिो, माल तुम्हारे सामने ह। बोिहनी-बटे्ट के वक्त में सौदा वापरस न लूंगा। मैंने सूंघकरि,

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चखिकरि िलया। अब िकस मुंह से लौटने जाऊ?

िनमर्मला ने दांत परीसकरि कहा- घी में साफ चरिबी िमली हुई ह औरि तुम कहते हो, घी अच्छा ह। मैं इसे रिसोई में न लेक जाऊंगी, तुम्हारिा जी चाहे लौटा दो, चाहे खिा जाओ।

घी की हांड़ी वही छोड़करि िनमर्मला घरि में चली गयी। िसयारिाम क्रोध औरि क्षोभ से कातरि हो उठा। वह कौन मुंह लेककरि लौटाने जाएे? बिनया साफ कह देगा- मैं नही लौटाता। तब वह क्या करेगा? आस-परास के दस-परांच बिनये औरि सड़क पररि चलने वालेक आदमी खिाड़े हो जाएंगे। उन सबों के सामने उसे लिज्जत होना परड़ेगा। बाजारि में यों ही कोई बिनया उसे जल्दी सौदा नही देता, वह िकसी दूकान पररि खिड़ा होने नही पराता। चारिों ओरि से उसी पररि लताड़ परड़ेगी। उसने मन-ही-मन झंुझलाकरि कहा- परड़ा रिहे घी, मैं लौटाने न जाऊंगा।

मातृष-हीन बालक के समान दखिी, दीन-प्राणी संसारि में दूसरिा नही होता औरि सारे द:खि भूल जाते हैं। बालक को माता याद आयी, अम्मां होती, तो क्या आज मुझे यह सब सहना परड़ता? भैया चलेक गये, मैं ही अकेला यह िवपरित्त सहने के िलए क्यों बचा रिहा? िसयारिाम की आंखिों में आंसू की झड़ी लग गयी। उसके शोक कातरि कण्ठ से एक गहरे िन:श्वास के साथ िमलेक हुए ये शब्द िनकल आये- अम्मां! तुम मुझे भूल क्यों गयी, क्यों नही बुला लेकती?

सहसा िनमर्मला िफरि कमरे की तरिफ आयी। उसने समझा था, िसयारिाम चला गया होगा। उसे बैठा देखिा, तो गुस्से से बोली- तुम अभी तक बैठे ही हो? आिखिरि खिाना कब बनेगा?

िसयारिाम ने आंखें परोंड डाली। बोला- मुझे स्कूल जाने में देरि हो जाएेगी।

िनमर्मला- एक िदन देरि हो जाएेगी तो कौन हरिज ह? यह भी तो घरि ही का काम ह?

िसयारिाम- रिोज तो यही धन्धा लगा रिहता ह। कभी वक्त पररि स्कूल नही परहंुचता। घरि पररि भी परढ़ने का वक्त नही िमलता। कोई सौदा दो-चारि बारि लौटाये िबना नही जाता। डांट तो मुझ पररि परड़ती ह, शिमदा तो मुझे होना परड़ता ह, आपरको क्या?

िनमर्मला- हां, मुझे क्या? मैं तो तुम्हारिी दश्मन ठहरिी! अपरना होता, तब तो उसे द:खि होता। मैं तो ईश्वरि से मानाया करिती हंू िक तुम परढ़-िलखि न सको। मुझमें सारिी बुरिाइयां-ही-बुरिाइयां हैं, तुम्हारिा कोई कसूरि नही। िवमाता का नाम ही बुरिा होता ह। अपरनी मां िवष भी िखिलाये, तो अमृषत हैं; मैं अमृषत भी िपरलाऊं, तो िवष हो जाएेगा। तुम लोगों के कारिण में िमट्टी में िमल गयी, रिोते-रिोत उम्र काटी जाती ह, मालूम ही न हुआ िक भगवान ने िकसिलए जन्म िदया था औरि तुम्हारिी समझ में मैं िवहारि करि रिही हंू। तुम्हें सताने में मुझे बड़ा मजा आता ह। भगवान् भी नही परूछते िक सारिी िवपरित्त का अन्त हो जाता।

यह कहते-कहते िनमर्मला की आंखें भरि आयी। अन्दरि चली गयी। िसयारिाम उसको रिोते देखिकरि सहम उठा। ग्लािनक तो नही आयी; पररि शंका हुई िक ने जाने कौन-सा दण्ड िमलेक। चुपरके से हांड़ी उठा ली औरि घी लौटाने चला, इस तरिह जैसे कोई कुत्ता िकसी नये गांव में जाता ह। उसे देखिकरि साधारिण बुिद्व का मनुष्य भी आनुमान करि सकता था िक वह अनाथ ह।

िसयारिाम ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता था, आनेवालेक संग्राम के भय से उसकी हृदय-गित बढ़ती जाती थी। उसने िनश्चय िकया-बिनये ने घी न लौटाया, तो वह घी वही छोड़करि चला आयेगा। झखि मारिकरि बिनया आपर ही बुलायेगा। बिनये को डांटने के िलए भी उसने शब्द सोच िलए। वह कहेगा- क्यों साहूजी, आंखिों में धूल झोंकते

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हो? िदखिाते हो चोखिा माल औरि औरि देते ही रिद्दी माल? पररि यह िनश्चय करिने पररि भी उसके परैरि आगे बहुत धीरे-धीरे उठते थ। वह यह न चाहता था, बिनया उसे आता हुआ देखे, वह अकस्मात् ही उसके सामने परहंुच जाना चाहता था। इसिलए वह चक्कारि काटकरि दूसरिी गली से बिनये की दूकान पररि गया।

बिनये ने उसे देखिते ही कहा- हमने कह िदया था िक हमे सौदा वापरस न लेंगे। बोलों, कहा था िक नही।

िसयारिाम ने िबगड़करि कहा- तुमने वह घी कहां िदया, जो िदखिाया था? िदखिाया एक माल, िदया दूसरिा माल, लौटाओगे कैसे नही? क्या कुछ रिाहजनी ह?

साह- इससे चोखिा घी बाजारि में िनकल आये तो जरिीबाना दूं। उठा लो हांड़ी औरि दो-चारि दूकारि देखि आओ।

िसयारिाम- हमें इतनी फुसर्मत नही ह। अपरना घी लौटा लो।

साह- घी न लौटेगा।

बिनये की दकान पररि एक जटाधारिी साधू बैठा हुआ यह तमाश देखि रिहा था। उठकरि िसयारिाम के परास आया औरि हांड़ी का घी सूंघकरि बोला- बच्चा, घी तो बहुत अच्छा मालूम होता ह।

साह सने शह पराकरि कहा- बाबाजी हम लोग तो आपर ही इनको घिटया माल नही देते। खिरिाब माल क्या जाने-सुने ग्राहकों को िदया जाता ह?

साधु- घी लेक जाव बच्चा, बहुत अच्छा ह।

िसयारिाम रिो परड़ा। घी को बुरिा िसद्वा करिने के िलए उसके परास अब क्या प्रमाण था? बोला- वही तो कहती हैं, घी अच्छा नही ह, लौटा आओ। मैं तो कहता था िक घी अच्छा ह।

साधु- कौन कहता ह?

साह- इसकी अम्मां कहती होंगी। कोई सौदा उनके मन ही नही भाता।

बेचारे लड़के को बारि-बारि दौड़ाया करिती ह। सौतेली मां ह न! अपरनी मां हो तो कुछ ख्याल भी करे।

साधु ने िसयरिाम को सदय नेत्रों से देखिा, मानो उसे त्राण देने के िलए उनका हृदय िवकल हो रिहा ह। तब करुण स्वरि से बोलेक- तुम्हारिी माता का स्वगर्मवास हुए िकतने िदन हुए बच्च?

िसयारिाम- छठा साल ह।

साधु- ता तुम उस वक्त बहुत ही छोटे रिहे होंगे। भगेवान् तुम्हारिी लीला िकतनी िविचत्र ह। इस दधमुंहे बालक को तुमने मात्-प्रेम से वंिचत करि िदया। बड़ा अनथर्म करिते हो भगवान्! छ: साल का बालक औरि रिाक्षसी िवमाता के परानलेक परड़े! धन्य हो दयािनिध! साहजी, बालक पररि दया करिो, घी लौटा लो, नही तो इसकी मात इसे घरि में रिहने न देगी। भगवान की इच्छा से तुम्हारिा घी जल्द िबक जाएेगा। मेरिा आशीवाद तुम्हारे साथ रिहेगां

साहजी ने रुपरये वापरस न िकये। आिखिरि लड़के को िफरि घी लेकने आना ही परड़ेगा। न जाने िदन में िकतनी बारि चक्करि लगाना परड़े औरि िकस जािलये से पराला परड़े। उसकी दकान में जो घी सबसे अच्छा था, वह िसयारिाम िदल से सोच रिहा था, बाबाजी िकतने दयालु हैं? इन्होंने िसफािरिश न की होती, तो साहजी क्यों अच्छा घी देते?

िसयारिाम घी लेककरि चला, तो बाबाजी भी उसके साथ ही िलये। रिास्ते में

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मीठी-मीठी बातें करिने लगे।

‘बच्चा, मेरिी माता भी मुझे तीन साल का छोड़करि पररिलोक िसधारिी थी। तभी से मातृष-िवहीन बालकों को देखिता हंू तो मेरिा हृदय फटने लगता हैं।’

िसयारिाम ने परूछा- आपरके िपरताजी ने भी तो दूसरिा िववाह करि िलया था?

साधु- हां, बच्चा, नही तो आज साधु क्यों होता? परहलेक तो िपरताजी िववाह न करिते थ। मुझे बहुत प्यारि करिते थ, िफरि न जाने क्यों मन बदल गया, िववाह करि िलया। साधु हंू, कटु वचन मुंह से नही िनकालना चािहए, पररि मेरिी िवमात िजतनी ही सुन्दरि थी, उतनी ही कठोरि थी। मुझे िदन-िदन-भरि खिाने को न देती, रिोता तो मारिती। िपरताजी की आंखें भी िफरि गयी। उन्हें मेरिी सूरित से घृषणा होने लगी। मेरिा रिोना सुनकरि मुझे परीटने लगते। अन्त को मैं एक िदन घरि से िनकल खिड़ा हुआ।

िसयारिाम के मन में भी घरि से िनकल भागने का िवचारि कई बारि हुआ था। इस समय भी उसके मन में यही िवचारि उठ रिहा था। बड़ी उत्सुकता से बोला-घरि से िनकलकरि आपर कहां गये?

बाबाजी ने हंसकरि कहा- उसी िदन मेरे सारे कष्टिों का अन्त हो गया िजस िदन घरि के मोह-बन्धन से छूटा औरि भय मन से िनकला, उसी िदन मानो मेरिा उद्वारि हो गया। िदन भरि मैं एक परुल के नीचे बैठा रिहा। संध्या समय मुझे एक महात्मा िमल गये। उनका स्वामी पररिमानन्दजी था। वे बाल-ब्रह्रचारिी थ। मुझ पररि उन्होंने दया की औरि अपरने साथ रिखि िलया। उनके साथ रिखि िलया। उनके साथ मैं देश-देशान्तरिों में घूमने लगा। वह बड़े अच्छे योगी थ। मुझे भी उन्होंने योग-िवद्या िसखिाई। अब तो मेरे को इतना अभ्यास हो येगया ह िक जब इच्छा होती ह, माताजी के दशर्मन करि लेकता हंू, उनसे बात करि लेकता हंू।

िसयारिाम ने िवस्फािरित नेत्रों से देखिकरि परूछा- आपरकी माता का तो देहान्त हो चुका था?

साधु- तो क्या हुआ बच्च, योग-िवद्या में वह शिक्त ह िक िजस मृषत-आत्म को चाहे, बुला लेक।

िसयारिाम- मैं योग-िवद्या सीखि् लूं, तो मुझे भी माताजी के दशर्मन होंगे?

साधु- अवश्य, अभ्यास से सब कुछ हो सकता ह। हां, योग्य गुरु चािहए। योग से बड़ी-बड़ी िसिद्वयां प्राप्त हो सकती हैं। िजतना धन चाहो, परल-मात्र में मंगा सकते हो। कैसी ही बीमारिी हो, उसकी औषिध अता सकते हो।

िसयारिाम- आपरका स्थान कहां ह?

साधु- बच्चा, मेरे को स्थान कही नही ह। देश-देशान्तरिों से रिमता िफरिता हंू। अच्छा, बच्चा अब तुम जाओ, मै। जरिा स्नान-ध्ययान करिने जाऊंगा।

िसयरिाम- चिलए मैं भी उसी तरिफ चलता हंू। आपरके दशर्मन से जी नही भरिा।

साधु- नही बच्चा, तुम्हें पराठशाला जाने की देरिी हो रिही ह।

िसयरिाम- िफरि आपरके दशर्मन कब होंगे?

साधु- कभी आ जाऊंगा बच्चा, तुम्हारिा घरि कहां ह?

िसयारिाम प्रसन्न होकरि बोला- चिलएगा मेरे घरि? बहुत नजदीक ह। आपरकी बड़ी कृपरा होगी।

िसयारिाम कदम बढ़ाकरि आगे-आगे चलने लगा। इतना प्रसन्न था, मानो सोने की गठरिी िलए जाता हो। घरि

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के सामने परहंुचकरि बोला- आइए, बैिठए कुछ देरि।

साधु- नही बच्चा, बैठूंगा नही। िफरि कल-पररिसों िकसी समय आ जाऊंगा। यही तुम्हारिा घरि ह?

िसयारिाम- कल िकस वक्त आइयेगा?

साधु- िनश्चय नही कह सकता। िकसी समय आ जाऊंगा।

साधु आगे बढ़े, तो थोड़ी ही दूरि पररि उन्हें एक दूसरिा साधु िमला। उसका नाम था हिरिहरिानन्द।

पररिमानन्द से परूछा- कहां-कहां की सैरि की? कोई िशकारि फंसा?

हिरिहरिानन्द- इधरिा चारिों तरिफ घूम आया, कोई िशकारि न िमलां एकाध िमला भी, तो मेरिी हंसी उड़ाने लगा।

पररिमानन्द- मुझे तो एक िमलता हुआ जान परड़ता ह! फंस जाएे तो जानंू।

हिरिहरिानन्द- तुम यों ही कहा करिते हो। जो आता ह, दो-एक िदन के बाद िनकल भागता ह।

पररिमानन्द- अबकी न भागेगा, देखि लेकना। इसकी मां मरि गयी ह। बापर ने दूसरिा िववाह करि िलया ह। मां भी सताया करिती ह। घरि से ऊबा हुआ ह।

हिरिहरिानन्द- खिूब अच्छी तरिह। यही तरिकीब सबसे अच्छी ह। परहलेक इसका परता लगा लेकना चािहए िक मुहल्लेक में िकन-िकन घरिों में िवमाताएं हैं? उन्ही घरिों में फन्दा डालना चािहए।

िनमर्मला ने िबगड़करि कहा- इतनी देरि कहां लगायी?

िसयारिाम ने िढठाई से कहा- रिास्ते में एक जगह सो गया था।

िनमर्मला- यह तो मैं नही कहती, पररि जानते हो कै बज गये हैं? दस कभी के बज गये। बाजारि कुद दूरि भी तो नही ह।

िसयारिाम- कुछ दूरि नही। दरिवाजे ही पररि तो ह।

िनमर्मला- सीधे से क्यों नही बोलते? ऐसा िबगड़ रिहे हो, जैसे मेरिा ही कोई कामे करिने गये हो?

िसयारिाम- तो आपर व्यथर्म की बकवास क्यों करिती हैं? िलया सौदा लौटाना क्या आसान काम ह? बिनये से घंटों हुज्जत करिनी परड़ी यह तो कहो, एक बाबाजी ने कह-सुनकरि फेरिवा िदया, नही तो िकसी तरिह न फेरिता। रिास्ते में कही एक िमनट भी न रुका, सीधा चला आता हंू।

िनमर्मला- घी के िलए गये-गये, तो तुम ग्यारिह बजे लौटे हो, लकड़ी के िलए जाओगे, तो सांझ ही करि दोगे। तुम्हारे बाबूजी िबना खिाये ही चलेक गये। तुम्हें इतनी देरि लगानी था, तो परहलेक ही क्यों न कह िदया? जाते ही लकड़ी के िलए।

िसयारिाम अब अपरने को संभाल न सका। झल्लाकरि बोला- लकड़ी िकसी औरि से मंगाइए। मुझे स्कूल जाने को देरि हो रिही ह।

िनमर्मला- खिाना न खिाओगे?

िसयारिाम- न खिाऊंगा।

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िनमर्मला- मैं खिाना बनाने को तैयारि हंू। हां, लकड़ी लाने नही जा सकती।

िसयारिाम- भूंगी को क्यों नही भेजती?

िनमर्मला- भूंगी का लाया सौदा तुमने कभी देखिा नही हैं?

िसयारिाम- तो मैं इस वक्त न जाऊंगा।

िनमर्मला- मुझे दोष न देना।

िसयारिाम कई िदनों से स्कूल नही गया था। बाजारि-हाट के मारे उसे िकताबें देखिने का समय ही न िमलता था। स्कूल जाकरि िझड़िकयां खिान, से बेंच पररि खिड़े होने या ऊंची टोपरी देने के िसवा औरि क्या िमलता? वह घरि से िकताबें लेककरि चलता, पररि शहरि के बाहरि जाकरि िकसी वृषक्ष की छांह में बैठा रिहता या परल्टनों की कवायद देखिता। तीन बजे घरि से लौट आता। आज भी वह घरि से चला, लेकिकन बैठने में उसका जी न लगा, उस पररि आंतें अल ग जल रिही थी। हा! अब उसे रिोिटयों के भी लालेक परड़ गये। दस बजे क्या खिाना न बन सकता था? माना िक बाबूजी चलेक गये थ। क्या मेरे िलए घरि में दो-चारि परैसे भी न थ? अम्मां होती, तो इस तरिह िबना कुछ खिाये-िपरये आने देती? मेरिा अब कोई नही रिहा।

िसयारिाम का मन बाबाजी के दशर्मन के िलए व्याकुल हो उठा। उसने सोचा- इस वक्त वह कहां िमलेंगे? कहां चलकरि देखिूं? उनकी मनोहरि वाणी, उनकी उत्साहप्रद सान्त्वना, उसके मन को खिीचने लगी। उसने आतुरि होकरि कहा- मैं उनके साथ ही क्यों न चला गया? घरि पररि मेरे िलए क्या रिखिा था?

वह आज यहां से चला तो घरि न जाकरि सीधा घी वालेक साहजी की दकान पररि गया। शायद बाबाजी से वहां मुलाकात हो जाएे, पररि वहां बाबाजी न थ। बड़ी देरि तक खिड़ा-खिड़ा लौट आया।

घरि आकरि बैठा ही था िकस िनमर्मला ने आकरि कहा- आज देरि कहां लगाई? सवेरे खिाना नही बना, क्या इस वक्त भी उपरवास होगा? जाकरि बाजारि से कोई तरिकारिी लाओ।

िसयारिाम ने झल्लाकरि कहा- िदनभरि का भूखिा चला आता हंू; कुछ परीनी परीने तक को लाई नही, ऊपररि से बाजारि जाने का हुक्म दे िदया। मैं नही जाता बाजारि, िकसी का नौकरि नही हंू। आिखिरि रिोिटयां ही तो िखिलाती हो या औरि कुछ? ऐसी रिोिटयां जहां मेहनत करुंगा, वही िमल जाएंगी। जब मजूरिी ही करिनी ह, तो आपरकी न करुंगा, जाइए मेरे िलए खिाना मत बनाइएगा।

िनमर्मला अवाक् रिह गयी। लड़के को आज क्या हो गया? औरि िदन तो चुपरके से जाकरि काम करि लाता था, आज क्यों त्योिरियां बदल रिहा ह? अब भी उसको यह न सूझी िक िसयारिाम को दो-चारि परैसे कुछ खिाने के दे दे। उसका स्वभाव इतना कृपरण हो गया था, बोली- घरि का काम करिना तो मजूरिी नही कहलाती। इसी तरिह मैं भी कह दूं िक मैं खिाना नही परकाती, तुम्हारे बाबूजी कह दें िक कचहरिी नही जाता, तो क्या हो बताओ? नही जाना चाहते, तो मत जाओ, भूंगी से मंगा लूंगी। मैं क्या जानती थी िक तुम्हें बाजारि जाना बुरिा लगता ह, नही तो बला से धेलेक की चीज परैसे में आती, तुम्हें न भेजती। लो, आज से कान परकड़ती हंू।

िसयारिाम िदल में कुछ लिज्जत तो हुआ, पररि बाजारि न गया। उसका ध्यान बाबाजी की ओरि लगा हुआ था। अपरने सारे दखिों का अन्त औरि जीवन की सारिी आशाएं उसे अब बाबाजी क आशीवाद में मालूम होती थी। उन्ही की शरिण जाकरि उसका यह आधारिहीन जीवन साथर्मक होगा। सूयास्त के समय वह अधीरि हो गया। सारिा बाजारि

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छान मारिा, लेकिकन बाबाजी का कही परता न िमला। िदनभरि का भूखि-प्यासा, वह अबोध बालक दखिते हुए िदल को हाथों से दबाये, आशा औरि भय की मूित बना, दकानों, गािलयों औरि मिन्दरिों में उस आश्रमे को खिोजता िफरिता था, िजसके िबना उसे अपरना जीवन दस्सह हो रिहा था। एक बारि मिन्दरि के सामने उसे कोई साधु खिड़ा िदखिाई िदया। उसने समझा वही हैं। हषोल्लास से वह फूल उठा। दौड़ा औरि साधु के परास खिड़ा हो गया। पररि यह कोई औरि ही महात्मा थ। िनरिाश हो करि आगे बढ़ गया।

धारे-धीरे सड़कों पररि सन्नाटा दा गया, घरिों के द्वारिा बन्द होने लगे। सड़क की परटिरियों पररि औरि गिलयों में बंसखिटे या बोरे िबछा-िबछाकरि भारित की प्रजा सुखि-िनद्रा में मग्न होने लगी, लेकिकन िसयारिाम घरि न लौटा। उस घरि से उसक िदल फट गया था, जहां िकसी को उससे प्रेम न था, जहां वह िकसी पररिािश्रत की भांित परड़ा हुआ था, केवल इसीिलए िक उसे औरि कही शरिण न थी। इस वक्त भी उसके घरि न जाने को िकसे िचन्ता होगी? बाबूजी भोजन करिके लेकटे होंगे, अम्मांजी भी आरिाम करिने जा रिही होंगी। िकसी ने मेरे कमरे की ओरि झांककरि देखिा भी न होगा। हां, बुआजी घबरिा रिही होंगी, वह अभी तक मेरिी रिाह देखिती होंगी। जब तक मैं न जाऊंगा, भोजन न करेंगी।

रुिक्मणी की याद आते ही िसयारिाम घरि की ओरि चल िदया। वह अगरि औरि कुछ न करि सकती थी, तो कम-से-कम उसे गोद में िचमटाकरि रिोती थी? उसके बाहरि से आने पररि हाथ-मुंह धोने के िलए परानी तो रिखि देती थी। संसारि में सभी बालक दूध की कुिल्लयों नही करिते, सभी सोने के कौरि नही खिाते। िकतनों के पेट भरि भोजन भी नही िमलता; पररि घरि से िवरिक्त वही होते हैं, जो मातृष-स्नेह से वंिचत हैं।

िसयारिाम घरि की ओरि चला ही िक सहसा बाबा पररिमानन्द एक गली से आते िदखिायी िदये।

िसयारिाम ने जाकरि उनका हाथ परकड़ िलया। पररिमानन्द ने चौंककरि परूछा- बच्चा, तुम यहां कहां?

िसयारिाम ने बात बनाकरि कहा- एक दोस्त से िमलने आया था। आपरका स्थान यहां से िकतनी दूरि ह?

पररिमानन्द- हम लोग तो आज यहां से जा रिहे हैं, बच्चा, हिरिद्वारि की यात्रा ह।

िसयारिाम ने हतोत्साह होकरि कहा- क्या आज ही चलेक जाइएगा?

पररिमानन्द- हां बच्चा, अब लौटकरि आऊंगा, तो दशर्मन दूंगा?

िसयारिाम ने कात कंठ से कहा- मैं भी आपरके साथ चलूंगा।

पररिमानन्द- मेरे साथ! तुम्हारे घरि के लोग जाने देंगे?

िसयारिाम- घरि के लोगों को मेरिी क्या पररिवाह ह? इसके आगे िसयारिाम औरि कुछ सन कह सका। उसके अश्रु-परूिरित नेत्रों ने उसकी करुणा

-गाथा उससे कही िवस्तारि के साथ सुना दी, िजतनी उसकी वाणी करि सकती थी।

पररिमानन्द ने बालक को कंठ से लगाकरि कहा- अच्छा बच्च, तेरिी इच्छा हो तो चल। साधु-सन्तों की संगित का आनन्द उठा। भगवान् की इच्छा होगी, तो तेरिी इच्छा परूरिी होगी।

दाने पररि मण्डरिाता हुआ परक्षी अन्त में दाने पररि िगरि परड़ा। उसके जीवन का अन्त िपरजरे में होगा या व्याध की छुरिी के तलेक- यह कौन जानता ह?

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अध्याय-१२मुंशीजी परांच बजे कचहरिी से लौटे औरि अन्दरि आकरि चारिपराई पररि िगरि परड़े। बुढ़ापे की देह, उस पररि आज

सारे िदन भोजन न िमला। मुंह सूखि गया। िनमर्मला समझ गयी, आज िदन खिाली गयां िनमर्मला ने परूछा- आज कुछ न िमला।

मुंशीजी- सारिा िदन दौड़ते गुजरिा, पररि हाथ कुछ न लगा।

िनमर्मला- फौजदारिी वालेक मामलेक में क्या हुआ?

मुंशीजी- मेरे मुविक्कल को सजा हो गयी।

िनमर्मला- परंिडत वालेक मुकदमे में?

मुंशीजी- परंिडत पररि िडग्री हो गयी।

िनमर्मला- आपर तो कहते थ, दावा खििरिज हो जाएेगा।

मुंशीजी- कहता तो था, औरि जब भी कहता हंू िक दावा खिािरिज हो जाना चािहए था, मगरि उतना िसरि मगजन कौन करे?

िनमर्मला- औरि सीरिवालेक दावे में?

मुंशीजी- उसमें भी हारि हो गयी।

िनमर्मला- तो आज आपर िकसी अभागे का मुंह देखिकरि उठे थ।

मुंशीजी से अब काम िबलकुल न हो सकता थां एक तो उसके परास मुकदमे आते ही न थ औरि जो आते भी थ, वह िबगड़ जाते थ। मगरि अपरनी असफलताआं को वह िनमर्मला से िछपराते रिहते थ। िजस िदन कुछ हाथ न लगता, उस िदन िकसी से दो-चारि रुपरये उधारि लाकरि िनमर्मला को देते, प्राय: सभी िमत्रों से कुछ-न-कुछ लेक चुके थ। आज वह डौल भी न लगा।

िनमर्मला ने िचन्तापरूणर्म स्वरि में कहा- आमदनी का यह हाल ह, तो ईश्श्वरि ही मािलक ह, उसक पररि बेटे का यह हाल ह िक बाजारि जाना मुिश्कल ह। भूंगी ही से सब काम करिाने को जी चाहता ह। घी लेककरि ग्यारिह बजे लौटा। िकतना कहकरि हारि गयी िक लकड़ी लेकते आओ, पररि सुना ही नही।

मुंशीजी- तो खिाना नही परकाया?

िनमर्मला- ऐसी ही बातों से तो आपर मुकदमे हारिते हैं। इंधन के िबना िकसी ने खिाना बनाया ह िक मैं ही बना लेकती?

मुंशीजी- तो िबना कुछ खिाये ही चला गया।

िनमर्मला- घरि में औरि क्या रिखिा था जो िखिला देती?

मुंशीजी ने डरिते-डरिते कहका- कुछ परैसे-वैसे न दे िदये?

िनमर्मला ने भौंहे िसकोड़करि कहा- घरि में परैसे फलते हैं न?

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मुंशीजी ने कुछ जवाब न िदया। जरिा देरि तक तो प्रतीक्षा करिते रिहे िक शायद जलपरान के िलए कुछ िमलेकगा, लेकिकन जब िनमर्मला ने परानी तक न मंगवाय, तो बेचारे िनरिाश होकरि चलेक गये। िसयारिाम के कष्टि का अनुमान करिके उनका िचत्त चचंल हो उठा। एक बारि भूंगी ही से लकड़ी मंगा ली जाती, तो ऐसा क्या नुकसान हो जाता? ऐसी िकफायत भी िकस काम की िक घरि के आदमी भूखे रिह जाएं। अपरना संदूकचा खिोलकरि टटोलने लगे िक शायद दो-चारि आने परैसे िमल जाएं। उसके अन्दरि के सारे कागज िनकाल डालेक, एक-एक, खिाना देखिा, नीचे हाथ डालकरि देखिा पररि कुछ न िमला। अगरि िनमर्मला के सन्दूक में परैसे न फलते थ, तो इस सन्दूकचे में शायद इसके फूल भी न लगते हों, लेकिकन संयोग ही किहए िक कागजों को झाडक़ते हुए एक चवन्नी िगरि परड़ी। मारे हषर्म के मुंशीजी उछल परड़े। बड़ी-बड़ी रिकमें इसके परहलेक कमा चुके थ, पररि यह चवन्नी पराकरि इस समय उन्हें िजतना आह्लाद हुआ, उनका परहलेक कभी न हुआ था। चवन्नी हाथ में िलए हुए िसयारिाम के कमरे के सामने आकरि परुकारिा। कोई जवाब न िमला। तब कमरे में जाकरि देखिा। िसयारिाम का कही परता नही- क्या अभी स्कूल से नही लौटा? मन में यह प्रश्न उठते ही मुंशीजी ने अन्दरि जाकरि भूंगी से परूछा। मालूम हुआ स्कूल से लौट आये।

मुंशीजी ने परूछा- कुछ परानी िपरया ह?

भूंगी ने कुछ जवाब न िदया। नाक िसकोड़करि मुंह फेरे हुए चली गयी।

मुंशीजी अिहस्ता-आिहस्ता आकरि अपरने कमरे में बैठ गये। आज परहली बारि उन्हें िनमर्तेला पररि क्रोध आया, लेकिकन एक ही क्षण क्रोध का आघात अपरने ऊपररि होने लगा। उस अंधेरे कमेरे में फशर्म पररि लेकटे हुए वह अपरने परुत्र की ओरि से इतना उदासीन हो जाने पररि िधक्कारिने लगे। िदन भरि के थके थ। थोड़ी ही देरि में उन्हें नीद आ गयी।

भूंगी ने आकरि परुकारिा- बाबूजी, रिसोई तैयारि ह।

मुंशीजी चौंककरि उठ बैठे। कमरे में लैम्पर जल रिहा था परूछा- कै बज गये भूंगी? मुझे तो नीद आ गयी थी।

भूंगी ने कहा- कोतवाली के घण्टे में नौ बज गये हैं औरि हम नाही जािनत।

मुंशीजी- िसया बाबू आये?

भूंगी- आये होंगे, तो घरि ही में न होंगे।

मुंशीजी ने झल्लाकरि परूछा- मैं परूछता हंू, आये िक नही? औरि तू न जाने क्या-क्या जवाब देती ह? आये िक नही?

भूंगी- मैंने तो नही देखिा, झूठ कैसे कह दूं।

मुंशीजी िफरि लेकट गये औरि बोलेक- उनको आ जाने दे, तब चलता हंू।

आध घंटे द्वारि की ओरि आंखि लगाए मुंशीजी लेकटे रिहे, तब वह उठकरि बाहरि आये औरि दािहने हाथ कोई दो फलांग तक चलेक। तब लौटकरि द्वारि पररि आये औरि परूछा- िसया बाबू आ गये?

अन्दरि से आवाज आयी- अभी नही।

मुंशीजी िफरि बायी ओरि चलेक औरि गली के नुक्कड़ तक गये। िसयारिाम कही िदखिाई न िदया। वहां से िफरि घरि आये औरि द्वारिा पररि खिड़े होकरि परूछा- िसया बाबू आ गये?

अन्दरि से जवाब िमला- नही।

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कोतवाली के घंटे में दस बजने लगे।

मुंशीजी बड़े वेग से कम्परनी बाग की तरिफ चलेक। सोचन लगे, शायद वहां घूमने गया हो औरि घास पररि लेकटे-लेकट नीद आ गयी हो। बाग में परहंुचकरि उन्होंने हरेक बेंच को देखिा, चारिों तरिफ घूमे, बहुते से आदमी घास पररि परड़े हुए थ, पररि िसयारिाम का िनशान न था। उन्होंने िसयारिाम का नाम लेककरि जोरि से परुकारिा, पररि कही से आवाज न आयी।

ख्याल आया शायद स्कूल में तमाशा हो रिहा हो। स्कूल एक मील से कुछ ज्यादा ही था। स्कूल की तरिफ चलेक, पररि आधे रिास्ते से ही लौट परड़े। बाजारि बन्द हो गया था। स्कूल में इतनी रिात तक तमाशा नही हो सकता। अब भी उन्हें आशा हो रिही थी िक िसयारिाम लौट आया होगा। द्वारि पररि आकरि उन्होंने परुकारिा- िसया बाबू आये? िकवाड़ बन्द थ। कोई आवाज न आयी। िफरि जोरि से परुकारिा। भूंगी िकवाड़ खिोलकरि बोली- अभी तो नही आये। मुंशीजी ने धीरे से भूंगी को अपरने परास बुलाया औरि करुण स्वरि में बोलेक- तू ता घरि की सब बातें जानती ह, बता आज क्या हुआ था?

भूंगी- बाबूजी, झूठ न बोलूंगी, मालिकन छुड़ा देगी औरि क्या? दूसरे का लड़का इस तरिह नही रिखिा जाता। जहां कोई काम हुआ, बस बाजारि भेज िदया। िदन भरि बाजारि दौड़ते बीतता था। आज लकड़ी लाने न गये, तो चूल्हा ही नही जला। कहो तो मुंह फुलावें। जब आपर ही नही देखिते, तो दूसरिा कौन देखेगा? चिलए, भोजन करि लीिजए, बहूजी कब से बैठी ह।

मुंशीजी- कह दे, इस वक्त नही खिायंेगे।

मुंशीजी िफरि अपरने कमेरे में चलेक गये औरि एक लम्बी सांस ली। वेदना से भरे हुए ये शब्द उनके मुंह से िनकल परड़े- ईश्वरि, क्या अभी दण्ड परूरिा नही हुआ? क्या इस अंधे की लकड़ी को हाथ से छीन लोगे?

िनमर्मला ने आकरि कहा- आज िसयारिाम अभी तक नही आये। कहती रिही िक खिाना बनाये देती हंू, खिा लो मगरि सन जाने कब उठकरि चल िदये! न जाने कहां घूम रिहे हैं। बात तो सुनते ही नही। कब तक उनकी रिाह देखिा करु! आपर चलकरि खिा लीिजए, उनके िलए खिाना उठाकरि रिखि दूंगी।

मुंशीजी ने िनमर्मला की ओरि कठारे नेत्रों से देखिकरि कहा- अभी कै बजे होंगे?

िनमर्मल- क्या जाने, दस बजे होंगे।

मुंशीजी- जी नही, बारिह बजे हैं।

िनमर्मला- बारिह बज गये? इतनी देरि तो कभी न करिते थ। तो कब तक उनकी रिाह देखिोगे! दोपरहरि को भी कुछ नही खिाया था। ऐसा सैलानी लड़का मैंने नही देखिा।

मुंशीजी- जी तुम्हें िदक करिता ह, क्यों?

िनमर्मला- देिखिये न, इतना रिात गयी औरि घरि की सुध ही नही।

मुंशीजी- शायद यह आिखिरिी शरिारित हो।

िनमर्मला- कैसी बातें मुंह से िनकालते हैं? जाएंगे कहां? िकसी यारि-दोस्त के यहां परड़ रिहे होंगे।

मुंशीजी- शायद ऐसी ही हो। ईश्वरि करे ऐसा ही हो।

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िनमर्मला- सबेरे आवें, तो जरिा तम्बीह कीिजएगा।

मुंशीजी- खिूब अच्छी तरिह करुंगा।

िनमर्मला- चिलए, खिा लीिजए, दूरि बहुत हुई।

मुंशीजी- सबेरे उसकी तम्बीह करिके खिाऊंगा, कही न आया, तो तुम्हें ऐसा ईमानदान नौकरि कहां िमलेकगा?

िनमर्मला ने एंठकरि कहा- तो क्या मैंने भागा िदया?

मुंशीजी- नही, यह कौन कहता ह? तुम उसे क्यों भगाने लगी। तुम्हारिा तो काम करिता था, शामत आ गयी होगी।

िनमर्मला ने औरि कुछ नही कहा। बात बढ़ जाने का भय था। भीतरि चली आयीय। सोने को भी न कहा। जरिा देरि में भूंगी ने अन्दरि से िकवाड़ भी बन्द करि िदये।

क्या मुंशीजी को नीद आ सकती थी? तीन लड़कों में केवल एक बच रिहा था। वह भी हाथ से िनकल गया, तो िफरि जीवन में अंधकारि के िसवाय औरि ह? कोई नाम लेकनेवाल भी नही रिहेगा। हा! कैसे-कैसे रित्न हाथ से िनकल गये? मुंशीजी की आंखिों से अश्रुधारिा बह रिही थी, तो कोई आश्चयर्म ह? उस व्यापरक परश्चातापर, उस सघन ग्लािन-ितिमरि में आशा की एक हल्की-सी रेखिा उन्हें संभालेक हुए थी। िजस क्षण वह रेखिा लुप्त हो जाएेगी, कौन कह सकता ह, उन पररि क्या बीतेगी? उनकी उस वेदना की कल्परना कौन करि सकता ह?

कई बारि मुंशीजी की आंखें झपरकी, लेकिकन हरि बारि िसयारिाम की आहट के धोखे में चौंक परड़े।

सबेरिा होते ही मुंशीजी िफरि िसयारिाम को खिोजने िनकलेक। िकसी से परूछते शमर्म आती थी। िकस मुंह से परूछें? उन्हें िकसी से सहानुभूित की आशा न थी। प्रकट न कहकरि मन में सब यही कहेंगे, जैसा िकया, वैसा भोगो! सारे दिन वह स्कूल के मैदानों, बाजारिों औरि बगीचों का चक्करि लगाते रिहे, दो िदन िनरिाहारि रिहने पररि भी उन्हें इतनी शिक्त कैसे हुई, यह वही जान।

रिात के बारिह बजे मुंशीजी घरि लौटे, दरिवाजे पररि लालटेन जल रिही थी, िनमर्मला द्वारि पररि खिड़ी थी। देखिते ही बोली- कहा भी नही, न जाने कब चल िदये। कुछ परता चला?

मुंशीजी ने आग्नेय नेत्रों से ताकते हुए कहा- हट जाओ सामने से, नही तो बुरिा होगा। मैं आपे में नही हंू। यह तुम्हारिी करिनी ह। तुम्हारे ही कारिण आज मेरिी यह दशा हो रिही ह। आज से छ: साल परहलेक क्या इस घरि की यह दशा थी? तुमने मेरिा बना-बनाया घरि िबगाड़ िदया, तुमने मेरे लहलहाते बाग को उजाड़ डाला। केवल एक ठूंठ रिह गया ह। उसका िनशान िमटाकरि तभी तुम्हें सन्तोष होगा। मैं अपरना सवर्मनाश करिने के िलए तुम्हें घरि नही जाएा था। सुखिी जीवन को औरि भी सुखिमय बनाना चाहता था। यह उसी का प्रायिश्चत ह। जो लड़के परान की तरिह फेरे जाते थ, उन्हें मेरे जीते-जी तुमने चाकरि समझ िलया औरि मैं आंखिों से सब कुछ देखिते हुए भी अंधा बना बैठा रिहा। जाओ, मेरे िलए थोड़ा-सा संिखिया भेज दो। बस, यही कसरि रिह गयी ह, वह भी परूरिी हो जाएे।

िनमर्मला ने रिोते हुए कहा- मैं तो अभािगन हंू ही, आपर कहेंगे तब जानंूगी? ने जाने ईश्वरि ने मुझे जन्म क्यों िदया था? मगरि यह आपरने कैसे समझ िलया िक िसयारिाम आवेंगे ही नही?

मुंशीजी ने अपरने कमरे की ओरि जाते हुए कहा- जलाओ मत जाकरि खिुिशयां मनाओ। तुम्हारिी मनोकामना परूरिी हो गयी।

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िनमर्मला सारिी रिात रिोती रिही। इतना कलंक! उसने िजयारिाम को गहने लेक जाते देखिने पररि भी मुंह खिोलने का साहस नही िकया। क्यों? इसीिलए तो िक लोग समझंगे िक यह िमथ्या दोषारिोपरण करिके लड़के से वैरि साध रिही हैं। आज उसके मौन रिहने पररि उसे अपररिािधनी ठहरिाया जा रिहा ह। यिद वह िजयारिाम को उसी क्षण रिोक देती औरि िजयारिाम लज्जावश कही भाग जाता, तो क्या उसके िसरि अपररिाध न मढ़ा जाता?

िसयारिाम ही के साथ उसने कौन-सा दव्यर्मवहारि िकया था। वह कुछ बचत करिने के िलए ही िवचारि से तो िसयारिाम से सौदा मंगवाया करिती थी। क्या वह बचत करिके अपरने िलए गहने गढ़वाना चाहती थी? जब आमदनी की यह हाल हो रिहा था तो परैसे-परैसे पररि िनगाह रिखिने के िसवाय कुछ जमा करिने का उसके परास औरि साधान ही क्या था? जवानों की िजन्दगी का तो कोई भरिोसा ही नही, बूढ़ों की िजन्दगी का क्या िठकाना? बच्ची के िववाह के िलए वह िकसके सामने हाथ फैलती? बच्ची का भारि कुद उसी पररि तो नही था। वह केवल परित की सुिवधा ही के िलए कुछ बटोरिने का प्रयत्न करि रिही थी। परित ही की क्यों? िसयारिाम ही तो िपरता के बाद घरि का स्वामी होता। बिहन के िववाह करिने का भारि क्या उसके िसरि पररि न परड़ता? िनमर्मला सारिी कतरि- व्योंत परित औरि परुत्र का संकट-मोचन करिने ही के िलए करि रिही थी। बच्ची का िववाह इस परिरििस्थित में सकंट के िसवा औरि क्या था? पररि इसके िलए भी उसके भाग्य में अपरयश ही बदा था।

दोपरहरि हो गयी, पररि आज भी चूल्हा नही जला। खिाना भी जीवन का काम ह, इसकी िकसी को सुध ही नथी। मुंशीजी बाहरि बेजान-से परड़े थ औरि िनमर्मला भीतरि थी। बच्ची कभी भीतरि जाती, कभी बाहरि। कोई उससे बोलने वाला न था। बारि-बारि िसयारिाम के कमरे के द्वारि पररि जाकरि खिड़ी होती औरि ‘बैया-बैया’ परुकारिती, पररि ‘बैया’ कोई जवाब न देता था।

संध्या समय मुंशीजी आकरि िनमर्मला से बोलेक- तुम्हारे परास कुछ रुपरये हैं?

िनमर्मला ने चौंककरि परूछा- क्या कीिजएगा।

मुंशीजी- मैं जो परूछता हंू, उसका जवाब दो।

िनमर्मला- क्या आपरको नही मालूम ह? देनेवालेक तो आपर ही हैं।

मुंशीजी- तुम्हारे परास कुछ रुपरये हैं या नही अगेरि हों, तो मुझे दे दो, न हों तो साफ जवाब दो।

िनमर्मला ने अब भी साफ जवाब न िदया। बोली- होंगे तो घरि ही में न होंगे। मैंने कही औरि नही भेज िदये।

मुंशीजी बाहरि चलेक गये। वह जानते थ िक िनमर्मला के परास रुपरये हैं, वास्तव में थ भी। िनमर्मला ने यह भी नही कहा िक नही हैं या मैं न दूंगी, उरि उसकी बातों से प्रकट हो यगया िक वह देना नही चाहती।

नौ बजे रिात तो मुंशीजी ने आकरि रुिक्मणी से काह- बहन, मैं जरिा बाहरि जा रिहा हंू। मेरिा िबस्तरि भूंगी से बंधवा देना औरि टं्रक में कुछ कपरड़े रिखिवाकरि बन्द करि देना ।

रुिक्मणी भोजन बना रिही थी। बोली- बहू तो कमेरे में ह, कह क्यों नही देते? कहां जाने का इरिादा ह?

मुंशीजी- मैं तुमसे कहता हंू, बहू से कहना होता, तो तुमसे क्यों कहाता? आज तुमे क्यों खिाना परका रिही हो?

रुिक्मणी- कौन परकावे? बहू के िसरि में ददर्म हो रिहा ह। आिखिरिइस वक्त कहां जा रिहे हो? सबेरे न चलेक जाना।

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मुंशीजी- इसी तरिह टालते-टालते तो आज तीन िदन हो गये। इधरि-इधरि घूम-घामकरि देखिूं, शायद कही िसयारिाम का परता िमल जाएे। कुछ लोग कहते हैं िक एक साधु के साथ बातें करि रिहा था। शायद वह कही बहका लेक गया हो।

रुिक्मणी- तो लौटोगे कब तक?

मुंशीजी- कह नही सकता। हफ्ता भरि लग जाएे महीना भरि लग जाएे। क्या िठकाना ह?

रुिक्मणी- आज कौन िदन ह? िकसी परंिडत से परूछ िलया ह िक नही?

मुंशीजी भोजन करिने बैठे। िनमर्मला को इस वक्त उन पररि बड़ी दया आयी। उसका सारिा क्रोध शान्त हो गया। खिुद तो न बोली, बच्ची को जगाकरि चुमकारिती हुई बोली- देखि, तेरे बाबूजी कहां जो रिहे हैं? परूछ तो?

बच्ची ने द्वारि से झांककरि परूछा- बाबू दी, तहां दाते हो?

मुंशीजी- बड़ी दूरि जाता हंू बेटी, तुम्हारे भैया को खिोजने जाता हंू। बच्ची ने वही से खिड़े-खिड़े कहा- अम बी तलेंगे।

मुंशीजी- बड़ी दूरि जाते हैं बच्ची, तुम्हारे वास्ते चीजें लायंेगे। यहां क्यों नही आती?

बच्ची मुस्करिाकरि िछपर गयी औरि एक क्षण में िफरि िकवाड़ से िसरि िनकालकरि बोली- अम बी तलेंगे।

मुंशीजी ने उसी स्वरि में कहा- तुमको नहर्म लेक तलेंगे।

बच्ची- हमको क्यों नई लेक तलोगे?

मुंशीजी- तुम तो हमारे परास आती नही हो।

लड़की ठुमकती हुई आकरि िपरता की गोद में बैठ गयी। थोड़ी देरि के िलए मुंशीजी उसकी बाल-क्रीड़ा में अपरनी अन्तवर्तेदना भूल गये।

भोजन करिके मुंशीजी बाहरि चलेक गये। िनमर्मला खिडेक़ी ताकती रिही। कहना चाहती थी- व्यथर्म जो रिहे हो, पररि कह न सकती थी। कुछ रुपरये िनकाल करि देने का िवचारि करिती थी, पररि दे न सकती थी।

अंत को न रिहा गया, रुिक्मणी से बोली- दीदीजी जरिा समझा दीिजए, कहां जा रिहे हैं! मेरिी जबान परकड़ी जाएेगी, पररि िबना बोलेक रिहा नही जाता। िबना िठकाने कहां खिोजेंगे? व्यथर्म की हरिानी होगी।

रुिक्मणी ने करुणा-सूचक नेत्रों से देखिा औरि अपरने कमरे में चली गइं।

िनमर्मला बच्ची को गोद में िलए सोच रिही थी िक शायद जाने के परहलेक बच्ची को देखिने या मुझसे िमलने के िलए आवें, पररि उसकी आशा िवफल हो गई? मुंशीजी ने िबस्तरि उठाया औरि तांगे पररि जा बैठे।

उसी वक्त िनमर्मला का कलेकजा मसोसने लगा। उसे ऐसा जान परड़ा िक इनसे भेंट न होगी। वह अधीरि होकरि द्वारि पररि आई िक मुंशीजी को रिोक लेक, पररि तांगा चल चुका था।

िदन न गुजरिने लगे। एक महीना परूरिा िनकल गया, लेकिकन मुंशीजी न लौटे। कोई खित भी न भेजा। िनमर्मला को अब िनत्य यही िचन्ता बनी रिहती िक वह लौटकरि न आये तो क्या होगा? उसे इसकी िचन्ता न होती थी िक उन पररि क्या बीत रिही होगी, वह कहां मारे-मारे िफरिते होंगे, स्वास्थ्य कैसा होगा? उसे केवल अपरनी आैंरि उससे

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भी बढ़करि बच्ची की िचन्ता थी। गृषहस्थी का िनवाह कैसे होगा? ईश्वरि कैसे बेड़ा परारि लगायंेगे? बच्ची का क्या हाल होगा? उसने कतरि-व्योंत करिके जो रुपरये जमा करि रिखे थ, उसमें कुछ-न-कुछ रिोज ही कमी होती जाती थी। िनमर्मला को उसमें से एक-एक परैसा िनकालते इतनी अखिरि होती थी, मानो कोई उसकी देह से रिक्त िनकाल रिहा हो। झंुझलाकरि मुंशीजी को कोसती। लड़की िकसी चीज के िलए रिोती, तो उसे अभािगन, कलमुंही कहकरि झल्लाती। यही नही, रुिक्मणी का घरि में रिहना उसे ऐसा जान परड़ता था, मानो वह गदर्मन पररि सवारि ह। जब हृदय जलता ह, तो वाणी भी अिग्नमय हो जाती ह। िनमर्मला बड़ी मधुरि-भािषणी स्त्रिी थी, पररि अब उसकी गणना ककरशाओ में की जा सकती थी। िदन भरि उसके मुखि से जली-कटी बातें िनकला करिती थी। उसके शब्दों की कोमलता न जाने क्या हो गई! भावों में माधुयर्म का कही नाम नही। भूंगी बहुत िदनों से इस घरि मे नौकरि थी। स्वभाव की सहनशील थी, पररि यह आठों परहहरि की बकबक उससे भी न सकी गई। एक िदन उसने भी घरि की रिाह ली। यहां तक िक िजस बच्ची को प्राणों से भी अिधक प्यारि करिती थी, उसकी सूरित से भी घृषणा हो गई। बात-बात पररि घुड़क परड़ती, कभी-कभी मारि बैठती। रुिक्मणी रिोई हुई बािलका को गोद में बैठा लेकती औरि चुमकारि-दलारि करि चुपर करिाती। उस अनाथ के िलए अब यही एक आश्रय रिह गया था।

िनमर्तेला को अब अगरि कुछ अच्छा लगता था, तो वह सुधा से बात करिना था। वह वहां जाने का अवसरि खिोजती रिहती थी। बच्ची को अब वह अपरने साथ न लेक जाना चाहती थी। परहलेक जब बच्ची को अपरने घरि सभी चीजें खिाने को िमलती थी, तो वह वहां जाकरि हंसती-खेलती थी। अब वही जाकरि उसे भूखि लगती थी। िनमर्मला उसे घूरि-घूरिकरि देखिती, मुिटठयां-बांधकरि धमकाती, पररि लड़की भूखि की रिट लगाना न छोड़ती थी। इसिलए िनमर्मला उसे साथ न लेक जाती थी। सुधा के परास बैठकरि उसे मालूम होता था िक मैं आदमी हंू। उतनी देरि के िलए वह िचताआं से मुक्त हो जाती थी। जैसे शरिाबी शरिाब के नशे में सारिी िचन्ताएं भूल जाता ह, उसी तरिह िनमर्मला सुधा के घरि जाकरि सारिी बातें भूल जाती थी। िजसने उसे उसके घरि पररि देखिा हो, वह उसे यहां देखिकरि चिकत रिह जाता। वही ककरशा, कटु-भािषणी स्त्रिी यहां आकरि हास्यिवनोद औरि माधुयर्म की परुतली बन जाती थी। यौवन-काल की स्वाभािवक वृषित्तयां अपरने घरि पररि रिास्ता बन्द पराकरि यहां िकलोलें करिने लगती थी। यहां आते वक्त वह मांग-चोटी, कपरड़े-लत्ते से लैस होकरि आती औरि यथासाध्य अपरनी िवपरित्त कथा को मन ही में रिखिती थी। वह यहां रिोने के िलए नही, हंसने के िलए आती थी।

पररि कदािचत् उसके भाग्य में यह सुखि भी नही बदा था। िनमर्मला मामली तौरि से दोपरहरि को या तीसरे परहरि से सुधा के घरि जाएा करिती थी। एक िदन उसका जी इतना ऊबा िक सबेरे ही जा परहंुची। सुधा नदी स्नान करिने गई थी, डॉक्टरि साहब अस्परताल जाने के िलए कपरड़े परहन रिहे थ। महरिी अपरने काम-धंधे में लगी हुई थी। िनमर्मला अपरनी सहेली के कमरे में जाकरि िनिश्चन्त बैठ गई। उसने समझा-सुधा कोई काम करि रिही होगी, अभी आती होगी। जब बैठे दो-िदन िमनट गुजरि गये, तो उसने अलमारिी से तस्वीरिों की एक िकताब उतारि ली औरि केश खिोल परलंग पररि लेकटकरि िचत्र देखिने लगी। इसी बीच में डॉक्टरि साहब को िकसी जरुरित से िनमर्मला के कमरे में आना परड़ा। अपरनी ऐनक ढूंढते िफरिते थ। बेधड़क अन्दरि चलेक आये। िनमर्मला द्वारि की ओरि केश खिोलेक लेकटी हुई थी। डॉक्टरि साहब को देखिते ही चौंककारि उठ बैठी औरि िसरि ढांकती हुई चारिपराई से उतकरि खिड़ी हो गई। डॉक्टरि साहब ने लौटते हुए िचक के परास खिड़े होकरि कहा- क्षमा करिना िनमर्मला, मुझे मालूम न था िक यहां हो! मेरिी ऐनक मेरे कमरे में नही िमल रिही ह, न जाने कहां उतारि करि रिखि दी थी। मैंने समझा शायद यहां हो।

िनमर्मला सने चारिपराई के िसरिहाने आलेक पररि िनगाह डाली तो ऐनक की िडिबया िदखिाई दी। उसने आगे बढ़करि िडिबया उतारि ली, औरि िसरि झुकाये, देह समेटे, संकोच से डॉक्टरि साहब की ओरि हाथ बढ़ाया। डॉक्टरि

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साबह ने िनमर्मला को दो-एक बारि परहलेक भी देखिा था, पररि इस समय के-से भाव कभी उसके मन में न आये थ। िजस ज्वाजा को वह बरिसों से हृदय में दवाये हुए थ, वह आज परवन का झोंका पराकरि दहक उठी। उन्होंने ऐनक लेकने के िलए हाथ बढ़ाया, तो हाथ कांपर रिहा था। ऐनक लेककरि भी वह बाहरि न गये, वही खिोए हुए से खिड़े रिहे। िनमर्मला ने इस एकान्त से भयभीत होकरि परूछा- सुधा कही गई ह क्या?

डॉक्टरि साहब ने िसरि झुकाये हुए जवाब िदया- हां, जरिा स्नान करिने चली गई हैं।

िफरि भी डॉक्टरि साहब बाहन न गये। वही खिड़े रिहे। िनमर्मला ने िफश्र परूछा- कब तक आयेगी?

डॉक्टरि साहब ने िसरि झुकाये हुए केहा- आती होंगी।

िफरि भी वह बाहरि नही आये। उनके मन में घारे द्वन्द्व मचा हुआ था। औिचत्य का बंधन नही, भीरुता का कच्चा तागा उनकी जबान को रिोके हुए था। िनमर्मला ने िफरि कहा- कही घूमने-घामने लगी होंगी। मैं भी इस वक्त जाती हंू।

भीरुता का कच्चा तागा भी टूट गया। नदी के कगारि पररि परहंुच करि भागती हुई सेना में अद्भुत शिक्त आ जाती ह। डॉक्टरि साहब ने िसरि उठाकरि िनमर्मला को देखिा औरि अनुरिाग में डूबे हुए स्वरि में बोलेक- नही, िनमर्मला, अब आती हो होंगी। अभी न जाओ। रिोज सुधा की खिाितरि से बैठती हो, आज मेरिी खिाितरि से बैठो। बताओ, कम तक इस आग में जला करु? सत्य कहता हंू िनमर्मला...।

िनमर्मला ने कुछ औरि नही सुना। उसे ऐसा जान परड़ा मानो सारिी परृषथ्वी चक्करि खिा रिही ह। मानो उसके प्राणों पररि सहस्रों वज्रों का आघात हो रिहा ह। उसने जल्दी से अलगनी पररि लटकी हुई चादरि उतारि ली औरि िबना मुंह से एक शब्द िनकालेक कमरे से िनकल गई। डॉक्टरि साहब िखििसयाये हुए-से रिोना मुंह बनाये खिड़े रिहे! उसको रिोकने की या कुछ कहने की िहम्मत न परड़ी।

िनमर्मला ज्योंही द्वारि पररि परहंुची उसने सुधा को तांगे से उतरिते देखिा। सुधा उसे िनमर्मला ने उसे अवसरि न िदया, तीरि की तरिह झपरटकरि चली। सुधा एक क्षण तक िवस्मेय की दशा में खिड़ी रिही। बात क्या ह, उसकी समझ में कुछ न आ सका। वह व्यग्र हो उठी। जल्दी से अन्दरि गई महरिी से परूछने िक क्या बात हुई ह। वह अपररिाधी का परता लगायेगी औरि अगरि उसे मालूम हुआ िक महरिी या औरि िकसी नौकरि से उसे कोई अपरमान-सूचक बात कह दी ह, तो वह खिड़े-खिड़े िनकाल देगी। लपरकी हुई वह अपरने कमरे में गई। अन्दरि कदम रिखिते ही डॉक्टरि को मुंह लटकाये चारिपराई पररि बैठे देखि। परूछा- िनमर्मला यहां आई थी?

डॉक्टरि साहब ने िसरि खिुजलाते हुए कहा- हां, आई तो थी।

सुधा- िकसी महरिी-अहरिी ने उन्हें कुछ कहा तो नही? मुझसे बोली तक नही, झपरटकरि िनकल गइं।

डॉक्टी साहब की मुखि-कािन्त मिजन हो गई, कहा- यहां तो उन्हें िकसी ने भी कुछ नही कहा।

सुधा- िकसी ने कुछ कहा ह। देखिो, मैं परूछती हंू न, ईश्वरि जानता ह, परता परा जाऊंगी, तो खिड़े-खिड़े िनकाल दूंगी।

डॉक्टरि साहब िसटिपरटाते हुए बोलेक- मैंने तो िकसी को कुछ कहते नही सुना। तुम्हें उन्होंने देखिा न होगा।

सुधा-वाह, देखिा ही न होगा! उसनके सामने तो मैं तांगे से उतरिी हंू। उन्होंने मेरिी ओरि ताका भी, पररि बोली कुद नही। इस कमरे में आई थी?

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डॉक्टरि साहब के प्राण सूखे जा रिहे थ। िहचिकचाते हुए बोलेक- आई क्यों नही थी।

सुधा- तुम्हें यहां बैठे देखिकरि चली गई होंगी। बस, िकसी महरिी ने कुछ कह िदया होगा। नीच जात हैं न, िकसी को बात करिने की तमीज तो ह नही। अरे, ओ सुन्दिरिया, जरिा यहां तो आ!

डॉक्टरि- उसे क्यों बुलाती हो, वह यहां से सीधे दरिवाजे की तरिफ गइं। महिरियों से बात तक नही हुई।

सुधा- तो िफरि तुम्ही ने कुछ कह िदया होगा।

डॉक्टरि साहब का कलेकजा धक्-धक् करिने लगा। बोलेक- मैं भला क्या कह देता क्या ऐसा गंवाह हंू?

सुधा- तुमने उन्हें आते देखिा, तब भी बैठे रिह गये?

डॉक्टरि- मैं यहां था ही नही। बाहरि बैठक में अपरनी ऐनक ढूंढ़ता रिहा, जब वहां न िमली, तो मैंने सोचा, शायद अन्दरि हो। यहां आया तो उन्हें बैठे देखिा। मैं बाहरि जाना चाहता था िक उन्होंने खिुद परूछा- िकसी चीज की जरुरित ह? मैंने कहा- जरिा देखिना, यहां मेरिी ऐनक तो नही ह। ऐनक इसी िसरिहाने वालेक ताक पररि थी। उन्होंने उठाकरि दे दी। बस इतनी ही बात हुई।

सुधा- बस, तुम्हें ऐनक देते ही वह झल्लाई बाहरि चली गई? क्यों?

डॉक्टरि- झल्लाई हुई तो नही चली गई। जाने लगी, तो मैंने कहा- बैिठए वह आती होंगी। न बैठी तो मैं क्या करिता?

सुधा ने कुछ सोचकरि कहा- बात कुछ समझ में नही आती, मैं जरिा उसके परास जाती हंू। देखिूं, क्या बात ह।

डॉक्टरि-तो चली जाना ऐसी जल्दी क्या ह। सारिा िदन तो परड़ा हुआ ह।

सुधा ने चादरि ओढते हुऐ कहा- मेरे पेट में खिलबली माची हुई ह, कहते हो जल्दी ह?

सुधा तेजी से कदम बढ़ती हुई िनमर्मला के घरि की ओरि चली औरि परांच िमनट में जा परहंुची? देखिा तो िनमर्मला अपरने कमरे में चारिपराई पररि परड़ी रिो रिही थी औरि बच्ची उसके परास खिड़ी रिही थी- अम्मां, क्यों लोती हो?

सुधा ने लड़की को गोद मे उठा िलया औरि िनमर्मला से बोली-बिहन, सच बताओ, क्या बात ह? मेरे यहां िकसी ने तुम्हें कुछ कहा ह? मैं सबसे परूछ चुकी, कोई नही बतलाता।

िनमर्मला आंसू परोंछती हुई बोली- िकसी ने कुछ कहा नही बिहन, भला वहां मुझे कौन कुछ कहता?

सुधा- तो िफरि मुझसे बोली क्यों नही ओरि आते-ही-आते रिोने लगी?

िनमर्मला- अपरने नसीबों को रिो रिही हंू, औरि क्या।

सुधा- तुम यों न बतलाओगी, तो मैं कसम दूंगी।

िनमर्मला- कसम-कसम न रिखिाना भाई, मुझे िकसी ने कुछ नही कहा, झूठ िकसे लगा दूं?

सुधा- खिाओ मेरिी कसम।

िनमर्मला- तुम तो नाहक ही िजद करिती हो।

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सुधा- अगरि तुमने न बताया िनमर्मला, तो मैं समझंूगी, तुम्हें जरिा भी प्रेम नही ह। बस, सब जबानी जमा- खिचर्म ह। मैं तुमसे िकसी बात का परदा नही रिखिती औरि तुम मुझे गैरि समझती हो। तुम्हारे ऊपररि मुझे बड़ा भरिोसा थ। अब जान गई िक कोई िकसी का नही होता।

सुधा की आंखें सजल हो गई। उसने बच्ची को गोद से उतारि िलया औरि द्वारि की ओरि चली। िनमर्मला ने उठाकरि उसका हाथ परकड़ िलया औरि रिोती हुई बोली- सुधा, मैं तुम्हारे परैरि परड़ती हंू, मत परूछो। सुनकरि दखि होगा औरि शायद मैं िफरि तुम्हें अपरना मुंह न िदखिा सकूं। मैं अभिगनी ने होती, तो यह िदन िह क्यों देखिती? अब तो ईश्वरि से यही प्राथर्मना ह िक संसारि से मुझे उठा लेक। अभी यह दगर्मित हो रिही ह, तो आगे न जाने क्या होगा?

इन शब्दों में जो संकेत था, वह बुिद्वमती सुधा से िछपरा न रिह सका। वह समझ गई िक डॉक्टरि साहब ने कुछ छेड़-छाड़ की ह। उनका िहचक-िहचककरि बातें करिना औरि उसके प्रश्नों को टालना, उनकी वह ग्लािनमये, कांितहीन मुद्रा उसे याद आ गई। वह िसरि से परांव तक कांपर उठी औरि िबना कुछ कहे-सुने िसहनी की भांित क्रोध से भरिी हुई द्वारि की ओरि चली। िनमर्मला ने उसे रिोकना चाहा, पररि न परा सकी। देखिते-देखिते वह सड़क पररि आ गई औरि घरि की ओरि चली। तब िनमर्मला वही भूिम पररि बैठ गई औरि फूट-फूटकरि रिोने लगी।

िनमर्मला िदन भरि चारिपराई पररि परड़ी रिही। मालूम होता ह, उसकी देह में प्राण नही ह। न स्नान िकया, न भोजन करिने उठी। संध्या समय उसे ज्वरि हो आया। रिात भरि देह तवे की भांित तपरती रिही। दूसरे िदन ज्वरि न उतरिा। हां, कुछ-कुछ कमे हो गया था। वह चारिपराई पररि लेकटी हुई िनश्चल नेत्रों से द्वारि की ओरि ताक रिही थी। चारिों ओरि शून्य था, अन्दरि भी शून्य बाहरि भी शून्य कोई िचन्ता न थी, न कोई स्मृषित, न कोई द:खि, मिस्तष्क में स्परन्दन की शिक्त ही न रिही थी।

सहसा रुिक्मणी बच्ची को गोद में िलये हुए आकरि खिड़ी हो गई। िनमर्मला ने परूछा- क्या यह बहुत रिोती थी?

रुिक्मणी- नही, यह तो िससकी तक नही। रिात भरि चुपरचापर परड़ी रिही, सुधा ने थोड़ा-सा दूध भेज िदया था।

िनमर्मला- अहीिरिन दूध न दे गई थी?

रुिक्मणी- कहती थी, िपरछलेक परैसे दे दो, तो दूं। तुम्हारिा जी अब कैसा ह?

िनमर्मला- मुझे कुछ नही हुआ ह? कल देह गरिम हो गई थी।

रुिक्मणी- डॉक्टरि साहब का बुरिा हाल ह?

िनमर्मला ने घबरिाकरि परूछा- क्या हुआ, क्या? कुशल से ह न?

रुिक्मणी- कुशल से हैं िक लाश उठाने की तैयारिी हो रिही ह! कोई कहता ह, जहरि खिा िलया था, कोई कहता ह, िदल का चलना बन्द हो गया था। भगवान् जाने क्या हुआ था।

िनमर्मला ने एक ठण्डी सांस ली औरि रुंधे हुए कंठ से बोली- हाया भगवान्! सुधा की क्या गित होगी! कैसे िजयेगी?

यह कहते-कहते वह रिो परड़ी औरि बड़ी देरि तक िससकती रिही। तब बड़ी मुिश्कल से उठकरि सुधा के परास जाने को तैयारि हुई परांव थरि-थरि कांपर रिहे थ, दीवारि थामे खिड़ी थी, पररि जी न मानता था। न जाने सुधा ने यहां से जाकरि परित से क्या कहा? मैंने तो उससे कुछ कहा भी नही, न जाने मेरिी बातों का वह क्या मतलब समझी? हाय!

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ऐसे रुपरवान् दयालु, ऐसे सुशील प्राणी का यह अन्त! अगरि िनमर्मला को मालूम होत िक उसके क्रोध का यह भीषण परिरिणाम होगा, तो वह जहरि का घूंट परीकरि भी उस बात को हंसी में उड़ा देती।

यह सोचकरि िक मेरिी ही िनष्ठुरिता के कारिण डॉक्टरि साहब का यह हाल हुआ, िनमर्मला के हृदय के टुकड़े होने लगे। ऐसी वेदना होने लगी, मानो हृदय में शूल उठ रिहा हो। वह डॉक्टरि साहब के घरि चली।

लाश उठ चुकी थी। बाहरि सन्नाटा छाया हुआ था। घरि में स्त्रिीयां जमा थी। सुधा जमीन पररि बैठी रिो रिही थी। िनमर्मला को देखिते ही वह जोरि से िचल्लाकरि रिो परड़ी औरि आकरि उसकी छाती से िलपरट गई। दोनों देरि तके रिोती रिही।

जब औरितों की भीड़ कम हुई औरि एकान्त हो गया, िनमर्मला ने परूछा- यह क्या हो गया बिहन, तुमने क्या कह िदया?

सुधा अपरने मन को इसी प्रश्न का उत्तरि िकतनी ही बारि दे चुकी थी। उसकी मन िजस उत्तरि से शांत हो गया था, वही उत्तरि उसने िनमर्मला को िदया। बोली- चुपर भी तो न रिह सकती थी बिहन, क्रोध की बात पररि क्रोध आती ही ह।

िनमर्मला- मैंने तो तुमसे कोई ऐसी बात भी न कही थी।

सुधा- तुम कैसे कहती, कह ही नही सकती थी, लेकिकन उन्होंने जो बात हुई थी, वह कह दी थी। उस पररि मैंने जो कुद मुंह में आया, कहा। जब एक बात िदल में आ गई,तो उसे हुआ ही समझना चािहये। अवसरि औरि घात िमलेक, तो वह अवश्य ही परूरिी हो। यह कहकरि कोई नही िनकल सकता िक मैंने तो हंसी की थी। एकान्त में एसा शब्द जबान पररि लाना ही कह देता ह िक नीयत बुरिी थी। मैंने तुमसे कभी कहा नही बिहन, लेकिकन मैंने उन्हें कई बात तुम्हारिी ओरि झांकते देखिा। उस वक्त मैंने भी यही समझा िक शायद मुझे धोखिा हो रिहा हो। अब मालूम हुआ िक उसक ताक-झांक का क्या मतलब था! अगरि मैंने दिनया ज्यादा देखिी होती, तो तुम्हें अपरने घरि न आने देती। कम-से-कम तुम पररि उनकी िनगाह कभी ने परड़ने देती, लेकिकन यह क्या जानती थी िक परुरुषों के मुंह में कुछ औरि मन में कुछ औरि होता ह। ईश्वरि को जो मंजूरि था, वह हुआ। ऐसे सौभाग्य से मैं वैधव्य को बुरि नही समझती। दिरिद्र प्राणी उस धनी से कही सुखिी ह, िजसे उसका धन सांपर बनकरि काटने दौड़े। उपरवास करि लेकना आसान ह, िवषैला भोजन करिन उससे कही मुंिश्कल ।

इसी वक्त डॉक्टरि िसन्हा के छोटे भाई औरि कृष्णा ने घरि में प्रवेश िकया। घरि में कोहरिाम मच गया।

एक महीना औरि गुजरि गया। सुधा अपरने देवरि के साथ तीसरे ही िदन चली गई। अब िनमर्मला अकेली थी। परहलेक हंस-बोलकरि जी बहला िलया करिती थी। अब रिोना ही एक काम रिह गया। उसका स्वास्थय िदन-िदन िबगडेक़ता गया। परुरिाने मकान का िकरिाया अिधक था। दूसरिा मकान थोड़े िकरिाये का िलया, यह तंग गली में था। अन्दरि एक कमरिा था औरि छोटा-सा आंगन। न प्रकाशा जाता, न वायु। दगर्मन्ध उड़ा करिती थी। भोजन का यह हाल िक परैसे रिहते हुये भी कभी-कभी उपरवास करिना परड़ता था। बाजारि से जाएे कौन? िफरि अपरना कोई मदर्म नही, कोई लड़का नही, तो रिोज भोजन बनाने का कष्टि कौन उठाये? औरितों के िलये रिोज भोजन करेन की आवश्यका ही क्या? अगरि एक वक्त खिा िलया, तो दो िदन के िलये छुट्टी हो गई। बच्ची के िलए ताजा हलुआ या रिोिटयां बन जाती थी! ऐसी दशा में स्वास्थ्य क्यों न िबगड़ता? िचन्त, शोक, दरिवस्था, एक हो तो कोई कहे। यहां तो त्रयतापर का धावा था। उस पररि िनमर्मला ने दवा खिाने की कसम खिा ली थी। करिती ही क्या? उन थोड़े-से रुपरयों में दवा की

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गुंजाइश कहां थी? जहां भोजन का िठकाना न था, वहां दवा का िजक्र ही क्या? िदन-िदन सूखिती चली जाती थी।

एक िदन रुिक्मणी ने कहा- बहु, इस तरिक कब तक घुला करिोगी, जी ही से तो जहान ह। चलो, िकसी वैद्य को िदखिा लाऊं।

िनमर्मला ने िवरिक्त भाव से कहा- िजसे रिोने के िलए जीना हो, उसका मरि जाना ही अच्छा।

रुिक्मणी- बुलाने से तो मौत नही आती?

िनमर्मला- मौत तो िबन बुलाए आती ह, बुलाने में क्यों न आयेगी? उसके आने में बहुत िदन लगेंगे बिहन, ज ैिदन चलती हंू, उतने साल समझ लीिजए।

रुिक्मणी- िदल ऐसा छोटा मत करिो बहू, अभी संसारि का सुखि ही क्या देखिा ह?

िनमर्मला- अगरि संसारि की यही सुखि ह, जो इतने िदनों से देखि रिही हंू, तो उससे जी भरि गया। सच कहती हंू बिहन, इस बच्ची का मोह मुझे बांधे हुए ह, नही तो अब तक कभी की चली गई होती। न जाने इस बेचारिी के भाग्य में क्या िलखिा ह?

दोनों मिहलाएं रिोने लगी। इधरि जब से िनमर्मला ने चारिपराई परकड़ ली ह, रुिक्मणी के हृदय में दया का सोता-सा खिुल गया ह। द्वेष का लेकश भी नही रिहा। कोई काम करिती हों, िनमर्मला की आवाज सुनते ही दौड़ती हैं। घण्टों उसके परास कथा-परुरिाण सुनाया करिती हैं। कोई ऐसी चीज परकाना चाहती हैं, िजसे िनमर्मला रुिच से खिाये। िनमर्मला को कभी हंसते देखि लेकती हैं, तो िनहाल हो जाती ह औरि बच्ची को तो अपरने गलेक का हारि बनाये रिहती हैं। उसी की नीद सोती हैं, उसी की नीद जागती हैं। वही बािलका अब उसके जीवन का आधारि ह।

रुिक्मणी ने जरिा देरि बाद कहा- बहू, तुम इतनी िनरिाश क्यों होती हो? भगवान् चाहेंगे, तो तुम दो-चारि िदन में अच्छी हो जाओगी। मेरे साथ आज वैद्यजी के परास चला। बड़े सज्जन हैं।

िनमर्मला- दीदीजी, अब मुझे िकसी वैद्य, हकीम की दवा फायदा न करेगी। आपर मेरिी िचन्ता न करें। बच्ची को आपरकी गोद में छोड़े जाती हंू। अगरि जीती-जागती रिहे, तो िकसी अच्छे कुल में िववाह करि दीिजयेगा। मैं तो इसके िलये अपरने जीवन में कुछ न करि सकी, केवल जन्म देने भरि की अपररिािधनी हंू। चाहे क्वांरिी रििखियेगा, चाहे िवष देकरि मारि डािलएग, पररि कुपरात्र के गलेक न मिढ़एगा, इतनी ही आपरसे मेरिी िवनय ह। मैंन आपरकी कुछ सेवा न की, इसका बड़ा द:खि हो रिहा ह। मुझ अभािगनी से िकसी को सुखि नही िमला। िजस पररि मेरिी छाया भी परड़ गई, उसका सवर्मनाश हो गया अगरि स्वामीजी कभी घरि आवें, तो उनसे किहएगा िक इस करिम-जली के अपररिाध क्षमा करि दें।

रुिक्मणी रिोती हुई बोली- बहू, तुम्हारिा कोई अपररिाध नही ईश्वरि से कहती हंू, तुम्हारिी ओरि से मेरे मन में जरिा भी मैल नही ह। हां, मैंने सदैव तुम्हारे साथ कपरट िकया, इसका मुझे मरिते दम तक द:खि रिहेगा।

िनमर्मला ने कातरि नेत्रों से देखिते हुये केहा- दीदीजी, कहने की बात नही, पररि िबना कहे रिहा नही जात। स्वामीजी ने हमेशा मुझे अिवश्वास की दृषिष्टि से देखिा, लेकिकन मैंने कभी मन मे भी उनकी उपेक्षा नही की। जो होना था, वह तो हो ही चुका था। अधमर्म करिके अपरना पररिलोक क्यों िबगाड़ती? परूवर्म जन्म में न जाने कौन-सा परापर िकया था, िजसका वह प्रायिश्चत करिना परड़ा। इस जन्म में कांटे बोती, तोत कौन गित होती?

िनमर्मला की सांस बड़े वेग से चलने लगी, िफरि खिाट पररि लेकट गई औरि बच्ची की ओरि एक ऐसी दृषिष्टि से देखिा,

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जो उसके चिरित्र जीवन की संपरूणर्म िवमत्कथा की वृषहद् आलोचना थी, वाणी में इतनी सामथ्यर्म कहा?

तीन िदनों तक िनमर्मला की आंखिों से आंसुआं की धारिा बहती रिही। वह न िकसी से बोलती थी , न िकसी की ओरि देखिती थी औरि न िकसी का कुछ सुनती थी। बस, रिोये चली जाती थी। उस वेदना का कौन अनुमान करि सकता ह?

चौथ िदन संध्या समय वह िवपरित्त कथा समाप्त हो गई। उसी समय जब परशु-परक्षी अपरने-अपरने बसेरे को लौट रिहे थ, िनमर्मला का प्राण-परक्षी भी िदन भरि िशकािरियों के िनशानों, िशकारिी िचिड़यों के परंजों औरि वायु के प्रचंड झोंकों से आहत औरि व्यिथत अपरने बसेरे की ओरि उड़ गया।

मुहल्लेक के लोग जमा हो गये। लाश बाहरि िनकाली गई। कौन दाह करेगा, यह प्रश्न उठा। लोग इसी िचन्ता में थ िक सहसा एक बूढ़ा परिथक एक बकुचा लटकाये आकरि खिड़ा हो गया। यह मुंशी तोतारिाम थ।

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